विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: सत्ता की अदृश्य कुर्सियां!

कुर्सियों का खेल हर जगह, हर समय चलता रहता है। कुर्सी का स्वभाव है कि कोई उससे कितना ही प्रेम करे मगर वह किसी से प्रेम नहीं करती।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

हर कुर्सी के ऊपर और हर कुर्सी के नीचे कम से कम एक कुर्सी जरूर होती है। अगर किसी की नौकरी खड़े रहने की है तो भी उसके पिछवाड़े के नीचे एक अदृश्य कुर्सी होती है। जिन पर उसकी हुकूमत चल सकती है, उन पर‌ वह चलाता है, जिन पर नहीं चलती, उनको फर्शी सलाम ठोंकता है। जिसके पास कोई कुर्सी नहीं होती, उसके पास भी अपनी जाति, रिश्तेदारी, क्षेत्र, धर्म, पार्टी की दृश्य -अदृश्य कुर्सी होती है। मुश्किल उनकी है, जो कुर्सी पर क्या स्टूल पर भी बैठने की हिम्मत कभी नहीं कर पाए! जो घुटनों के बल बैठे और खड़े रहे और बिना शोर किए, मर गए। 

Published: undefined

भारत में कोई कुर्सी ऐसी नहीं होती, जिसके ऊपर या नीचे एक या अनेक कुर्सियां नहीं होतीं। बड़े से बड़े फन्ने खां की कुर्सी के ऊपर भी अनेक दृश्य- अदृश्य कुर्सियां होती हैं। कभी नागपुर, कभी अहमदाबाद, कभी मुंबई, कभी वाशिंगटन की बड़ी कुर्सी से उसे आदेश मिलता रहता है और फन्ने खां साहब, अधन्ने खां बनकर उसका पालन किया करते हैं। 

कुर्सियों का खेल हर जगह, हर समय चलता रहता है। कुर्सी का स्वभाव है कि कोई उससे कितना ही प्रेम करे मगर वह किसी से प्रेम नहीं करती। कुर्सी की बेवफाई के किस्से, किसी प्रेमी या प्रेमिका की बेवफाई के किस्से से अधिक हृदयविदारक होते‌ हैं। कुर्सी के प्रति भावुक लोग उसके जाते ही रोने लगते हैं, शिवराज सिंह हो जाते हैं क्योंकि कुर्सी से बड़ा सत्य उनके लिए कभी कुछ रहा नहीं। मगर कुर्सी कभी किसी भावुकता के चक्कर में नहीं पड़ती। उस पर जो भी बैठ जाए, वह महान हो या मूर्खराज। वह सबको समान भाव से बैठा लेती है। जिसे उठा दिया जाए, उसे उठाकर ही मानती है। वह सबसे निरपेक्ष रहती है। उसे कभी किसी के लिए रोते-बिलखते नहीं पाया गया, पछाड़ खाकर गिरते नहीं देखा गया। कुर्सी अपने पर बैठनेवाले के अतीत या भविष्य की चिंता नहीं करती। वह जानती है, वह परम  सत्य है। वह स्थायी है, बाकी सब अस्थायी है। वह सत्य है, चिरंतन है, शेष सब असत्य है, मरणशील है। वह जानती है कि वह कुर्सी है और उस पर कोई न कोई तो बैठेगा और जो भी बैठेगा, उसे एक न एक दिन उतरना पड़ेगा।

Published: undefined

कुर्सी का खेल एकसाथ बहुत से औरत-मर्द खेलते हैं। इस खेल के खिलाड़ी कभी थकते नहीं बल्कि ज्यों- ज्यों बुढ़ापा चढ़ता जाता है, उनका रंग और जमता जाता है। खेल को खिलाड़ियों की स्फूर्ति बढ़ती जाती है। आज तक इस खेल को खेल कर कभी कोई थका नहीं, कभी कोई मरा नहीं। मरे हुओं की भी प्राण-प्रतिष्ठा अगर कोई कर सकता है तो वह केवल कुर्सी है। बाकी सभी प्राण प्रतिष्ठाएं, निरा कर्मकांड है, ढकोसला है। मूर्ख बनाने की टैक्नीक है। 

Published: undefined

कुर्सी बचाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। इसलिए बहुत से लोग कुर्सी को साथ लिये- लिये चलते हैं। कभी उसे अपने सिर पर रख लेते हैं, कभी पीठ पर लाद लेते हैं, कभी दाहिने हाथ से पकड़कर चलते हैं, कभी बांये हाथ से। कभी कमर से बांध लेते हैं, कभी टांगों से लिपटा लेते हैं। कोई क्या कहेगा, इसकी परवाह नहीं करते क्योंकि यह कोई और नहीं, कुर्सी है। इस पर बैठनेवाले के बहुत से काम सध जाते हैं। आदमी की इज्जत उसकी कुर्सी हो जाती है‌। इसलिए कुर्सी जो भी मांगे, लोग बेहिचक दे देते हैं‌। आत्मसम्मान मांगे, तो दे देते हैं। चम-चमत्व जितना चाहे करवा लो, जिस तरह भी करवा लो, कर देते हैं। दुनिया छोड़ने के अलावा जो- भी यानी जो भी- मांगा जाए दे देते हैं। नंगे दौड़ जाते हैं। घुटने के बल चलते हैं। तुतलाने लगते हैं। पीठ पर कोड़े खाने को तैयार हो जाते हैं। कुर्सी के लिए, सब करणीय है। अकरणीय कुछ भी नहीं। कुर्सी की महिमा बड़े-बड़े ज्ञानी बता गए हैं। राममंदिर कुर्सी के कारण है। कुर्सी न होती तो राम और कृष्ण की जन्मभूमि भी न होती‌। हर मस्जिद के नीचे तब मंदिर न होता। गाय नहीं होती, दिमागों में गोबर नहीं भरा होता। यह कुर्सी है भाई, आगे देखते जाओ, यह इनसे कितने -कितने नाच नचवाती है। हर दिन इसका नया नाच देखो‌‌। कोई दिन खाली नहीं जाएगा। किसी दिन रोना, किसी दिन हंसना आएगा, किसी दिन अपना, किसी दिन उसका सिर तोड़ने का मन करेगा।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined