विचार

आज के दौर की दलगत राजनीति बस दलदल ही है!

अमेरिका और भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों में दलगत राजनीति महज दलदल से अधिक कुछ नहीं है, और राजनीति में आम जनता ओझल हो चुकी है। हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, शायद ही किसी देश में होंगें।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

ताजा खबर है कि मोदी सरकार राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों के साथ ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के चित्रों के तथाकथित दुरुपयोग पर सख्त सजा और भारी जुर्माना का प्रावधान रखने जा रही है। जाहिर है इसके बाद प्रतीक चिह्नों पर कभी कार्यवाही नहीं होगी, राष्ट्रपति कुछ ऐसा करती नहीं कि उनके चित्रों को कोई लगाए, पर सत्ता की नीतियों के विरोध की सोशल मीडिया पोस्ट्स पर प्रधानमंत्री की फ़ोटो लगाने वालों की खैर नहीं होगी। अंबानी के जिओ को लॉन्च करने वाले पोस्टर में मोदी जी की तस्वीर थी, इस करतूत के लिए अंबानी पर 1 रुपये का भारी-भरकम जुर्माना लगाया गया था, पर किसी को यह नहीं मालूम कि अंबानी ने उस 1 रुपये को भी चुकाया या नहीं। 

जहां तक प्रधानमंत्री के तस्वीरों के अवैध इस्तेमाल की बात है, तो वह तो दिल्ली की सड़कों पर हरेक वैध-अवैध जगह नजर आती है, हरेक खंभे और दीवार पर नजर आती है। बीजेपी के हरेक छोटे-बड़े कार्यकर्ता द्वारा चिपकाए गए पोस्टरों में बीजेपी अध्यक्ष नड़ड़ा की तस्वीर हो या ना हो पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर जरूर रहती है। बीजेपी मंदिर प्रकोष्ठ के जी श्री राम वाले पोस्टरों पर राम नहीं हैं बल्कि मोदी जी हैं। तस्वीरों के संदर्भ में तो मोदी जी दिल्ली की सड़कों पर सर्वव्यापी हैं। यही हाल आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का भी है। अवैध स्थानों पर लगे तमाम छोटे-बड़े पोस्टरों पर लटके राजनेताओं की तस्वीरें क्या अवैध नहीं है? यही एक-दूसरे पर जहर उगलते पोस्टर ही बीजेपी और आम आदमी पार्टी को एक धरातल पर खड़ा करते हैं – भले ही दोनों राजनैतिक दल बिल्कुल विपरीत विचारधारा की बात करते हों पर सतही तौर पर एक-जैसे ही नजर आते हैं।

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अमेरिका और भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों में दलगत राजनीति महज दलदल से अधिक कुछ नहीं है, और राजनीति में आम जनता ओझल हो चुकी है। हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, शायद ही किसी देश में होंगें। लोक कवाहत है, हमारे देश में हरेक कोस पर कुएं के पानी का स्वाद और भाषा बदलती है। कुएं तो अब कहीं गुम चुके हैं, भाषा लगभग एक जैसी हो चुकी है, पर अब तो कोस-कोस पर एक नया राजनैतिक दल नजर आता है। दल तमाम हैं, पर सबकी नीतियाँ एक हैं, विचारधारा भी एक है।

हो सकता है, आप अभी तक मानते हों कि तमाम दलों की राजनैतिक विचारधारा बिल्कुल अलग है, पर जब आप इन दलों के नेताओं को और उनके भाषणों को ध्यान से सुनेंगे तो शायद आपकी धारणा बदल जाए। वैसे तो यह हरेक दिन होता है पर चुनावों के समय दलगत नेताओं का सामूहिक विस्थापन होता है। इस विस्थापन में कोई भी नेता राजनीति से बाहर नहीं जाता और ना ही निर्दलीय होता है – एक पार्टी से निकलता है और बड़े स्वागत-सत्कार के साथ दूसरे दल, जो कल तक उसके लिए विपक्ष था, उसमें शामिल हो जाता है। यदि यही विस्थापन एक सामान्य प्रक्रिया है, दूसरे दलों में आवभगत और स्वागत सामान्य प्रक्रिया है, तो फिर दलगत राजनैतिक विचारधारा कहाँ है? 

आप इन नेताओं के भाषण भी सुनें तब भी बिल्कुल एक जैसे ही लगेंगे। सभी दलों ने भाषणों के लिए बिल्कुल एक जैसा फॉर्मैट तय कर लिया है। विपक्ष पर अनर्गल प्रलाप, विपक्षी नेताओं का चरित्र हनन, रोजगार देने के दावे और फिर मुफ़्त में तमाम वर्गों के बैंक खातों में कुछ राशि भेजने का ऐलान। कोई भी दलगत नेता आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता, मानवाधिकार, वैचारिक आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पर्यावरण और श्रमिकों के अधिकार की बात नहीं करता। शिक्षा, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और रोजगार के बारे में तथ्यों के साथ गंभीरता से बात नहीं करता। किसी भी दल का कोई नेता गलती से भी सामाजिक सशक्तीकरण की बात नहीं करता।

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सभी राजनैतिक दलों की अर्थव्यवस्था से संबंधित विचारधारा तो बिल्कुल एक है। सभी राजनैतिक दल पूँजीपतियों की भेंट से संचालित होते हैं। पूँजीपतियों और पूंजीवाद का सतही तौर पर विरोध करने वाले राजनैतिक दल भी इसी पूंजीवाद से चन्दा वसूलते हैं। जाहिर है, पूंजीवाद पर पनपने वाले दल पूंजीवाद का ही राग अलापेंगे, उन्हें सामान्य जनता से क्यों मतलब होगा। देश की या राज्य की आर्थिक नीतियाँ भी सभी राजनैतिक दलों की एक ही हैं – पूंजी निवेश और मुक्त व्यापार वाली। सभी राजनैतिक दल देश की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने में व्यस्त हैं, पर आर्थिक समानता की कोई बात नहीं करता, अरबपतियों की बढ़ती संख्या और संपत्ति की कोई बात नहीं करता। अमेरिका या किसी पश्चिमी देश में जब किसी भारतीय पूंजीपति द्वारा की जाने वाली अनियमितताओं की चर्चा उठती है, तब देश में विपक्ष की नींद खुलती है और विरोध के स्वर उठने शुरू होते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि तमाम पूंजीपति देश और जनता को लगातार लूट रहे हैं और कोई राजनैतिक दल उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं जुटा पाता है, सबूत के लिए अमेरिका या यूरोपीय देशों की संस्थाओं का इंतजार करना पड़ता है। यह भी एक आश्चर्य का विषय है कि पूँजीपतियों के विरुद्ध आवाज उठाते राजनैतिक दल जिस राज्य में सत्ता में बैठते हैं वहाँ से पूंजीवाद का खात्मा नहीं करते बल्कि पूँजीपतियों का तहे दिल से स्वागत करते हैं। 

राजनैतिक दलों की तो पोस्टरों में भाषा भी बिल्कुल एक जैसी हो गई है। दिल्ली में कुछ महीने पहले बीजेपी ने केजरीवाल को भ्रष्ट बताते हुए जगह-जगह पोस्टर लगाए थे। इसके बाद आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल को ईमानदार बताते हुए पोस्टर लगाए। जाहिर है, कोई एक राजनैतिक दल दूसरे दलों के पोस्टरों की भाषा और विषय भी निर्धारित करता है। इस समय दिल्ली में अगले चुनावों में बीजीपी के जीत के दावों के पोस्टर तमाम जगह लगे हैं, तो आम आदमी पार्टी ने फिर से केजरीवाल सरकार के नारों वाले पोस्टरों से दिल्ली को पाट दिया है। राजनैतिक दल तो एक-दूसरे से इस कदर प्रभावित हैं कि राहुल गांधी की पैदल यात्रा के बीच में बीजेपी ने भी तमाम तरह की यात्राएं आयोजित कर दी थीं। बीजेपी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चल रही है, तो केजरीवाल आम आदमी पार्टी का अकेला चेहरा हैं – सभी दलों में दल कहीं पीछे छूट गया है, बस एक चेहरा सामने रह गया है। अब तो पोस्टरों के रंगों में भी आम आदमी पार्टी और बीजेपी में अजीब सी समानता नजर आती है। बीजेपी में दिल्ली की समस्याओं के लिए आम आदमी पार्टी को जिम्मेदार ठहराते हुए काले बैकग्राउंड के पोस्टर लगाए, इसके ठीक बाद आम आदमी पार्टी के पोस्टर भी ठीक वैसे ही बैकग्राउंड में तमाम जगह चिपकने लगे।

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जब सभी राजनैतिक दल एक जैसा ही व्यवहार करने लगें तब जाहिर है, परिवर्तन की उम्मीद ही बेमानी है। ऐसे में परिवर्तन का केवल एक ही रास्ता है – अहिंसक जन आंदोलन। अनेक अध्ययन बताते हैं कि सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आन्दोलन अधिक सफल होते हैं। भले ही ऐसे आन्दोलन को समाज का कोई भी एक पीड़ित वर्ग शुरू करे पर धीरे धीरे सामाजिक बदलाव की संभावना का आकलन कर समाज का हरेक वर्ग ऐसे आन्दोलन से जुड़ जाता है। दरअसल अब तक आन्दोलनों पर सारे अध्ययन यह मान कर किये गए हैं कि लोग केवल भावनात्मक तौर या फिर आवेश में आन्दोलनों से जुड़ते हैं, पर स्टेनफोर्ड पब्लिक स्कूल ऑफ़ बिज़नस के समाजशास्त्रियों द्वारा किये गए अध्ययन से यह स्पष्ट है कि जब सामान्य लोगों को महसूस होता है कि किसी आन्दोलन का व्यापक असर समाज पर पड़ेगा, तब ऐसे आन्दोलनों से अधिक लोग जुड़ते हैं और ऐसे आन्दोलन लम्बे समय तक चलते हैं। इस अध्ययन को पर्सनालिटी एंड सोशल साइकोलॉजी बुलेटिन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।

इस अध्ययन का आधार अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े आन्दोलन, ब्लैक लाइव्ज मैटर, है पर इसके निष्कर्ष पूरी दुनिया के आन्दोलनों पर लागू होते हैं। इस आन्दोलन को अमेरिका के अश्वेतों ने जॉर्ज फ्लॉयड की एक पुलिस ऑफिसर द्वारा ह्त्या के विरोध में आरम्भ किया गया था, पर यह केवल अश्वेतों का आन्दोलन नहीं था। इसमें एशियाई, लैटिना और यहाँ तक कि गोरे लोगों ने भी बराबर की भागीदारी की। अमेरिका को हमेशा से ही सामाजिक तौर पर दो वर्गों में विभाजित करके देखा जाता है – गोरे जो समृद्ध हैं और शासक हैं तो दूसरी तरफ अश्वेत एक शोषित वर्ग है, जिसपर गोरे अपनी हुकूमत चलाते हैं। जाहिर है, ब्लैक लाइव्ज मैटर आन्दोलन के मूल में अश्वेतों द्वारा सामाजिक बराबरी की मांग थी, पर इस आन्दोलन में गोरे लोग भी भारी संख्या में शामिल हुए। इस अध्ययन में बताया गया है कि बड़े आन्दोलनों में हरेक वर्ग के जुड़ने के अलग कारण हो सकते हैं, पर सार्थक सामाजिक बदलाव की भावना सबसे प्रबल रहती है।

सामाजिक बदलाव की सामूहिक प्रेणना ही अलग-अलग वर्गों को अपने मतभेद छोड़कर आन्दोलनों में एक साथ लाती है। स्टेनफोर्ड ग्रैजुएट स्कूल ऑफ़ बिज़नस में पीएचडी छात्रा प्रीती वाणी के अनुसार हरेक समूह की यह भावना की उसके योगदान से समाज का क्या भला हो सकता है, ही काम करती है। इस भावना को इस अध्ययन में प्रभावकारी मानसिकता, यानि इम्पैक्ट माइंडसेट, कहा गया है और यही भावना सामाजिक परिवर्तन में काम करती है। इसके अनुसार लोग केवल भावनात्मक जुड़ाव के कारण आन्दोलन में शामिल नहीं होते, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी मानसिक रणनीति काम करती है और लोग एक निर्णयकर्ता की भूमिका निभाते हैं। इससे पहले आन्दोलनों पर काम करने वाले सभी विशेषज्ञ अपने अध्ययनों में वर्ग विशेष, बौद्धिक क्षमता, भावनाओं और पहचान विशेष के आधार पर आकलन करते रहे हैं। ऐसे अध्ययनों में हमेशा दो वर्ग होते हैं – एक पीड़ित और दूसरा सामान्य। प्रीती वाणी के अनुसार हरेक आन्दोलनों की व्याख्या परम्परागत पैरामीटर द्वारा करना कठिन है।

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आन्दोलनों की सफलता में भागीदारियों की सामरिक सोच, प्रतिस्पर्धा और इसका व्यापक असर बहुत महत्त्व रखता है। आन्दोलनों में सार्थक भागीदारी निभाने वाले लोगों या समूहों में चार मौलिक प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जाते हैं – इस आन्दोलन से हमें क्या लाभ होगा, हमसे समाज को क्या लाभ होगा, समाज से हमें क्या लाभ होगा और आन्दोलन से समाज को क्या लाभ होगा। इन प्रश्नों के उत्तर के लिए मस्तिष्क में एक सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा पनपती है। केवल आत्मकेंद्रित आन्दोलन कभी सफल नहीं होते। सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा के सन्दर्भ में यदि ब्लैक लाइव्ज मैटर आन्दोलन का आकलन करें तो अश्वेतों के लिए यह अपने अधिकार और समाज में बराबरी का मसला था। एशियाई और लैटिना आबादी का समर्थन इसलिए था कि जब अश्वेतों को समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा तब इन लोगों को अपने आप ही बराबरी का दर्जा मिल जाएगा। श्वेत आबादी, जो समाज में सबसे सशक्त तबका है, उन्हें आन्दोलन से उम्मीद थी कि जब समाज से भेदभाव ख़त्म हो जाएगा तब जाहिर है समाज में अमन-चैन कायम होगा और समाज में स्थिरता बढेगी। इस आन्दोलन में शामिल लोगों से बातचीत में अधिकतर प्रतिभागियों ने व्यापक सामाजिक बदलाव की आशा जताई थी।

इस अध्ययन में आन्दोलनों की सफलता की कुंजी खोजने का प्रयास किया गया है, पर वैश्विक स्तर पर एक ऐसे अध्ययन की जरूरत है जो यह बता सके कि सफल आन्दोलन कितने सार्थक होते है और समाज पर इनका प्रभाव सार्थक होता है या फिर प्रभाव पहले की स्थितियों से भी बुरा होता है। हमारे देश में व्यापक जन समर्थन वाले दो व्यापक आन्दोलन हुए हैं – एक की अगुवाई जयप्रकाश नारायण ने की थी, जिसके जवाब में देश पर इमरजेंसी थोपी गयी थी, और दूसरे आन्दोलन की अगुवाई अन्ना हजारे ने की। समाजवादी जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद सामाजिक बदलाव तो नजर नहीं आया, समाजवाद भी नजर नहीं आया – पर कट्टरपंथी दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी का उदय हो गया। इसके बाद अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद तो लोकतंत्र को निरंकुश तानाशाही में बदलने वाली शक्तियां ही सत्ता पर काबिज हो गईं और जनता से आन्दोलनों का अधिकार भी छिन गया। जाहिर है हमारे देश में तो जिन आन्दोलनों को सफल कहा जा सकता है, उन आन्दोलनों का असर ही उल्टा हो गया। एक साल से भी अधिक चले किसान आन्दोलन के बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटा सरकारी तौर पर सामाजिक तौर पर भी किसान पहले से अधिक उपेक्षित हो गए। पहले कभी-कभी किसानों की समस्याओं से सम्बंधित कुछ समाचार प्रकाशित भी होते थे, पर आन्दोलन ख़त्म होने के बाद तो मीडिया ने भी उनको भुला दिया। जाहिर है, आन्दोलन बड़ा होना एक बात है और बड़े आन्दोलनों का प्रभाव के सन्दर्भ में सफल होना बिलकुल दूसरी बात है। इस सन्दर्भ में देखें तो पायेंगे कि अधिकतर तथाकथित सफल आन्दोलन सामाजिक तौर पर असफल रहे हैं।

सभी राजनैतिक दल अपराधियों के सहारे चल रहे हैं, सभी दल पूँजीपतियों के चंदे पर आश्रित हैं, सभी दलों के चेहरों पर जनता के खून के छीटें हैं। सभी जनता को लूट रहे हैं, बस फर्क कम और ज्यादा का है। दलगत राजनीति में जनता नहीं है, विचारधारा नहीं है – बस दलदल है। ऐसे में एक सशक्त जन-आंदोलन से ही बदलाव की कुछ उम्मीद की जा सकती है। प्रजातन्त्र को फिर से बहाल करने के लिए अब तो प्रजा को ही आगे आना पड़ेगा, वरना तंत्र तो देश को दीमक की तरह खोखला कर चुका है। हरेक खंभे से लटके और हरेक दीवार से चिपके तमाम नेता जनता को बेवकूफ बना कर हंस रहे हैं।

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