विचार

वक्फ बिल : कोई 'उम्मीद' बर नहीं आती...

नया कानून सरकार को वक्फ बोर्ड और वक्फ काउंसिल में अपने लोगों को भरने का मौका देगा और कुछ समय में वे इसकी संपत्तियों पर काबिज हो जाएंगे।

कोलकाता में 4 अप्रैल को वक्फ बिल के खिलाफ प्रदर्शन (फोटो : Getty Images)
कोलकाता में 4 अप्रैल को वक्फ बिल के खिलाफ प्रदर्शन (फोटो : Getty Images) Hindustan Times

अगर किरन रिजिजू और अमित शाह जैसे केंद्रीय मंत्रियों की बात पर विश्वास किया जाए, तो 'ऐतिहासिक' और 'प्रगतिशील' वक्फ संशोधन विधेयक 2025 'गरीब' मुसलमानों को फायदा पहुंचाएगा। हालांकि दोनों ही मंत्रियों ने बार-बार मुसलमानों के प्रति संवेदना जाहिर की लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोग और विपक्ष इससे सहमत नहीं दिखाई दे रहे। वे मानते हैं कि ये सारे दावे वह सरकार कर रही है जिसने पूरी निर्दयता से अल्पसंख्यक कल्याण की योजनाओं-वजीफों में कटौती की है।

सवाल यह भी हैं कि क्या उन मंत्रियों की बात को गंभीरता से लेना चाहिए जिन्होंने मुसलमानों की भीड़ द्वारा पीट कर हत्या किए जाने (मॉब लिंचिंग) के खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाई या वे कभी बीजेपी शासित राज्यों में पार्कों और सार्वजनिक स्थलों पर जुमे की नमाज अदा करने पर लगी पाबंदी के खिलाफ बोले। वे न तो कभी मुसलमानों के नरसंहार के आह्वानों से परेशान हुए और न ही कभी मुस्लिम व्यापारियों के आर्थिक बहिष्कार की बातों से।

क्या उनके दिलों में मुसलमानों के प्रति सचमुच में कोई हमदर्दी है?

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अभी तक वक्फ के बारे में काफी कुछ कहा-लिखा जा चुका है। कई बार दोहराया जा चुका है कि समृद्ध (आर्थिक तौर पर संपन्न) मुसलमान ही वक्फ के तहत लोक कल्याण कार्यों के लिए संपत्ति का दान कर सकते हैं। मुस्लिम और अन्य समुदायों के गरीबों को इसका लाभ मिलता है। अगर कोई इमारत या मैदान स्कूल के लिए, कब्रिस्तान के लिए, ईदगाह के लिए या फिर किसी और कल्याण के काम के लिए लंबे समय तक इस्तेमाल होता है, तो वह वक्फ बन जाता है, चाहे उसका वक्फनामा हो या न हो।

अगर लोग 50 साल से किसी जगह नमाज अदा कर रहे हैं तो वह जगह वक्फ है। प्रस्तावित कानून वक्फ बाई यूज़ यानी उपयोग द्वारा वक्फ की इजाजत नहीं देता जिससे सरकार को यह अधिकार मिल जाता है कि वह तय करे कि क्या वक्फ है और क्या वक्फ नहीं है। इससे बिना वक्फनामे वाली संपत्तियां वक्फ नहीं रह जाएंगी और साथ ही वे भी वक्फ नहीं रहेंगी जिन्हें किसी गैर-मुस्लिम ने दान किया है।

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दोनों ही मंत्रियों ने विपक्ष पर भय और भ्रम फैलाने का आरोप लगाया और दावा किया कि नया कानून जब नोटीफाई होगा, तभी से लागू होगा, पिछली तारीखों से नहीं। अगर इसे सच भी मान लिया जाए, तो यह भी स्वीकार करना होगा कि सांसदों को पर्याप्त समय नहीं दिया गया कि वे विधेयक का अध्ययन करें और विशेषज्ञों की सलाह ले सकें। ऐसी क्या जल्दी थी कि सरकार ने एकदम बजट सत्र के आखिरी दिनों में विधेयक पेश किया और 14 घंटे की मैराथन चर्चा की जो रात दो बजे तक चली। अगर कानून को पिछली तारीखों से लागू नहीं होना है, तो मंत्रियों और सांसदों ने जिन सुधारों का वादा किया है, उनका कोई अर्थ नहीं।

इसका एक ही अर्थ समझ में आता है कि नया कानून वक्फ बोर्ड और वक्फ काउंसिल में अपने लोगों को भरने का मौका देगा और कुछ समय में वे इसकी संपत्तियों पर काबिज हो जाएंगे। वैसे भी मस्जिदों, कब्रिस्तानों और दरगाहों पर खतरा मंडरा रहा है, उन पर बुलडोजर चल रहे हैं और कुछ ही समय में वे नजर आने बंद हो जाएंगे। जिन वक्फ संपत्तियों पर गरीब मुसलमानों को बसने, दुकान खोलने या वर्कशॉप चलाने की सुविधा नाम मात्र के किराये पर मिल जाती थी, उन पर माॅल बनेंगे और बहुमंजिला इमारतें बनेंगी ताकि उस जमीन का 'पूरा लाभ' लिया जा सके। 

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना से समाजवादी पार्टी की सांसद इकरा हसन ने लोकसभा में बताया कि ईद के दिन उनके पास एक मुस्लिम बेवा का फोन आया था। वह वक्फ की जमीन पर ही रहती और अपना गुजारा करती हैं। वह परेशान थीं कि कहीं नए वक्फ कानून की वजह से उन्हें यह जगह छोड़नी तो नहीं पड़ेगी। ऐसी लाखों गरीब मुसलमान औरते हैं जो वक्फ के भरोसे ही गुजर-बसर कर रही हैं। वे सब अब डर के साये में जी रही हैं। सांसद का कहना है, 'इस बिल से आप मुस्लिम औरतों का कोई भला नहीं करने जा रहे, आप उनकी जिंदगी बरबाद करने का रास्ता तैयार कर रहे हैं।'

इस सरकार और अल्पसंख्यकों के बीच विश्वास की कमी पिछले कुछ साल में बढ़ी है। सरकार की नीयत तो शुरू से शक के दायरे में रही है। शुरू में यह बिल तब पेश किया गया था, जब विपक्ष के 144 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। बाद में सरकार इसे संयुक्त संसदीय समिति के हवाले करने को राजी हो गई। समिति ने पांच महीने में कथित तौर पर 98 लाख सुझावों पर विचार किया जिनमें ज्यादातर लोग  इसका विरोध कर रहे थे। समिति ने उन सारे सुझावों को ठुकरा दिया जिनमें वे सुझाव भी थे जो सांसदों ने और यहां तक कि मुस्लिम सांसदों ने दिए थे। 

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तीन अप्रैल 2025 को राज्यसभा में यह विधेयक सुबह 11.07 बजे पेश किया गया, सभापति की इस घोषणा के साथ कि चर्चा शुरू करने से पहले दो दिन के नोटिस का जो प्रावधान है, उसे वे खत्म कर रहे हैं। उन्होंने तर्क दिया कि बृहस्पतिवार को अल्लसुबह सदस्यों को पोर्टल पर इसकी इलेक्ट्रॉनिक काॅपी डाल दी गई थी। एक बजे तक इन पर संशोधन मांगा गया। जब सांसदों ने विरोध करते हुए कहा कि संशोधन के सुझाव के लिए उन्हें 24 घंटे का समय दिए जाने का प्रावधान है, तो सभापति का जवाब था कि उन्हें जटिल दस्तावेेज को समझने के मामले में सदस्यों की बुद्धि और तेजी पर पूरा भरोसा है।

अल्पसंख्यक समुदायों को अब इसकी आदत पड़ चुकी है। पिछले दस साल में उनके अधिकारों पर इतने हमले हो चुके हैं कि अब विरोध के स्वर भी अक्सर नहीं सुनाई देते। यही इस बार भी हुआ जब बुधवार को लंबे समय से विवादों में चल रहा वक्फ संशोधन विधेयक न सिर्फ लोकसभा में पेश हुआ बल्कि सरकार की जिद के हिसाब से उसी दिन पास भी करा लिया गया। कहीं से भी बड़े विरोध या प्रदर्शन की खबरें नहीं आईं। हालांकि सरकार ने सावधानी बरतते हुए देश के बहुत से शहरों के उन इलाकों में सुरक्षा बलों का फ्लैग मार्च किया जिन्हें सरकारी भाषा में संवेदनशील कहा जाता है। 

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इस वक्फ विधेयक के निशाने पर भी देश का वही मुस्लिम समुदाय है जिसके अधिकारों के साथ ही जिसकी आर्थिक ताकत को खत्म करने की कोशिशें पिछले एक दशक से लगातार जारी हैं।सबसे पहले आर्थिक नीतियों का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलमानों को हाशिये पर लाने के लिए किया गया। तकरीबन हर बजट में उनके लिए किए जाने वाले प्रावधानों में कटौती की गई। खासकर उनकी शिक्षा के लिए किए जाने वाले प्रावधान और वजीफों में भारी कटौती की गई।

यह काम सिर्फ केंद्र में ही नहीं हुआ, जिस भी राज्य में बीजेपी की सरकार है, वहां यही दोहराया गया। हर जगह फैसले एक ही दिशा में जाते दिखे कि कैसे भी अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक पिछड़ेपन से निकालने के रास्तों को रोका जाए। जगह-जगह मुस्लिम दुकानदारों और व्यापारियों का बहिष्कार करने के लिए अभियान चलाए गए। कुछ जगह तो उन्हें अपनी दुकानें छोड़कर जाना पड़ा। उन्हें पहचाना जा सके, इसके लिए उन्हें दुकान के बाहर नाम लिखने के लिए मजबूर किया गया। प्रशासन ने इसमें सिर्फ सहयोग ही नहीं किया बल्कि कईं जगह तो इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया।

लेकिन वक्फ संशोधन विधेयक के नाम पर उन्हें जो झटका दिया गया है, वह उन पर हुआ अब तक का सबसे बड़ा हमला है। यह हमला गरीब मुसलमानों, छात्रों या दुकानदारों पर नहीं बल्कि उस आर्थिक व्यवस्था पर है जो किसी-न-किसी तरह से देश के पूरे मुस्लिम समुदाय को एक संबल देती है।

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हालांकि इस बिल को वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन को व्यवस्थित करने के नाम पर पेश किया गया है लेकिन इसका परिणाम मुसलमानों के आर्थिक और वित्तीय तौर पर हाशिये के बाहर चले जाने में होगा। आर्थिक तौर पर कोई हाशिये पर सिर्फ तभी नहीं जाता है, जब उसके पास धन की कमी हो। वह तब भी जाता है, जब उन अवसरों और संसाधनों का रास्ता बंद कर दिया जाए जो उसके सामाजिक तौर पर आगे बढ़ने के लिए जरूरी हैं। इस्लामिक कानून में जो संपत्तियां धार्मिक और कल्याणकारी कार्यों के मकसद से वक्फ का हिस्सा बनती हैं, वे हमेशा से भारतीय मुसलमानों के लिए एक अहम आर्थिक संसाधन रही हैं। लाखों एकड़ और अरबों रुपयों की इन संपत्तियों से मस्जिदों के अलावा बहुत सारे स्कूल, अस्पताल, यतीमखाने और कल्याण के काम चलते हैं।

वक्फ कानून 1995 में खामियां हो सकती हैं लेकिन इससे वह खाका तैयार होता है जिसके तहत स्वायत्त वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों की देखरेख करता है। लेकिन 2025 में इसमें जो संशोधन पेश किए गए हैं, वे इसकी मूल संरचना को बदलने वाले हैं जिनसे सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठते हैं।  

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कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के समय में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आकलन के लिए बनी सच्चर समिति ने वक्फ को लेकर भी सिफारिशें की थीं। समिति ने पाया कि वक्फ संपत्तियों की जो कीमत है, उसके मुकाबले उनसे होने वाली कमाई काफी कम है। यह अनुमान लगाया गया कि अगर इनका कुशल प्रबंधन हो, तो इनसे 20 अरब रुपये की सालाना कमाई हो सकती है, जबकि अभी इनसे दो अरब रुपये की ही कमाई हो रही है। सही प्रबंधन हो, तो इनसे शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के बहुत से काम हो सकते हैं। प्रबंधन में गड़बड़ी से उन सेवाओं में बाधा पैदा की जा सकती है जो समुदाय की जीवन रेखा हैं। इन संपत्तियों से कम कमाई का एक कारण यह भी है कि इसका लाभ उठाने वाले बहुत गरीब हैं और यही एक ऐसा सच है जिसे सरकार स्वीकार करने को तैयार नहीं।

वक्फ संशोधन विधेयक जिस रूप में पेश किया गया है, उस रूप में सुधारवादी या प्रगतिशील कदम होना तो दूर, यह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की आर्थिक नींव को कमजोर करने का सोचा-समझा प्रयास लगता है। हालांकि बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार इसे वक्फ प्रबंधन में कुशलता और पारदर्शिता लाने के नाम पर पेश कर रही है लेकिन इस विधेयक से विवाद ही ज्यादा पैदा हुए हैं। मुस्लिम संगठनों और समुदाय के नेताओं का कहना है कि यह सुधार के नाम पर भारतीय मुसलमानों को हाशिये पर धकेलने का एक और प्रयास है।  

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इसका एक सबसे विवादास्पद प्रावधान केंद्रीय वक्फ काउंसिल और  वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करना है। परंपरागत तौर पर इन संस्थाओं में सिर्फ मुस्लिम ही होते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसके फैसले इस्लामिक परंपराओं और समुदाय की जरूरतों के हिसाब से ही होंगे। गैर-मुस्लिम प्रतिनिधियों के प्रावधान से इन संस्थाओं की स्वायत्तता प्रभावित होगी और जो संपत्ति मुसलमानों के लिए है, उस पर बाहरी प्रभाव बनेगा।

गृह मंत्री ने कहा है कि गैर-मुस्लिम सिर्फ प्रशासनिक भूमिका में ही होंगे, धार्मिक भूमिका में नहीं। लेकिन आलोचक इस तर्क को खोखला बताते हैं क्योंकि  वक्फ का  प्रबंधन उसके धार्मिक और कल्याणकारी मकसद से अलग नहीं हो सकता। वे मानते हैं कि इसके जरिये सरकार अपना दखल रखना चाहती है ताकि समुदाय का अपनी संपत्ति पर नियंत्रण कम हो।

इतना ही चिंताजनक वह प्रावधान है जिसके तहत वक्फ संपत्ति पर वक्फ ट्रिब्यूनल के बजाय जिलाधिकारी का सिक्का चलेगा। पहले विवादों का निपटारा इस्लामिक कानूनों की जानकारी रखने वाले करते थे। नए कानूनों में यह काम सरकार द्वारा नियुक्त वे अधिकारी करेंगे जो अक्सर वक्फ मामलों के जानकार नहीं होते, पर उनके पास यह फैसला कने का अधिकार होगा कि संपत्ति वक्फ की है या सरकार की। 

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बहुत सारी वक्फ संपत्तियां ऐसी हैं जिनके दस्तावेज अधूरे हैं, इस कानून के बाद से वक्फ की जमीन और सरकारी जमीन का वर्गीकरण नए सिरे से होने लगेगा। इससे जो नुकसान होगा, वह देश भर में मुस्लिम संस्थाओं और उनके कल्याणकारी कार्यक्रमों को कमजोर करेगा।

एक बार फिर सच्चर कमेटी रिपोर्ट पर लौटते हैं। इसमें साफ कहा गया है कि 'सरकार जिसे वक्फ हितों का संरक्षक होना चाहिए, उसका इन संपत्तियों पर सबसे ज्यादा अतिक्रमण है।' समिति ने इसके सैकड़ों उदाहरण दिए हैं। इसे देखते हुए एक जिलाधिकारी जो एक सरकारी मुलाजिम है, उस पर कैसे विश्वास किया जाए कि वह निष्पक्ष फैसला देगा।

विधेयक का एक और विवादस्पद प्रावधान यह है कि सिर्फ वही वक्फ के लिए संपत्ति दान कर सकेगा जो पिछले पांच साल से इस्लाम धर्म का अनुयायी हो। कांग्रेस के सांसद इमरान मसूद पूछते हैं कि क्या अब सरकार तय करेगी कि कौन अनुयायी है और कौन नहीं। यह एक अस्पष्ट मामला है जिसे मनमाने तौर पर लागू किया जाएगा। यह प्रावधान नए वक्फ को उस समय हतोत्साहित करता है, जब समुदाय को आर्थिक उत्थान की सबसे ज्यादा जरूरत है। फिर यह प्रावधान कि ऐसी हर संपत्ति का जिलाधिकारी के पास वक्फनामा कराया जाए, इस काम में नौकरशाही तमाम बाधाएं पैदा करेगा।   

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विधेयक के बचाव में बीजेपी का कहना है कि वह कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार रोकने के लिए ऐसा कर रही है। ये समस्याएं हैं लेकिन समाधान इस संस्था को आंतरिक रूप से मजबूत बनाने में है, न कि उसकी स्वायत्तता छीनने में। एक दशक की सरकार की नीतियों में मुसलमानों को लगातार निशाना बनाया गया- चाहे वह नागरिकता संशोधन कानून का मामला हो या फिर अनुच्छेद 370 हटाने का। इस नजरिये से देखें, तो वक्फ बिल सुधार की कोशिश कम और मुसलमानों की आर्थिक संपत्ति पर नियंत्रण हासिल करने की रणनीति ज्यादा दिखाई देता है।

विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसे संविधान पर हमला बताते हुए इसकी आलोचना की है। उनका कहना है कि यह कानून 'एक हथियार है जिसका मकसद मुसलमानों को हाशिये पर ले जाना है और उनके निजी कानूनों और संपत्ति पर काबिज होना है। आरएसएस, बीजेपी और उनके सहयोगियों का यह हमला आज मुसलमानों पर हुआ है। लेकिन इससे जो मिसाल बनी है, भविष्य में उसका इस्तेमाल दूसरे समुदायों के खिलाफ भी होगा।' ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड जैसे मुस्लिम संगठनों ने इसे मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश करार दिया है। बोर्ड ने कहा है कि वह इसे अदालत में चुनौती देगा।  

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एक ऐसे देश में जिसे अपनी बहुलता पर गर्व हो, वक्फ बिल एक बहुत बड़े परेशानी भरे बदलाव का मुकाम है। भारतीय मुसलमानों के आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करके बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार सुधार के नाम पर आर्थिक मुख्यधारा से उन्हें अलग करने की संस्थागत व्यवस्था कर रही है।  

सरकार ने अंग्रेजी के अक्षरों की बाजीगरी करते हुए इस विधेयक को 'उम्मीद' (UMEED) नाम दिया है। वैसे, विधेयक का नाम तो यूनिफाइड वक्फ मैनेजमेंट, एम्पावरमेंट, एफिसिएंसी एंड डेवलपमेंट बिल है लेकिन इसका संक्षेप 'उम्मीद' बनाया गया है जिसमें वक्फ का डब्ल्यू हटा दिया गया है। भारतीय मुसलमानों के लिए यह विधेयक और कुछ भी हो, उम्मीद तो कतई नहीं है। यह नाम दरअसल एक क्रूर मजाक है। अगर यह विधेयक अपने वर्तमान रूप में कानून बन गया, तो यह समावेशी और बराबरी वाले भविष्य की बहुत सारी उम्मीदों को हमेशा के लिए खत्म कर देगा। 

मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ऐसे ही हालत पर लिखा था-

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई सूरत नज़र नहीं आती....

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