विश्व स्तर पर मूर्खता के विकास में विभिन्न देशों के योगदान की जब भी चर्चा होगी, इसमें भारत के बहुमूल्य योगदान से इनकार करने का साहस हमारे कट्टर से कट्टर शत्रु भी नहीं कर पाएंगे। इस क्षेत्र में हमारा योगदान है ही इतना विशिष्ट, निर्विवाद और अप्रतिम। विशेषकर 2014 से 2024 के काल को इसका स्वर्ण युग माना जा सकता है।
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यह गहन शोध और चिंतन का विषय है कि पहले की सरकारों का इसमें योगदान इतना कम क्यों रहा कि उसे चर्चा योग्य तक नहीं माना जाता? क्यों उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि इस क्षेत्र में भी हमारे देश का नाम विश्व स्तर पर चमकना चाहिए? क्या उनमें 'देशभक्ति' का वैसा जज्बा नहीं था, जो केवल दस वर्षों के कार्यकाल में तत्कालीन सरकार पैदा कर पाई थी?
इस पर भी शोध का आवश्यकता है कि जिसे मूर्खता का स्वर्ण युग माना जाता है ,उसमें ऐसा क्या हुआ कि भारत का योगदान अचानक इतना बढ़ गया कि दुनिया भर में भारत का डंका बजने लगा? इस प्रकार का शोध कैम्ब्रिज या आक्सफोर्ड करें तो कुछ ठोस परिणाम निकल कर आ सकते हैं। मुझे विश्वास है कि ये विश्वविद्यालय इस मामले में पीछे नहीं रहेंगे और भारत आगे नहीं रहेगा!
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बताते हैं कि उस काल में मूर्खता- उत्पादन में आए इस उछाल के अनेक कारण थे, जिसमें से केवल एक की चर्चा स्थानाभाव के कारण यहां संभव है। इतिहास में इससे पहले शायद ही कभी हुआ हो कि जिस वस्तु का उत्पादन खेत में होता है, उसी का उत्पादन कारखानों में भी होने लगे। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक भी आरंभ हो जाए, संत-महंत भी अपने प्रवचनों के जरिए इसका उत्पादन बढ़ाने का महत्वपूर्ण उपक्रम करने लगें। सरकार के आला लोग स्वयं उत्पादन करें और करवाने में भी जी जान से जुट जाएं। आफिसों और पार्कों, टीवी चैनल तथा अखबार इसे राष्ट्रीय लक्ष्य मान कर दिन-रात उत्पादन करने लगें। इतिहास गवाह है कि उस काल की परिभाषा के आधार पर जो भी राष्ट्रवादी थे, उन्होंने प्रधानमंत्री के आह्वान पर राष्ट्र के समक्ष उपस्थित इस कठिन चुनौती का मुकाबला करने में कभी कोताही नहीं की और उस दौर में देश को वह स्थान दिलाया, जिसका वह वाकई हकदार था! देशभर में मूर्खता-निर्माण के माध्यम से देश-निर्माण का ऐसा अनोखा जज्बा पैदा हो गया था, जैसा कि अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए भी पैदा नहीं हो सका था, जबकि उस समय महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और भगत सिंह जैसे अनेक बड़े नेता थे!
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आश्चर्य की बात यह है कि एक ही चीज का उत्पादन इतने बहुविध तरीकों से बिना किसी लागत के होने के बावजूद मूर्खता की जितनी मांग थी, उतने की आपूर्ति नहीं हो पा रही थी। मूर्खता के क्षेत्र में स्वालंबन के इस सघन राष्ट्रव्यापी अभियान के बावजूद देश इच्छित लक्ष्य से काफी दूर था। इस कारण बड़ी संख्या में अमूर्ख लोग मूर्ख बनने से वंचित रह गए थे। यह स्थिति तब थी, जब उस समय की सरकार ने इसके उत्पादन के सस्ते, सुलभ और लगभग मुफ्त साधन इतने बड़ी तादाद में उपलब्ध करवाए थे कि ज्ञात मानव इतिहास में इससे पहले कभी नहीं ऐसा नहीं हुआ था। इन प्रयासों में कोई कमी न रह जाए, इसलिए उस काल के प्रधानमंत्री ने 'मूर्खता प्रोत्साहन योजना' के अंतर्गत अकूत धन उपलब्ध करवाया था और उसे बेहद ईमानदारी से, पूरी पारदर्शिता के साथ खर्च किया जा रहा था। यहां तक कि शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला और बाल विकास, सड़क निर्माण आदि मंत्रालयों के बजट को भी इधर डाइवर्ट कर दिया गया था।
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सरकार ने एक विशिष्ट प्रकोष्ठ इस बात को सुनिश्चित करने के लिए बनाया था कि योजना का कार्यान्वयन शतप्रतिशत हो। अकर्मण्यों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की जाने लगी थी, चाहे वह कोई बड़ा से बड़ा मंत्री हो या वरिष्ठतम अधिकारी ! प्रधानमंत्री इस बारे में इतने गंभीर थे कि उन्होंने अपना सबसे प्रिय शगल विदेश यात्राएं तक को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करके देश के सामने एक आदर्श उपस्थित किया था।
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आज भी पुराने लोग याद करते हैं कि एक वह समय था, जब भारत छत्तीस इंच की छाती ठोक कर कह सकता था कि हम मूर्खता के मामले में विश्व गुरु हैं और आज देश इस अधोगति को प्राप्त हो चुका है कि हम वैज्ञानिक सोच के मामले में अपने को अग्रणी राष्ट्र घोषित करने को बाध्य हैं। विश्वगुरु का इतना बड़ा पद छोड़कर वैज्ञानिक सोच को महत्व देने को एक बड़ी भूल ही कहा जा सकता है, जिसका खामियाजा आज नहीं तो कल आनेवाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। तब लोगों को वो 'स्वर्ण युग' याद आएगा, जबकि इतिहास बताता है कि पुराने दिन कभी लौट कर नहीं आते।
हां हंत यह क्या, कैसे और क्यों हो गया? कब भारत फिर से मूर्खता के उस प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकेगा?
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