विचार

निर्वाचित तानाशाही से निपटने के लिए महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत

निर्वाचित तानाशाही और लोकतंत्र में अहम संतुलन बनाए रखने वाली संस्थाओं को बेकार बना देने के कारण उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए आज के समय में महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत है।

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महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और बराक ओबामा-जैसी विभूतियों की पहचान है धैर्ययुक्त प्रतिरोध या अवज्ञा। यह एक स्थापित सत्य है कि शांतिपूर्ण और अहिंसक प्रतिरोध नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का बुनियादी तत्व है। नागरिक अवज्ञा की स्थितियों पर बहस-मुबाहिसा हो सकता है लेकिन एक सिद्धांत के तौर पर यह इतना स्पष्ट है कि इस पर सवाल खड़े करने की कोई गुंजाइश नहीं। लेकिन अफसोस की बात है कि यह सरकार ऐसा ही कर रही है। सरकार ने जामिया में छात्रों के प्रदर्शन को लेकर जो दलीलें दीं और अब फरवरी, 2020 में उत्तर पूर्व दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के पीछे की कथित साजिश को लेकर एफआईआर संख्या 59/2020 के सिलसिले में जो चार्जशीट दाखिल की गई है, उसमें जो कुछ भी कहा गया है, उससे यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है।

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बहस में हितों के टकराव का खुलासा करना महत्वपूर्ण होता है, यह खासतौर पर तब अहम हो जाता है जब सरकारी पक्ष ऐसा करने में बुरी तरह विफल रहा हो। चार्जशीट में आरोपियों के खुलासे वाले बयानों में मेरे नाम का भी जिक्र है। ऐसे में मुझे सरकार के कदमों के खिलाफ तर्क रखने का वैध अधिकार है। मैंने जामिया, शाहीन बाग और खुरेजी सहित कई स्थानों पर विरोध सभाओं को संबोधित किया। ये सभी सभाएं शांतिपूर्ण थीं और मेरे जाने से पहले तथा मेरे लौट जाने के बाद भी इन जगहों पर शांति बनी रही। यह पूछे जाने पर कि क्या पुलिस का यह दावा सही था कि मेरे भाषण ‘भड़काऊ और लामबंद करने वाले’ थे, मैंने बड़ी साफगोई के साथ कहा कि मैं कोई वहां जमा लोगों को लोरियां सुनाने या उन्हें प्रदर्शन नहीं करने के लिए समझाने-बुझाने तो गया नहीं था। अगर महात्मा गांधी होते तो कहते कि विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करना और प्रदर्शनकारियों को प्रोत्साहित करना मेरा अधिकार है और कर्तव्य भी। महात्मा गांधी का मानना था कि अगर अहिंसा के सिद्धांतों से विमुख हुए तो प्रायश्चित और आत्ममंथन भी करना होगा जैसा कि चौरी चौरा कांड पर उनकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट था। सत्याग्रह की पूरी इमारत नैतिकता की बुनियाद पर टिकी थी और सत्याग्रह की राह से भटकाव का मतलब यही था कि कहीं-न-कहीं नैतिक आदर्शों के ऊंचे मानदंड ध्वस्त हुए। सीएए-एनआरसी का विरोध भी नैतिक प्रकृति का था और उसका समर्थन नहीं करना नैतिक कायरता होती।

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सरकार विरोध प्रदर्शन करने के लोगों के नैतिक हक को स्वीकार नहीं करने पर अड़ी है, भले प्रदर्शनकारियों का आकलन खुद भी उन्हें वैध विरोध तथा अनुचित व निंदनीय हिंसा के बीच एक रेखा खींचने के लिए प्रेरित करता हो। चार्जशीट में विरोध प्रदर्शन और दंगों में कोई अंतर नहीं किया गया है और अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान शहर में चक्का जाम करके अपनी बात को जोरदार तरीके से सामने रखने की प्रदर्शनकारियों की योजना के साथ इन्हें उद्देश्यपूर्ण तरीके से जोड़ दिया गया। यूपीए सरकार के दौरान पुतिन की यात्रा के समय को याद करना चाहिए। उस समय निर्भया मामले में आंदोलन हो रहा था और तत्कालीन यूपीए सरकार के लिए हैदराबाद हाउस में राष्ट्रपति पुतिन का स्वागत करना मुश्किल हो गया था, तो सरकार ने बिना कोई शोर-शराबा किए आयोजन प्रधानमंत्री निवास में स्थानांतरित कर दिया। उस समय न तो कर्फ्यू लगाया गया, न ही प्रदर्शनकारियों पर जोर-जबर्दस्ती की गई और न ही वर्दी वालों से घिरे किसी कांग्रेसी समर्थक ने कोई भड़काऊ भाषण ही दिया।

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कई बार जिम्मेदार सरकारों को जनता के विरोध को झेलना पड़ता है, यही लोकतंत्र है। लोगों पर शहरी नक्सल और राष्ट्र-विरोधी जैसे तमगे चस्पा करना नागरिकों की अपेक्षा सत्ता में बैठे लोगों को अपनी गिरेबान में झांकने की ज्यादा वजह बनते हैं। जिस सरकार में अपनी आलोचना सुनने की क्षमता न हो, उसके लिए यही कहा जा सकता है कि उसे अपने ही लोगों से डर लगता है। विरोध प्रदर्शन या नागरिक अशांति को आतंकवाद या अपराधों की तर्ज पर पेश करना लोकतंत्र में असंतोष और असहमति के उचित प्रबंधन में पूरी-पूरी विफलता का सबूत है।

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शुक्र मनाइए कि इस सरकार ने जवाहरलाल नेहरू की तरह महात्मा गांधी को हाशिये पर नहीं डाला। दरअसल, ये लोग जिसे हाशिये पर नहीं डाल सकते, उसे अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन महात्मा गांधी के मामले में इनमें उलझाव और अस्पष्टता है। लोगों को भी इस बात का अहसास है कि शाहीन बाग और जामिया के प्रदर्शन गांधीवादी सिद्धांतों और तरीकों से हो रहे थे। सौ दिनों तक चलने वाले इस विरोध से प्रदर्शन से किसी को कोई शिकायत नहीं थी। केवल उस सड़क से आने-जाने वालों को असुविधा हो रही थी और वह भी इस कारण कि पुलिस ने वैकल्पिक रास्तों को बंद कर दिया था। यहां तक कि उन दो दिनों के दौरान जब जामिया के छात्रों की पुलिस से भिड़ंत हो गई थी, तब भी वे अपना विरोध दर्ज कराने के लिए केंद्रीय दिल्ली तक मार्च कर रहे थे। उन्होंने पुलिस से मिली इजाजत के मुताबिक ही मार्च किया होगा। चार्जशीट में कई ऐसे लोगों के नाम हैं जिन्होंने सभा को संबोधित किया और पुलिस शिकायत में इनकी बातों को भड़काऊ बताया गया है और छात्रों की सभा को गैरकानूनी। लेकिन इससे कहीं ज्यादा भड़काऊ तो छात्रों की सभा को गैरकानूनी घोषित करना और उन पर टूट पड़ना था। इसलिए पुलिस को तो छात्रों को गलत बताते हुए बिना विश्वविद्यालय अधिकारियों की अनुमति परिसर में प्रवेश को सही ठहराना ही था।

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गांधीजी ने एक गैर-निर्वाचित विदेशी सरकार के खिलाफ सत्याग्रह का प्रयोग शुरू किया था और एक निर्वाचित सरकार के खिलाफ ऐसी गतिविधियों के खिलाफ तर्क गढ़े जा सकते हैं। लेकिन मुद्दे की बात तो यह है कि जब कोई निर्वाचित सरकार संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है और राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग करती है तो गांधीवादी सिद्धांत अपने आप मौजूं हो जाते हैं। निर्वाचित तानाशाही और लोकतंत्र में अहम संतुलन बनाए रखने वाली संस्थाओं को बेकार बना देने के कारण उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए आज के समय में महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत है। इसलिए इस मुश्किल वक्त में गांधीवादी दर्शन पर नए सिरे से गौर करने के साथ- साथ लोकतांत्रिक लामबंदी भी जरूरी है।

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अवज्ञाऔर गांधीवादी दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू कानून के प्रतिरोध का खामियाजा सहने को तैयार रहना है। लेकिन यह स्थिति तब आती है जब कोई नागरिक अनैतिक कानून पर अमल से इनकार करता है। जब कानून को तोड़-मरोड़ दिया जाता है और इसका इस्तेमाल संवैधानिक अधिकारों को नाजायज तरीके से कुचलने के लिए किया जाता है, तब इंसाफ मांगने के लिए अदालतों में गुहार लगाना ज्यादा जरूरी है। उम्मीद करनी चाहिए कि अदालतें भी ऐसे मामलों पर गौर करते वक्त ‘गांधी’ फिल्म के उस दृश्य को याद रखेंगी जिसमें कैदी के सम्मान में मजिस्ट्रेट अपनी कुर्सी से उठता है और फिर उसे सजा देने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए टिप्पणी करता है कि अगर सरकार इस सजा को माफ करने का विकल्प चुनती है तो उसे सबसे ज्यादा खुशी होगी। निश्चित रूप से आज देश उस समय के जैसा विभाजित नहीं है। गांधी सिर्फ नागरिक के लिए नहीं बल्कि सरकार, अदालतों और पुलिस के लिए भी हैं। उस कानून के बारे में सरकार का जो भी मानना हो, एक बड़े आंदोलन के जरिये तमाम लोगों ने इस पर सवाल खड़े किए हैं, अपने खिलाफ हुई हिंसा को लेकर लोगों में बड़ा ही वाजिब गुस्साहै। ऐसे में क्या वह वक्त का तकाजा नहीं कि समाज को हुए नुकसान की भरपाई के लिए हम महात्मा गांधी में अपने भरोसे को फिर से उसकी वाजिब जगह दें।

(लेखक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेश मंत्री हैं)

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