विचार

एससी/एसटी एक्ट : सुप्रीम कोर्ट की नजर में क्या है झूठ और सरकार क्यों कह रही है कि वह नहीं है पार्टी?

एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 28 मार्च, 2016 को सरकारी फार्मेसी कॉलेज के स्टोर कीपर दलित कर्मचारी गायकवाड़ द्वारा दायर की गई डॉ. महाजन के खिलाफ एफआईआर के मामले को आधार बनाकर दिया है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया एससी-एसटी एक्ट के मामले की तहकीकात

एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने के विरोध में देश भर के दलितों में कितना गुस्सा और रोष है, यह हम पिछले दिनों हुए भारत के दौरान देख ही चुके हैं। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर इस कानून को नर्म करने के निर्देश दिए हैं, उसमें तीन बातें प्रमुख हैं:

  • सुप्रीम कोर्ट की नजर में क्या है झूठ?
  • सुप्रीम कोर्ट का रुख क्यों है महाराष्ट्र के हाई कोर्ट से उलटा?
  • सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2017 को ही केन्द्र सरकार को इस मामले में पार्टी बनाया था क्योंकि इसमें संसद में कानून की व्याख्या का मसला जुड़ा हुआ है

सबसे पहले यह समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक कानून की धाराओं में बुनियादी बदलाव में आखिर किस बात को ‘झूठा’ माना?

कोर्ट के सामने डा. सुभाष काशीनाथ महाजन द्वारा जो अपील दायर की गई उसमें झूठ जैसी कोई बात नहीं थी। जैसे दलित कर्मचारी भास्कर करभारी गायकवाड़ ने डा. महाजन के बारे में ये शिकायत की हो कि उन्हें जाति सूचक गाली दी और कोर्ट को लगा कि झूठा आरोप है।

20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया उसके तीन चरण हैं। पहला चरण है कि कर्मचारी गायकवाड़ ने 4 जनवरी 2006 को कराड़ पुलिस स्टेशन में सतीश बालकृष्ण भिसे और डा. किशोर बालकृष्ण बुराड़े के खिलाफ अत्याचार निरोधक कानून के तहत शिकायत दर्ज करायी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के आधार पर 20 मार्च को अपना फैलसा नहीं सुनाया है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 28 मार्च, 2016 को सरकारी फार्मेसी कॉलेज के स्टोरकीपर दलित कर्मचारी गायकवाड़ द्वारा दायर की गई डॉ. महाजन के खिलाफ एफआई आर के मामले को आधार बनाकर दिया है।

दलित कर्मचारी गायकवाड़ बनाम कॉलेज के प्रिंसिपल सतीश बालकृष्ण भिसे और विभाग प्रमुख डा. किशोर बालकृष्ण बुराड़े के मामले में डा. महाजन ने जो गड़बड़ी की उसपर एक नजर डालकर खुद ही यह तय किया जा सकता है कि इस पूरे मामले में क्या वाकई कोई झूठ जैसा तथ्य है ?

कर्मचारी गायकवाड़ की शिकायत के वक्त डा. महाजन महाराष्ट्र सरकार की तकनीकी शिक्षा संस्थान के कार्यकारी डायरेक्टर है।डा. किशोर और सतीश भिसे के खिलाफ शिकायत के मामले में जब पुलिस अपनी जांच पड़ताल कर रही थी तब उन दोनों के खिलाफ चार्जशीट दायर करने के लिए डा. महाजन के समक्ष सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अनुमति मानी गई। डा. महाजन कामचलाउ डायरेक्टर थे। कर्मचारी गायकवाड़ ने यह कानूनी मसला पेश किया कि डा. महाजन काम चलाउ डाय़रेक्टर होने के नाते डा. किशोर और प्रो. सतीश के खिलाफ चार्जशीट दायर करने की अनुमति देने व नहीं देने में सक्षम नहीं है। चार्जशीट दायर करने की अनुमति की मांग जिस पत्र से की गई है उसे राज्य सरकार के सामने भेज देने के बजाय डा. महाजन ने 20 जनवरी 2011 को खुद ही चार्जशीट दायर करने की मांग वाले पत्र को खारिज कर दिया। नतीजतन पुलिस को चार्जशीट के बजाय सी रिपोर्ट दायर करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

इस पूरे मामले का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव यह था कि न्यायालय ने पुलिस की सी रिपोर्ट को खारिज कर दिया। तब कर्मचारी गायकवाड़ ने तकनीकी शिक्षा संस्थान के कामचलाउ डायरेक्टर के खिलाफ शिकाय पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज करवायी। उसमें यह आरोप है कि डा. महाजन ने चार्जशीट दायर करने के अनुरोध पत्र को राज्य सरकार के समक्ष भेजने के खुद ही अस्वीकृत करने का फैसला सुना दिया।

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सुप्रीम कोर्ट का रुख क्यों है महाराष्ट्र के हाई कोर्ट से उलटा

डा. महाजन ने पुलिस में शिकायत के खिलाफ मुबंई हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की। उसमें उन्होने यह मांग की कि उनके खिलाफ अत्याचार निरोधक कानून के तहत दर्ज एफआईआर को खारिज करने का आदेश दिया जाए। लेकिन हाई कोर्ट ने 5 मई 2017 को अपने फैसले में कहा कि किसी भी सरकारी कर्मचारी व अधिकारी को किसी मनगंढ़त आरोप में दंडित होने की आशंका को जरुर दूर किया जाना चाहिए। लेकिन अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून की धाराओं को महज इसीलिए गलत या दोषपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता है कि उन धाराओं के गलत इस्तेमाल किए जाने की आशंका हो सकती है।

हाई कोर्ट ने संविधान की भावनाओं के अनुकूल जाकर ये कहा कि जो तथ्य और परिस्थतियां उसके समक्ष प्रस्तुत की गई उसके मद्देनजर कोर्ट डा. महाजन के खिलाफ एफआईआर को रद्द करने का फैसला नहीं ले सकती है । कोर्ट ने ये भी कहा कि खारिज करने का फैसला करने का दूरगामी असर हो सकते हैं और समाज के वंचित समूहों के बीच एक गलत संदेश जा सकता है।

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या

हाई कोर्ट के इसी फैसले के विरुद्ध डा. महाजन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी और पहली बार 20 नवंबर 2017 ने इस अपील को स्वीकार कर लिया था और स्थगन आदेश जारी किया था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 20 नवंबर 2017 के आदेश में यह भी कहा था कि इस संबंध में केन्द्र सरकार को भी नोटिस भेजी जाए क्योंकि केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए कानून की व्याख्या का मसला जुड़ा हुआ है। 20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अत्याचार निरोधक कानून के प्रावधानों की उन व्याख्याओं से उलट व्याख्या पेश की है जो व्याख्या संसद में कानून को मजबूत करने के लिए चली लंबी बहस के दौरान की गई थी।संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या ही भारतीय समाज के भीतर का मुख्य संघर्ष के रुप में दिखती है। संसद में जातीय उत्पीड़न को खत्म करने के इरादे से इस कानून की जरुरत पर बल दिया था। सुप्रीम कोर्ट की नई व्याख्या यह है कि इस कानून के प्रावधान को उलटने का उद्देश्य जातिवाद के आधार पर निर्दोष नागरिकों के उत्पीड़न को रोककर समाजिक एकता और भाईचारे के सवैंधानिक मुल्यों को बढ़ावा देना है।

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