विचार

तुर्की और सीरिया की त्रासदी से फिर उठा बड़ा सवाल- विनाशकारी भूकंप से क्षति कम कैसे की जाए?

धिकांश भूकंप वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालयी क्षेत्र में बहुत भीषण भूकंप आने की संभावना बहुत अधिक है और इसका असर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अतिरिक्त उत्तर भारत के अनेक अन्य क्षेत्रों और बड़े शहरों तक पहुंच सकता है। यह खतरा तीन स्तरों पर है।

भूकंप की तबाही के बाद तुर्की का एक शहर
भूकंप की तबाही के बाद तुर्की का एक शहर फोटोः @Timesofgaza

तुर्की और सीरिया में भूकंप से बहुत भारी क्षति हुई है। विशेषकर सीरिया के बारे में विशेष चिंता है क्योंकि वहां पहले ही लंबे समय से जारी गृह युद्ध जैसी स्थिति के कारण पूरा देश विकट संकट में है। अतः वहां शीघ्र से शीघ्र सहायता पहुंचानी चाहिए और सीरिया पर लगे प्रतिबंध हटाने चाहिए। इसके साथ विश्व स्तर पर भूकंप से क्षति कम करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

भारत का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में है। हाल के दशकों में भारत और पड़ोसी देशों में भूकंपों से अधिक क्षति हुई है और आगे के लिए भी यह एक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है। कुछ क्षेत्रों विशेषकर दक्षिण एशिया के संदर्भ में अध्ययन बताते हैं कि पिछली लगभग एक शताब्दी के दौरान भूकंप पहले से अधिक जानलेवा बन गए हैं।

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सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ, जबकि इस दौरान भूकंप से बचाव के भवन बनाने की तकनीक में काफी प्रगति होने के दावे किए गए। ‘साईंस’ पत्रिका में विश्व के जाने-माने भू-वैज्ञानिकों, कोलोरेडो विश्वविद्यालय के प्रो. राजर बिलहेम और भारत स्थित गणितीय मॉडलिंग केंद्र के प्रो. विनोद गौड़ ने लिखा है कि वर्ष 1900 के बाद आए भूकंपो में केवल भारत और पाकिस्तान में जितनी मौतें हो चुकी हैं वे इससे पहले की शताब्दियों में भूकंप के कारण हुई मौतों से कहीं अधिक हैं।

इन विशेषज्ञों के अनुसार भूकंपों में हुई अधिक मौतों का कारण इस दौर में इन देशों में निर्माण के ऐसे तौर-तरीकों का उपयोग है जो कम मजबूत सिद्ध हुए हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि यहां बेहतर तकनीक उपलब्ध नहीं है। वे उपलब्ध तो हैं, पर उनका उपयोग बहुत कम है। कई ठेकेदारों द्वारा निर्माण के नियम-कानूनों की उपेक्षा की जा रही है, जबकि स्वयं आवास बनाने वाले अनेक लोगों के पास जानकारी का भी आभाव है। भूकंप-प्रतिरोधी तकनीकों का उपयोग सार्वजनिक भवनों में तो प्रायः हो जाता है पर आवासीय भवनों में इनका उपयोग प्रायः नहीं होता है।

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तुर्की में विनाशकारी भूकंप के बाद मलबे में तब्दील इमारत में अपनों को खोजते लोग

इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि जितनी जानकारी अभी उपलब्ध है, यदि केवल इसका उपयोग सुरक्षित निर्माण के लिए किया जाता है तो भविष्य में भूकंप से होने वाली मानवीय जीवन की क्षति में भारी कमी की जा सकती है। दूसरी ओर यदि निर्माण कार्यों में ऐसा सुधार नहीं किया गया तो भूकंपीय चेतावनी के अधिक महंगे और खर्चीले उपाय भी मानवीय जीवन बचाने में सफल सिद्ध नहीं होंगे।

जाने-माने विशेषज्ञों की इस चेतावनी को हाल के कुछ भूकंपों के इस अनुभव के संदर्भ में भी देखना चाहिए कि परंपरागत तकनीकों से बने कुछ भवन तो मजबूती से खड़े रहे पर जल्दबाजी में हाल में बनाए गए कुछ मंहगे निर्माण भरभराकर गिर गए। विशेषकर स्कूल बनाने में हुई लापरवाही बहुत मंहगी सिद्ध हो सकती है। अतः स्कूल और अस्पतालों के निर्माण में सुरक्षा को उच्च प्राथमितकता मिलनी चाहिए।

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सीरिया में विनाशकारी भूकंप से तबाह इमारतें

एक विषय पर अधिकांश भूकंप वैज्ञानिकों में काफी हद तक सर्व मान्यता है कि हिमालय क्षेत्र में बहुत भीषण भूकंप आने की संभावना बहुत अधिक है और इसका असर दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अतिरिक्त उत्तर भारत के अनेक अन्य क्षेत्रों, बड़े शहरों तक भी पहुंच सकता है। भूकंप का यह खतरा तीन स्तरों पर है।

पहला खतरा तो हिमालय में संभावित सामान्य भूकंप से है और अधिकांश भूकंप वैज्ञानिकों के अनुसार यहां 8 रिक्टर या इससे अधिक का भीषण भूकंप आ सकता है। दूसरा खतरा जलाशय जनित भूकंपीयता से है यानि बड़े बांध के बनने पर उनके असर से जो भूकंप आते हैं। ऐसे भूकंप का उदाहरण भारत से दें तो ऐसा विनाशक भूकंप कोयना में आया था। हिमालय में इसकी सबसे अधिक संभावना टिहरी बांध के संदर्भ में चर्चित हुई है।

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तीसरा खतरा अप्रत्यक्ष आपदा का है। यानि भूकंप आने से कोई अन्य आपदा आ सकती है (खतरनाक उद्योग या बांध की क्षति, फ्लैश फ्लड आना, भू-स्खलनों का सिलसिला आरंभ होना आदि)। यदि जाने-माने विशेषज्ञों के अनुसंधानों और बयानों का अध्ययन करें तो कई प्रख्यात विशेषज्ञों ने सबसे बड़ा खतरा यह बताया है कि 8 रिक्टर या उससे अधिक का भूकंप आने पर टिहरी बांध क्षतिग्रस्त हो सकता है और इससे फ्लैश फ्लड (अचानक आई बहुत वेग की बाढ़) का खतरा बहुत भीषण रूप ले सकता है। ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे अनेक शहरों के लिए यह खतरा बहुत गंभीर रूप ले सकता है। यह गंभीर खतरा भारत सरकार की अपनी टिहरी बांध पर तैयार रिपोर्टों में भी वर्णित है और मुख्य रूप से इस आधार पर दो बार टिहरी बांध को अस्वीकृत कर दिया गया था, हालांकि बाद में इसे स्वीकृत करवाया गया।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि इन तीन संदर्भों में भूकंप और इससे जुड़े अन्य खतरों का सामना करने की तैयारी उत्तर भारत में निरंतरता से होनी चाहिए। किसी भी आपदा के प्रति दहशत की भावना कभी नहीं होनी चाहिए। एक सही वैज्ञानिक समझ बनाकर सभी सावधानियों पर कार्य निरंतरता से होता रहना चाहिए।

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भूकंप रोधी भवन बनाने पर प्रायः जितना ध्यान इस क्षेत्र में देना चाहिए वह नहीं दिया जाता है। इस बारे में सजगता और जानकारी बढ़ाकर इस स्थिति को सुधारना चाहिए। स्कूलों, अस्पतालों, आपदा-सहायता केन्द्रों को भूकंप-रोधी बनाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। भूकंप के खतरे को देखते हुए क्या सामान्य सावधानियां अपनानी चाहिए, भूकंप के समय क्या व्यवहार होना चाहिए इस संबंध में जानकारी सभी लोगों तक पहुंचनी चाहिए। यह जानकरी बाहरी किस्म की न होकर स्थानीय स्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए। सभी आबादियों में कुछ सुरक्षित खुले स्थान होने चाहिए।

पर्वतीय क्षेत्रों में भूकंप आने पर प्रायः देखा गया है कि उन क्षेत्रों में क्षति कम होती है जहां पर्यावरण को बचाया गया है और उन क्षेत्रों में क्षति अधिक होती है जहां पर्यावरण का विनाश अधिक होता है। जहां वन रक्षा होती है, विस्फोटकों का उपयोग न्यूनतम होता है, हानिकारक खनन पर रोक लगती है और निर्माण कार्यों में सावधानी बरती जाती है वहां भूकंप से अपेक्षाकृत कम क्षति होती है। भूकंप-रोधी आवास निर्माण में परंपरागत तकनीकों से भी सीखा जा सकता है।

लेकिन दुख के साथ कहना पड़ता है कि हाल के वर्षों में अनेक जरूरी सावधानियों की उपेक्षा हिमालय के क्षेत्र में होती रही है जिससे भूकंप और अन्य आपदाओं से होने वाली क्षति की संभावना बढ़ गई है। इस समय यह बिगड़ती स्थिति संभालने की जरूरत है। इस संदर्भ में जो खनन और निर्माण अधिक खतरनाक पाए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए और समग्र रूप से पर्यावरण रक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

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