
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि- “मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।” कहते छल छल
हो गए नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कंठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचंड
धंस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दंड।
......
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले- “आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति संपूर्ण विजित।”
.....
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित!
देखा, हैं महाशक्ति रावण को लिए अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक;
हत मंत्रपूत शर संवृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार!
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बिहार विधानसभा चुनाव के विपक्ष को भूलुंठित (नीचे गिराना ) करके रख देने वाले सर्वथा अप्रत्याशित नतीजों के बाद बहुत से मनीषियों को महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की यह पंक्तियां बार-बार याद आ रही हैं। आएं भी क्यों नहीं, 1936 में जब यह कविता रची गई, वर्तमान सत्ताधीशों की ही तरह अंग्रेज देश को निरंतर विभाजित करने में लगे हुए थे। महात्मा गांधी की अगुवाई में चल रही आजादी की लड़ाई बार-बार आशा और निराशा के झूलों में झूलने को अभिशप्त थी। एक ओर से मोहम्मद अली जिन्ना तो दूसरी ओर से विनायक दामोदर सावरकर लगातार ऐसी चुनौतियां पेश कर रहे थे, जिससे महात्मा अन्य चीजों से ध्यान हटाकर उसे सिर्फ अंग्रेजों से जूझने में केन्द्रित न कर सकें।
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इस वक्त लगभग वैसे ही हालात के कारण, जिनकी भी लोकतंत्र में आस्था है और जो उसे सत्ताधीशों के जबड़ों में फंसकर कराहते देख दुखी हैं, उम्मीद लगाए बैठे थे कि ज्ञान और क्रांति की भूमि बिहार उसके चीरहरण के धारावाहिक सिलसिले को पलट देगी। वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक चिंतक अरुणकुमार त्रिपाठी को तो यहां तक लग रहा था कि बिहार के बाद पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल से होते हुए उत्तर प्रदेश तक में घृणा, अन्याय, झूठ, अत्याचार एवं अधिनायकवाद के पैरोकारों को (जो हमारे लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को उनके ही खात्मे के लिए इस्तेमाल करने पर उतरे हुए हैं) उखाड़ फेंकने का सिलसिला केन्द्र की सत्ता से उनकी बेदखली तक जा पहुंचेगा।
लेकिन यह उम्मीद फलीभूत नहीं हुई और बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो हमने उन पैरोकारों को (लोक को जिनके शिकंजे से बचाने के लिए ही लोकतंत्र की कल्पना की जाती है) लोक को हराकर अपनी मूंछें ऐंठने में मगन पाया। यह भी देखा कि उनके प्रतिद्वंद्वी महाभारत के अभिमन्यु की गति को प्राप्त हो गए हैं।
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तब कई निराश लोग झुंझलाहट में इस पर विचार किए बिना कि यह लड़ाई कितनी विषम थी, इन प्रतिद्वंद्वियों की खोट और खामियां गिनाने पर उतर आए और बेदिली से कहने लगे कि उन्होंने लड़ाई ठीक से लड़ी ही नहीं।
काश, वे समझते कि इस लड़ाई में जो सत्तापक्ष अपने समूचे तंत्र के साथ हर तरह की अलोकतांत्रिकता और अनैतिकता बरतकर हर हाल में अपने प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में लगा हुआ था, उसके पास बस उनको निपटा देने का ही एक सूत्री कार्यक्रम था, जबकि प्रतिद्वंद्वियों के समक्ष उसके शुभचिंतक चुनाव आयोग, मीडिया, संकीर्णतावादी-सांप्रदायिक और दूषित सामाजिक-धार्मिक प्रवाहों और अन्यायी अदालतों समेत उसके समूचे ढांचे से एक साथ निपटने की चुनौती थी।
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ऐसे हालात में, जब देश के संवैधानिक लोकतंत्र को देखते ही देखते नियंत्रित लोकतंत्र (कंट्रोल्ड डेमोक्रेसी) में बदल डाला गया हो, क्या यह बात भी भूल जानी चाहिए कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष न रह जाएं तो वे लोकतंत्र की प्राणवायु नहीं रह जाते और चुनाव करा देने भर से कोई देश, प्रदेश या उनकी सरकारें लोकतांत्रिक नहीं हो जातीं?
राजनीति विज्ञानियों के अनुसार, नियंत्रित लोकतंत्रों में सरकारें ऊपर-ऊपर से अपने लोकतांत्रिक होने का दिखावा भले करती रहती हैं, अपनी वास्तविक शक्ति कुछ व्यक्तियों या समूहों के हाथों में केन्द्रित कर देती हैं। ऐसे लोकतंत्रों में चुनाव पहले से तय कर लिए गए परिणामों को वैध करार देने भर के लिए कराए जाते हैं और उनके पीछे सरकारें या उनकी नीतियों को बदलने की मतदाताओं की शक्ति को निरुपाय कर देने की बदनीयती होती है।
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ऐसे में मतदाताओं का पोलिंग बूथों तक जाना औपचारिकता भर रह जाता है। चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता कोई बड़ा मूल्य नहीं रह जाती। चूंकि इस सबके लिए स्वतंत्र मीडिया को सत्ता समर्थक मीडिया में बदलना जरूरी होता है, इसलिए उस पर भी तरह-तरह के शिकंजे कसकर उसे सिर उठाने लायक नहीं रहने दिया जाता।
मिसाल के तौर पर रूस में भी चुनाव आयोग है और वहां भी संसद और राष्ट्रपति के नियमित चुनाव होते हैं। लेकिन चूंकि वे किसी ढकोसले से ज्यादा नहीं होते, इसीलिए ढाई दशकों से व्लादिमीर व्लादिमीरोविच पुतिन और उनकी पार्टी ही सत्ता पर काबिज है। इतना ही नहीं, उनका विरोध करने और सच्चाई उजागर करने वालों का स्थान जेलों में है।
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क्या कोई कह सकता है कि हमारे देश में भी अब ऐसी ही स्थिति उत्पन्न नहीं की जा रहीं? तब क्या बिहार विधानसभा चुनाव को इससे अलग करके देखा जा सकता है? इसका साफ उत्तर है ‘नहीं।’ यकीनन, इसीलिए बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन की ‘धमाकेदार’ जीत उन्हें ही ज्यादा अप्रत्याशित लग रही है, जिन्हें रूस में पुतिन, तुर्की में एर्दोगान और बांग्लादेश में शेख हसीना की चुनावी जीतों का ‘रहस्य’ नहीं मालूम। एशिया, अफीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों में लोकतंत्र के नाम पर कराए जाने वाले चुनावों का यह सच नहीं पता कि उनमें चुनाव आयोगों, सुरक्षा बलों और नौकरशाहों की मदद से चुनाव परिणामों का कितनी आसानी से ‘अपहरण’ कर लिया जाता है।
इस अपहरण को लेकर थोड़े दिनों तक शोर मचता है, फिर सब कुछ शांत हो जाता है। हां, कोई अप्रत्याशित विरोध पर उतर आए तो उसको फर्जी आरोपों में जेल भेजकर सबक सिखा दिया जाता है।
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उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रामबहादुर वर्मा तो साफ कहते हैं कि बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन ने प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक मैकियावेली के विचारों के अनुसार नैतिकता को पूरी तरह तिलांजलि देकर निर्लज्जतापूर्वक साम, दाम, दंड, भेद सब बरत डाला। चूंकि समूचा सत्ता तंत्र उसके हाथ में था, इसलिए उसने प्रतिद्वंद्वी महागठबंधन के साथ-साथ लोक को भी ‘सफलतापूर्वक’ जमीन दिखा दी।
डॉ. वर्मा कहते हैं : ऐन चुनाव के वक्त 1.40 करोड़ महिला मतदाताओं की आंखों पर दस हजार के नोटों की पट्टी बांध दी जाए, जबकि 80 प्रतिशत जनसंख्या को मुफ्त राशन देकर उनकी आवाज पहले ही बंद कर दी गई हो तो निष्पक्ष चुनाव का जनाजा क्यों नहीं निकल जाएगा? खासकर जब संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय और संविधान के अनुसार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बने चुनाव आयोग को अपनी नाक के नीचे खुलेआम हो रही वोटों की सरकारी खरीद नहीं दिखाई देगी।
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तिस पर राज्य में आदर्श चुनाव आचार संहिता के अनुपालन की हालत यह थी कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वहां दिन-रात एक कर धार्मिक एवं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने के भरपूर प्रयास किए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत इस गठबंधन के प्रायः सारे नेताओं ने रैलियों और सभाओं के दौरान अपनी वाणी पर संयम की कतई कोई जरूरत नहीं समझी और एक से बढ़कर एक ओछी बातें कीं। लाखों मतदाताओं के प्रति बेहद अनुदार चुनाव आयोग ने इस ओर से तो आंखें मूंदे रखीं, लेकिन दूसरे राज्यों से रेलगाड़ियों में भर-भरकर लाए गए उनके ‘सचल मतदाताओं’ के प्रति बेहद उदारता बरती।
नौकरशाही का राजनीतिकरण भी इस चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन के बहुत काम आया। उसने उससे अपने काडर की तरह काम लिया। तिस पर चुनाव के मद्देनजर दूरदर्शन ने बिहार के लालू-राबड़ी काल के तथाकथित जंगलराज पर प्रकाश झा द्वारा निर्मित दो फिल्में ‘गंगाजल’ और ‘अपहरण’ दिखाईं ताकि उनका संदेश उस नई पीढ़ी तक भी पहुंच जाए, जिसने उस ‘जंगलराज’ को नहीं भुगता।
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ऐसे में क्या आश्चर्य कि नतीजा वही हुआ, जो नहीं होना चाहिए था? लेकिन अब आगे? किसी ने कहा है कि हारने के बाद, पटखनी खाने के बाद गर्द झाड़ कर खड़े हो जाना चाहिए और कहना चाहिए, एक मुकाबला और! विपक्ष के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है क्योंकि आगे और लड़ाई है। लेकिन वह लड़ाई ही नहीं, इसका मौका भी है जिसे प्राण-पण से इस्तेमाल करके वह इस हार को अपनी अंतिम हार सिद्ध कर सकता है। अगर न्यूयॉर्क के मेयर के चुनाव में ज़ोहरान ममदानी शक्तिशाली वर्चस्वशालियों के सरोकारों और निहित स्वार्थों को खुली चुनौती देकर जीत हासिल कर सकते हैं, तो हमारे देश में विपक्ष ऐसा क्यों नहीं कर सकता? अलबत्ता, इसे कर सकने की एक शर्त है : उसका संकल्प दृढ़ हो और आत्मविश्वास मजबूत।
निराला की जिस ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता से बात शुरू की थी, उसमें वे भी यही सुझा गए हैं :
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर;
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन,
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन!
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