विचार

रूस की नकेल कसने के लिए भारत को चारा बना रहे ट्रंप

हाल-हाल तक अमेरिका के ‘रणनीतिक साझेदार’ भारत के साथ जिस तरह का सलूक किया जा रहा है, उससे विस्तारवादी चीन को रोकने के लिए अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के गठबंधन क्वॉड के भविष्य पर भी सवालिया निशान लग गया है।

रूस की नकेल कसने के लिए भारत को चारा बना रहे ट्रंप
रूस की नकेल कसने के लिए भारत को चारा बना रहे ट्रंप फोटोः सोशल मीडिया

लगता है कि तुनकमिजाज डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के प्रति इतनी नफरत पाल ली है जो फिलहाल उनके राडार पर मौजूद सभी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है। भारत को अमेरिका को निर्यात पर सबसे ज्यादा (50 फीसद) टैरिफ को झेलना पड़ रहा है, जिसमें रूस से कच्चे तेल के आयात पर 25 फीसद का दंडात्मक कर भी शामिल है।

रूसी कच्चे तेल की भारी खरीद पर भड़का अमेरिका

19 अगस्त को अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने ‘सीएनबीसी’ से बातचीत में कहा कि यूक्रेन संघर्ष से पहले भारत की कुल खपत में रूसी कच्चे तेल का हिस्सा केवल 1 फीसद था जो बाद में बढ़कर उसकी कुल खरीद का 42 फीसद हो गया। चीन की तुलनात्मक स्थिति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि चीन, जो यूक्रेन संकट से पहले अपनी खपत का 13 फीसद रूसी तेल खरीद रहा था, उसने इसे बढ़ाकर 16 फीसद किया। जाहिर है, भारत की खरीद में बड़ा बदलाव आया।

उन्होंने कहा, ‘भारत सिर्फ मुनाफाखोरी कर रहा है; वह उसे दोबारा बेच रहा है। भारत द्वारा सस्ता रूसी तेल खरीदकर उसे उत्पाद के रूप में दोबारा बेचना, यह युद्ध के दौरान ही शुरू हुआ है, जो अस्वीकार्य है।’ बेशक, यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नरेन्द्र मोदी के करीबी दोस्तों मुकेश अंबानी और गौतम अडानी ने क्रमशः पुनर्निर्यात और बंदरगाह सेवाओं से खूब कमाई की है।

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क्वॉड के भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा

उसी दिन बाद में व्हाइट हाउस में मीडिया से बातचीत में ट्रंप की प्रेस सचिव, 27 वर्षीय कैरोलिन लेविट ने कहा: ‘राष्ट्रपति ने इस युद्ध को खत्म करने के लिए जबरदस्त दबाव डाला है। जैसा कि आपने देखा, उन्होंने भारत पर प्रतिबंध और अन्य कदम उठाए हैं।’ लेकिन, जहां ट्रंप कथित तौर पर रूस पर यूक्रेन के साथ शांति समझौता करने का दबाव बना रहे हैं, वहीं वह भारत पर प्रतिबंध लगा रहे हैं! यहां भी वह दोनों को जोड़कर देख रहे हैं!

मोदी की अपने ‘अच्छे दोस्त’ ट्रंप के साथ की जुगलबंदी सबको याद है। सितंबर 2019 में टेक्सास के ह्यूस्टन में हुए ‘हाउडी मोदी!’ कार्यक्रम में ‘अब की बार ट्रंप सरकार’ अभियान एक यादगार घटना है। दूसरी याद अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम में ट्रंप का भव्य स्वागत है, जिसमें लाखों लोग मौजूद थे। मोदी के लिए यह अफसोस की बात है कि ट्रंप इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये सब हुआ ही न हो। हो सकता है कि पिछले सितंबर में जब ट्रंप दूसरे कार्यकाल की उम्मीद कर रहे थे, तब मोदी का ट्रंप से मिलने से कतराना ही वह गलती थी जो ट्रंप के मन में फांस बनकर अटक गई हो।

ज्यादातर सरकारों के लिए ट्रंप से पार पाना एक बेहद टेढ़ा काम है। उन्होंने अमेरिकी विदेश नीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है, पुराने सहयोगियों को ठुकराते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के विरोधियों- रूस और चीन- से दोस्ती बढ़ा रहे हैं। ट्रंप के शासन में अमेरिकी सुरक्षा प्रतिबद्धताओं की अविश्वसनीयता ने जापान और दक्षिण कोरिया को अपनी परमाणु अप्रसार नीतियों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया है। हाल-हाल तक अमेरिका के ‘रणनीतिक साझेदार’ भारत के साथ जिस तरह का सलूक किया जा रहा है, उससे विस्तारवादी चीन को रोकने के लिए अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के गठबंधन क्वॉड के भविष्य पर भी सवालिया निशान लग गया है।

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यह बुरा दौर जारी रह सकता है

इस बीच, जैसा कि ‘रॉयटर्स’ ने बताया है, सरकारी स्वामित्व वाली इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम ने सितंबर और अक्तूबर के लिए भी रूसी कच्चे तेल की आपूर्ति के ऑर्डर दे दिए हैं। भारतीय रिफाइनरियों ने कम छूट और वाशिंगटन की धमकियों के कारण जुलाई में खरीदारी रोक दी थी, लेकिन इंडियन ऑयल के हवाले से कहा गया है कि अगर आर्थिक स्थिति ठीक रही तो वह रूसी तेल खरीदना जारी रखेगी।

मोदी को उम्मीद होगी कि यूक्रेन पर अमेरिका और रूस के बीच समझौता होने के बाद अमेरिका का बवंडर थम जाएगा। यही वजह है कि भारत के विदेश मंत्रालय ने अलास्का में ट्रंप और पुतिन के बीच हुई हालिया मुलाकात का इतने उत्साह से समर्थन किया, जबकि दुनिया के तमाम देश इस मामले में कहीं ज्यादा सतर्क थे। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म भी हो जाए, तो ट्रंप भारत पर लगा अतिरिक्त 25 फीसद दंडात्मक कर वापस ले लेंगे।

अगर भारत के प्रति उनकी दुश्मनी इस वजह से भी है कि मोदी ने इस मई में भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम कराने में ट्रंप की भूमिका को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया, और चूंकि उनकी नरमी इस बात पर भी निर्भर करती है कि भारत उनकी इच्छा के मुताबिक, व्यापारिक रियायतों को स्वीकार करे जिन्हें भारत ने ठुकरा दिया है, तो यह बुरा दौर जारी भी रह सकता है। जो भी हो, मूल 25 फीसद टैरिफ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी नुकसानदायक रहने वाला है क्योंकि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है।

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हताशा में मोदी ने चीन का रुख किया

मोदी ने हताशा में चीन का रुख किया है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान को चीनी सैन्य और तकनीकी मदद के बाद भी यह पहल बहुत कुछ कहती है। 2020 से, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी पूर्वी लद्दाख में लगभग 2,000 वर्ग मील भारतीय क्षेत्र में जमी हुई है और उसने पीछे हटने के कोई संकेत नहीं दिखाए हैं। भारत का चीन के साथ 100 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है, जिसे पाटने में बीजिंग कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा।

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, मोदी का यह कहना कि अक्तूबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी मुलाकात के बाद से भारत-चीन संबंधों में लगातार प्रगति हुई है, कम-से-कम हैरान करने वाला है। क्या चीन लद्दाख से अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमत हो गया है? क्या उसने भविष्य में पाकिस्तान को सैन्य मदद न देने का वादा किया है? क्या उसने भारत से अधिक निर्यात करने का वादा किया है?

दिल्ली में मोदी और भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ चीनी विदेश मंत्री वांग यी की बैठकों के बाद दोनों पक्षों ने व्यापारिक संबंधों को बढ़ावा देने पर सहमति जताई। हालांकि, एकमात्र खास घोषणा यह थी कि चीन भारत को दुर्लभ मृदा खनिजों का निर्यात फिर से शुरू करेगा, जो भारत के दृष्टिकोण से व्यापार घाटे को और बढ़ा रहा है।

संयोग से भारत के अपने दुर्लभ मृदा भंडार इसे दुनिया के शीर्ष पांच में शामिल करते हैं। इसका साफ मतलब है कि भारत इस क्षमता का अपेक्षित विकास नहीं कर पा रहा है। ऐसे में ‘मेक इन इंडिया’ का क्या हुआ?

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यूक्रेन के लिए कश्मीर जैसा फॉर्मूला?

यूक्रेन मामले का समाधान ट्रंप, पुतिन और यूरोप के बीच समझौते पर निर्भर है, जो अब भी अधर में लटका है। ट्रंप इस मामले में अपनी चिरपरिचित तल्ख टिप्पणियों पर अड़े हैं। इस बीच, नाटो के सैन्य प्रमुखों ने भविष्य में रूसी आक्रमण को रोकने के लिए यूक्रेन के लिए एक सुरक्षा कवच की योजना तैयार करने के लिए ऑनलाइन बैठक की।

यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की पर क्रीमिया को सौंपने का भारी दबाव है, जो काला सागर के किनारे दक्षिणी यूक्रेन में स्थित है और जिस पर 2014 में रूस ने कब्जा कर लिया था। पूर्वी यूक्रेन के विवादित क्षेत्रों पर- जो फरवरी 2022 के आक्रमण के बाद से धीरे-धीरे रूसी हाथों में आ गए हैं- क्रेमलिन कीव से क्रीमिया जैसी ही रियायतें मांग रहा है। इस सबका नतीजा पीओके जैसा फॉर्मूला हो सकता है, जहां जमीन पर रूस का कब्जा है, लेकिन यूक्रेन उसे विवादित मानता है।

अमेरिका शामिल हो या नहीं, पुतिन, जेलेंस्की के साथ बैठक के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने बताया कि ऐसी किसी भी बैठक के लिए ‘धीरे-धीरे... विशेषज्ञ स्तर से शुरू होकर सभी जरूरी चरणों से गुजरते हुए’ तैयारी करनी होगी। अगर पुतिन जेलेंस्की के साथ एक ही कमरे में बैठने के लिए राजी हो जाते हैं, तो यह निश्चित रूप से एक बड़ा कदम होगा। सोवियत महाशक्ति का दर्जा पाने का सपना देख रहा नया रूस, जेलेंस्की को बराबर का नहीं मानता। मास्को का लक्ष्य यूक्रेन को रूसी क्षेत्र के रूप में पुनः प्राप्त करना है।

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