पहला भ्रम: चुनाव आयोग बिहार की वोटर लिस्ट की गहरी छानबीन और संशोधन कर रहा है।
सच: जी नहीं। बिहार में अभी तक चल रही मतदाता सूची का संशोधन नहीं होगा। पुरानी मतदाता सूची को ख़ारिज कर अब नए सिरे से मतदाता सूची बनेगी।
दूसरा भ्रम: ऐसा पुनरीक्षण पहले दस बार हो चुका है, इसमें कोई नई बात नहीं है।
सच: जी नहीं। इस बार जो हो रहा है वो अभूतपूर्व है। मतदाता सूची का कम्प्यूटरीकरण होने के बाद बार-बार नए सिरे से सूची बनाने की जरूरत नहीं बची थी। यह २२ साल में पहली बार हो रहा है। पहले कभी मतदाता सूची में अपना नाम डलवाने की जिम्मेदारी वोटर पर नहीं डाली गई थी। पहले कभी वोटर से नागरिकता साबित करने के काग़ज़ नहीं मांगे गए। पहले कभी चुनाव से चार महीने पहले नए सिरे से सूची नहीं बनाई गई।
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तीसरा भ्रम: बिहार की मतदाता सूची में ज़्यादा गड़बड़ी थी, इसलिए ऐसा करना पड़ा।
सच: जी नहीं। अभी छह महीना पहले ही बिहार की पूरी मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण हुआ था। लाखों नाम जुड़े थे, कटे थे। संशोधित सूची जनवरी में छपी थी। किसी में बड़ी गड़बड़ी की शिकायत नहीं की गई थी। जो कमी-बेशी रह गई थी, उसके लिए लगातार संशोधन चल रहा था। जरूरत थी तो उस सूची का एक और पुनरीक्षण हो सकता था। उस सूची को ख़ारिज कर नए सिरे से सूची बनाने की ना कोई माँग थी, ना कोई ज़रूरत।
चौथा भ्रम: जिनके नाम 2003 की मतदाता सूची में थे उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं होगी।
सच: जी नहीं। नया फॉर्म हर व्यक्ति को भरना पड़ेगा। जिनका नाम जनवरी 2025 की सूची में वही है (वही पूरा नाम, वही पिता का नाम, वही पता) जैसा 2003 की सूची में था, उसे सिर्फ़ इतनी छूट मिलेगी कि उसे अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण नहीं लगाना पड़ेगा। लेकिन उन्हें भी फ़ोटो और हस्ताक्षर के साथ फॉर्म भरना पड़ेगा, 2003 की सूची का अपने नाम वाले पेज का फोटोकॉपी लगाना पड़ेगा।
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पाँचवा भ्रम: प्रमाणपत्र सिर्फ़ उन्ही से मांगा जाएगा जिनकी नागरिकता पर शक है।
सच: जी नहीं। जिनका भी नाम 2003 की सूची में नहीं था, उन सब को फॉर्म भरने के साथ प्रमाणपत्र भी लगाने होंगे। जिनका जन्म 1 जुलाई 1987 के पहले हुआ था उन्हें सिर्फ अपने जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण देना होगा। जिनका जन्म 1 जुलाई 1987 से 2 दिसंबर 2004 के बीच हुआ था उन्हें अपने और अपने माँ पिता में से किसी एक का प्रमाणपत्र देना होगा। जिनका जन्म 2 दिसंबर 2004 के बाद हुआ है उन्हें अपने और अपने माँ और पिता दोनों का प्रमाणपत्र देना होगा। अगर माँ और पिता का नाम 2003 की सूची में था तो उस पेज की फोटोकॉपी से उनके प्रमाणपत्र काम चल जाएगा लेकिन तब भी आवेदक को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण तो लगाना ही पड़ेगा।
छठा भ्रम: नागरिकता के प्रमाणपत्र के लिए चुनाव आयोग ने बहुत विकल्प दिए हैं, कोई ना कोई काग़ज़ तो हर घर में मिल ही जाएगा।
सच: जी नहीं। हर घर में आम तौर पर जो पहचान या प्रमाणपत्र होते हैं उनमें से कोई भी चुनाव आयोग नहीं मानेगा — ना आधार कार्ड, ना राशन कार्ड, ना चुनाव आयोग का अपना पहचान पत्र, ना मनरेगा का जॉब कार्ड। चुनाव आयोग ने जो ११ प्रमाणपत्र मान्य किए हैं उनमें से कुछ तो बिहार पर लागू ही नहीं होते या कहीं देखने को नहीं मिलते। कुछ इन गिने लोगों के पास ही होते हैं, जैसे पासपोर्ट (2.4 प्रतिशत), जन्म प्रमाणपत्र (2.8 प्रतिशत), सरकारी नौकरी या पेंशनधारी का पहचान पत्र (5 प्रतिशत) या जाति प्रमाणपत्र (16 प्रतिशत) साधारण घर में नहीं मिलते। बच गया मैट्रिक या डिग्री का प्रमाणपत्र जो बिहार में आधे से कम लोगों के पास है।
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सातवां भ्रम: जो नियम हैं सबके लिए बराबर हैं, इसमें कोई भेदभाव नहीं है।
सच: जी नहीं। कहने के लिए बराबर हैं, लेकिन वास्तव में जिन भी लोगों को जीवन में पढ़ाई के अवसर नहीं मिले उनके साथ भेदभाव है। इसका असर यही होगा कि औरत, गरीब, प्रवासी मजदूर और दलित-आदिवासी पिछड़े वर्ग के लोग प्रमाणपत्र देने में पिछड़ जाएँगे और उनका वोट कट जाएगा। शिक्षित होना नागरिकता की शर्त बन जाएगा।
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आठवाँ भ्रम: चुनाव आयोग ने तीन महीने का समय दिया है, सब का नाम शामिल हो जाएगा।
सच: जी नहीं। असली समय तो सिर्फ एक महीने का है, 25 जुलाई तक। बाक़ी दो महीने तो आपत्ति निवारण और आयोग की अपनी कागज़ी कार्यवाही के लिए हैं। इस पहले महीने में चुनाव आयोग की अपेक्षा है कि सभी बूथ लेवल ऑफिसर की ट्रेनिंग हो जाएगी (जबकि उनमे से २० हज़ार की अभी नियुक्ति भी नहीं हुई थी), वो पार्टियों के एजेंट की ट्रेनिंग कर देंगे, हर घर में नए फॉर्म पहुँचा देंगे, हर व्यक्ति वो फॉर्म भर देगा, जो प्रमाणपत्र चाहिए उन्हें लगा देगा, भरे हुए फॉर्म को हर घर से इकट्ठा कर लिया जाएगा और उन्हें कंप्यूटर पर अपलोड कर उसकी जांच भी शुरू हो जाएगी! जिस भी व्यक्ति का फॉर्म २५ जुलाई तक जमा नहीं हुआ उसका नाम मतदाता सूची में आयेगा ही नहीं।
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नवाँ भ्रम: इस पुनरीक्षण से बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या ख़त्म हो जाएगी
सच: जी नहीं। अगर बिहार में अवैध विदेशी नागरिकों की समस्या है तो मुख्यतः बांग्लादेश से आए मुसलमानों की नहीं बल्कि तराई के नेपालियों की है, जो अधिकांश हिंदू हैं। हो सकता है इससे कुछ हज़ार बांग्लादेशी नागरिकों और दसियों हज़ार नेपाली नागरिकों का नाम मतदाता सूची से कट जाए। लेकिन इसके चलते लगभग ढाई करोड़ भारतीय नागरिकों का नाम भी कट जाने की आशंका है। मक्खी मारने के लिए नाक पर हथौड़ा नहीं चलाया जाता।
अंतिम सच: बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है। इनमे से कोई 8 करोड़ वयस्क हैं जिनका नाम मतदाता सूची में होना चाहिए। इनमे से सिर्फ़ 3 करोड़ के क़रीब लोगों का नाम 2003 की मतदाता सूची में था। बाक़ी 5 करोड़ को अपनी नागरिकता के प्रमाण जुटाने पड़ेंगे। उनमे से आधे यानी ढाई करोड़ लोगों के पास वो प्रमाणपत्र नहीं होंगे जो चुनाव आयोग माँग रहा है। मतलब इस ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ से अंतिम व्यक्ति के हाथ से वो एक मात्र अधिकार चला जाएगा जो आज भी उसके पास है — वोट का अधिकार। पहले नोटबंदी हुई, फिर कोरोना में देशबंदी हुई, अब वोटबंदी की तैयारी है।
साभारः नवोदय टाइम्स
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