विचार

जहरीली दिल्ली: दीपावली में पटाखों की अनुमति तो उदाहरण भर, दूसरे बड़े मसलों में भी रवैया लापरवाही भरा

दिल्ली दुनिया की शीर्ष 10 प्रदूषित राजधानियों में लगातार शामिल रही है। यहां जहरीली चादर साल भर बिछी रहती है जिस वजह से यहां के लोगों की आयु 8 से 10 साल कम हो जाती है।

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फोटो: Getty Images Hindustan Times

रायसीना हिल के शेरपा श्री अमिताभ कांत (दिल्ली में गाजीपुर लैंडफिल के अलावा कोई पहाड़ नहीं है, इसलिए इसे पहाड़ ही होना चाहिए, पर्वत नहीं) से असहमत होना मुझे आम तौर पर मुश्किल नहीं लगता, लेकिन मैं सुप्रीम कोर्ट द्वारा पटाखों पर प्रतिबंध हटाने पर उनकी हालिया टिप्पणियों से असहमत नहीं हो सकता। बेशक, उनके चेहरे पर थोड़ी-सी उलझन है क्योंकि वह भूल गए कि इस ढील के लिए दिल्ली में उनके गुरु की सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है, लेकिन फिर, खुद एक कठोर उबले अंडे होने के नाते, वह इसे सहजता से ले सकते हैं। जैसा कि कन्फ्यूशियस ने कहा था- रोजाना एक अंडा आपको खेल में बनाए रखता है। मैं इसे एक रूपक से समझाता हूं।

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रूपक एक शब्द, वाक्यांश, चित्र या यहां तक कि घटना भी हो सकती है जो किसी और चीज का प्रतीक या अर्थ देती है। उदाहरण के लिए, चीन का तियानमेन स्क्वायर राज्य की क्रूरता का रूपक है। बॉब डिलन और जोन बाएज के गीत पूंजीवाद के प्रति युवा विरोध और एक बेपरवाह समाज का रूपक हैं। कंगना रनौत एक और रूपक की रूपक हैं- चीनी मिट्टी के बरतन की दुकान में एक बैल। व्हाइट हाउस के पूर्वी विंग को ध्वस्त करने की ट्रंप की कोशिश उनकी विनाशकारी कार्यशैली का रूपक बन गई है। इसी तरह दिल्ली में पटाखा विमर्श/फैसला इस बात का सटीक रूपक है कि एक राष्ट्र, समाज और राजनीति के रूप में हम कितने निष्क्रिय हो गए हैं। न्यायपालिका समेत हमारी सभी संस्थाएं मृतप्राय और निष्क्रिय हो गई हैं, जो विज्ञान और प्रमाणों की बजाय आस्था और लोकप्रियता से अधिक प्रेरित हैं और उनका तर्क उत्तरोत्तर कुतर्कपूर्ण और मध्ययुगीन होता जा रहा है।

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दिल्ली दुनिया की शीर्ष 10 प्रदूषित राजधानियों में लगातार शामिल रही है। यहां जहरीली चादर साल भर बिछी रहती है जिस वजह से यहां के लोगों की आयु 8 से 10 साल कम हो जाती है। इसलिए पिछले कुछ वर्षों से यहां पटाखों पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इस साल दिवाली से बहुत पहले अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ ने इस बात को दोहराया भी था। लेकिन अक्तूबर में एक अन्य पीठ ने इस प्रतिबंध में ढील देते हुए, गलत नाम वाले 'ग्रीन' पटाखे फोड़ने की अनुमति दे दी।

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लेकिन इसके लिए पहले के आदेश को पलटने के बारे में कोई ठोस तर्क नहीं दिया गया। ग्रीन पटाखों में कुछ भी पर्यावरण-अनुकूल नहीं हैः साक्ष्य बताते हैं कि ये सामान्य पटाखों की तुलना में 70-80 प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं। इसके अलावा, उन्हें अनुमति देकर, अदालत ने वास्तव में किसी भी प्रकार के पटाखे फोड़ने की अनुमति दे दी, क्योंकि दिवाली की धुंध में उपभोक्ता या निगरानी करने वाली एजेंसियों के लिए पटाखे के 'प्रकार' की पहचान करना व्यावहारिक रूप से असंभव है। यह एक भयावह निर्णय था। लेकिन पिछले निर्णयों की तरह यह भी महान परंपरा के अनुरूप था जहां विज्ञान और विशेषज्ञ साक्ष्य को भी नजरअंदाज कर दिया गया- राम मंदिर, चारधाम राजमार्ग, ग्रेट निकोबार परियोजना, पेगासस, आवारा कुत्तों का मामला। अमिताभ कांत का इस बात पर नाराज होना पूरी तरह जायज था कि अदालत ने प्रदूषण फैलाने के अधिकार को स्वास्थ्य और जीवन के अधिकार से ऊपर रखा है। और, कहीं उन पर अवमानना का मुकदमा न चल जाए, इसलिए उन्होंने पर्यावरणविद का जामा पहन लिया और अगले ही दिन एक इलेक्ट्रिक कार खरीद ली!

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जैसा कि अपेक्षित था, दिल्ली में भाजपा सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा से अधिक अपनी हिन्दुत्ववादी छवि को प्रदर्शित करने में लगी रहीः उसने सुप्रीम कोर्ट में ग्रीन पटाखे फोड़ने की अनुमति देने के लिए याचिका दायर की, जिससे प्रतिबंध हटाने का रास्ता खुल गया। इस प्रतिगामी प्रयास में सफल होने के बाद, वह शांत बैठ गई और अदालत द्वारा लगाई गई किसी भी शर्त को लागू करने में विफल रही- चाहे उनकी कीमत कुछ भी रही हो, जो कि शुरुआत में बहुत अधिक नहीं थी। इसके बजाय, वह अपने काम में जुट गई- आंकड़ों में हेराफेरी। हमें बताया गया कि अधिकतम एक्यूआई रीडिंग 400 से नीचे थी, जबकि अंतरराष्ट्रीय एजेंसी- आईक्यूएयर ने इसे 2,000 के आसपास दिखाया था! फिर मीडिया में खबरें आईं कि प्रदूषण की माप करने वाले स्टेशनों के पास एयर स्प्रिंकलर और स्मॉग गन लगाए गए थे ताकि वहां की हवा साफ रहे जिससे रीडिंग कम आए। जब उनसे भी काम नहीं चला, तो मुख्य हॉटस्पॉट के एक तिहाई स्टेशनों ने रहस्यमय तरीके से काम करना बंद कर दिया! आखिरकार, किसी ने खुलासा किया कि सीपीसीबी के मापक मीटर 500 पर पहुंचते ही हवा की गुणवत्ता रिकॉर्ड करना बंद करने के लिए प्रोग्राम किए गए हैं। कारण? कोई मतलब नहीं क्योंकि 500 पहले से ही काफी जानलेवा है, उसके बाद कोई भी बढ़ोतरी मायने नहीं रखती! यह हमारे यूपी में प्रचलित एक कहावत को चरितार्थ करता है- 'मुर्दे पर सौ मन मिट्टी, तो एक मन और सही!' मतलब, हम-आप प्रदूषण की मार के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि क्या फर्क पड़ता है!

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गांव का का कोई मूर्ख भी सुप्रीम कोर्ट को बता सकता था कि एनसीआर में रहने वाले लोगों की भावना वैसी ही है जैसे पेट में पलने वाले टेपवर्म की जो खाने की चीजों के विटामिन पर ही पलते हैं या फिर, वे धरती के उत्तरी ध्रुव के आसपास पाए जाने वाले लेमिंग्स की तरह हैं जिनके बारे में माना जाता है कि उनमें आत्मघाती प्रवृत्ति होती है। इस क्षेत्र के लोग एक हफ्ते तक आगजनी के तांडव में डूबे रहे। नतीजा सबके सामने था- अगले दिन सांस लेना भी मुश्किल था। एनसीआर में मेरे छठे मंजिल वाले फ्लैट से, रात का नजारा गाजा की रात के आसमान जैसा लग रहा थाः हर तरफ धमाके और विस्फोट, लाल धुएं से जगमगाता क्षितिज, सड़कों पर बेचारे आवारा कुत्तों का डर से भौंकना। अगली सुबह हमारे परिसर के बाहर की सड़क घुटनों तक कूड़े से बिछी हुई थी, और कूड़ा बीनने वाले कुछ पैसे कमाने के लिए उसमें से गुजर रहे थे। हमारा उच्च मध्य वर्ग, निश्चित रूप से, तब तक एसी और एयर प्यूरिफायर से सुसज्जित अपने फ्लैटों की सुरक्षा में चला गया था।

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दिवाली के एक सप्ताह बाद भी मेरे इलाके में एक्यूआई की रीडिंग 300 के आसपास है। लेकिन यह और हर साल वायु प्रदूषण से मरने वाले पांच लाख भारतीय- दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते चुकाई जाने वाली यह एक छोटी सी कीमत है। है न?

(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं।)

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