बीते कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के विकास में कुछ ऐसे असामान्य तौर पर विकसित हुई है, जिसमें सामाजिक मुद्दों को लेकर उसकी सोच रूढ़िवादी से बदलकर कट्टरपंथी हो गई है। अपने शुरुआती दशकों में, भारतीय जनसंघ के वक्त और फिर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी बीजेपी पर्सनल लॉ से जुड़े मुद्दों को उठाने में हिचकिचाती रही थी। 1951 के अपने घोषणापत्र में इसने अंबेडकर के हिंदू कोड बिल के बारे में कहा था: "पार्टी का मानना है कि सामाजिक सुधार किसी समुदाय या सामान्य रूप से आम लोगों पर थोपे नहीं जाने चाहिए। इस दिशा में समाज के भीतर से काम करना चाहिए। इसलिए हिंदू कोड बिल द्वारा परिकल्पित कोई भी दूरगामी परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए।”
तो फिर आखिर ये दूरगामी प्रभाव वाले समग्र परिवर्तन थे क्या? दो ऐसे परिवर्तन थे। पहला, महिलाओं, विशेषकर विधवाओं द्वारा संपत्ति का उत्तराधिकार, और दूसरा, तलाक का मुद्दा। बीजेपी या जनसंघ इस विचार का विरोध कर रहे थे, भले ही कानूनों को पारित कर दिया गया था और वादा किया गया था कि इन्हें वक्त आने पर निरस्त कर दिया जाएगा। यह महिलाओं को तलाक के अधिकार की अनुमति नहीं देता था, क्योंकि 1957 के घोषणापत्र पार्टी ने लिखा था, "कभी न टूटने वाला विवाह हिंदू समाज का आधार रहा है।" पार्टी ने यह भी माना कि संयुक्त परिवार हमेशा के लिए रहेंगे और उसने आधुनिक विरासत कानूनों का विरोध घोषित किया था।
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वक्त के साथ हिंदू कोड पर पार्टी का यह रुख बदलता गया क्योंकि कानून को समाज ने स्वीकार करना शुरु कर दिया था। इसके अलावा जो विवाह असफल साबित हुए उनमें तलाक एक समझदार संवेदनशील विकल्प मान लिया गया, और विवाह को बाध्यकारी मानने का संस्कार है जहां विवाह विफल हो गए हैं और विवाह के उस विचार को अधिकतर भारतीयों ने त्याग दिया जिसमें विवाह को एक बाध्यकारी संस्कार (यानी 'सात जन्मों का साथ') के रूप में बताया गया था।
सामाजिक मुद्दों पर अपने रुढ़िवादी रवैये के चलते, पार्टी ने शुरुआत में यूनीफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) पर संकोच बनाए रखा। वैसे भी इस मुद्दे का जिक्र उसके शुरुआती पांच दशक के दौरान सिर्फ एक ही बार हुआ। 1967 आते-आते पार्टी ने हिंदू विवाह और उत्तराधिकार कानून का विरोध करना बंद कर दिया। पार्टी ने कहा कि वह समय आने पर “विवाह कानून, गोद लेना और विरासत के कानून को नए सिरे से सभी भारतीय नागरिकों के लिए बनाएगी।“ लेकिन फिर भी पार्टी में इस विषय पर कोई उत्साह या जल्दबाजी नहीं दिखी और न ही अगले एक चौथाई सदी (25 साल तक) इस विषय पर कोई संदर्भ सामने आया।
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यह बताना भी रोचक होगा कि अपने अस्तित्व में आने से लेकर 1984 तक पार्टी की अयोध्या में भी कोई रूचि नहीं थी। हालांकि 22 दिसंबर 1949 की रात को बाबरी मस्जिद में चोरी-छिपे मूर्तियां रख दी गई थीं। जनसंघ की स्थापना से कुछ महीने पहले हुई इस घटना के बावजूद पार्टी ने मंदिर को कभी मुद्दा नहीं बनाया।
अप्रत्याशित मोड़ तब आया जब 1984 के चुनाव में पार्टी एक तरह से डूब गई और वाजपेयी ने पार्टी की कमान लाल कृष्ण आडवाणी को सौंप दी। उस समय तक आडवाणी एक अनिर्वाचित व्यक्ति (न तो विधानपरिषद में थे और न ही राज्य सभा में), और उन्हें बिल्कुल अनुमान नहीं था कि जन-लामबंदी कैसे की जाए या कैसे काम करती है। आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे इस बात को देखकर हैरान थे कि मंदिर मुद्दा उठाने के बाद उनकी रथयात्रा में किस तरह भारी भीड़ जुट रही थी।
आम लोगों की प्रतिक्रिया से उत्साहित, बीजेपी ने पहली बार अपने घोषणापत्र ने मंदिर का जिक्र किया: "1948 में भारत सरकार द्वारा निर्मित सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर अयोध्या में राम जन्म मंदिर के पुनर्निर्माण की अनुमति नहीं देकर, सरकार ने तनाव को बढ़ने दिया है, जिससे सामाजिक सद्भाव को गंभीर नुकसान हुआ है..."
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1989 में बीजेपी ने राजनीतिक में धर्म को जो तड़का लगाया उससे मतदाताओं के मन पर ऐसा असर हुआ जैसा इससे पहले कभी कहीं नहीं हुआ था और बीजेपी को इससे असाधारण चुनावी लाभ मिला। आडवाणी ने बीजेपी के लिए पहले राज्य में जीत हासिल की। इससे पहले यानी 1990 से पहले किसी भी राज्य में बीजेपी की अपन सरकार नहीं थी। और नि:स्संदेह 1992 की घटनाओं ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित और प्रभावशाली बना दिया। अयोध्या का मुद्दा गर्माने से पहले तक बीजेपी का वोट शेयर कभी भी दो अंकों में नहीं रहा था, लेकिन वह उछलकर 18 फीसदी और फिर दोगुना हो गया।
भारतीय जनता पार्टी को जल्द ही एहसास हो गया कि हिंदू रुढ़िवादी रुख के बजाए मुस्लिम विरोध रुख ज्यादा काम करेगा और इसके दम पर पार्टी लोगों की लामबंदी भी कर सकती है। इसके बाद अब समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) अब उसके कार्यक्रम का स्थाई हिस्सा बन गया और इसमें जोर बहुविवाह पर रखा गया। मोदी शासनकाल में बीजेपी ने मुस्लिम तलाक पर प्रहार तो किया, लेकिन इससे बहुत अधिक ध्रुवीकरण नहीं हो पाया और नतीजा संतोषजनक नहीं रहा।
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इसके साथ ही पहले उत्तराखंड में (2018), फिर हिमाचल में 2019 में, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 2020 में, गुजरात में 2021 में और कर्नाटक में 2022 में हिंदू और मुसलमानों के बीच विवाह को अपराध घोषित करने का कानून बना दिया गया।
इसी तरह बीजेपी शासित असम, उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में अधिकतम दो बच्चों का कानून लाने की बात हुई और मुसलमानों को निशाने पर लेते हुए बहुविवाह रोकने को अमल में लाया गया और इससे बीजेपी को ध्रुवीकरण और उससे होने वाले चुनावी और राजनीतिक लाभ की उम्मीद है। बीजेपी की राज्य इकाइयां एक लय में काम करती हैं। एक मतदाता के तौर पर हम इनसे प्रभावित होते हैं, ऐसे वक्त में भी जब देश में अर्थव्यवस्था की स्थिति नाजुक हो, बेरोजगारी सिर उठाए हुए हो और तेल की कीमते आसमान छू रही हों। लेकिन बीजेपी के लिए तो ऊपर बताए गए कथित सामाजिक सुधार ही काम की चीज हैं।
पाठकों को यह जानने में भी दिलचस्पी हो सकती है कि नागरिक स्वतंत्रता और आपराधिक कानूनों को लेकर जनसंघ/बीजेपी एक समानांतर विकास के क्रम में कट्टरपंथी होने से रूढ़िवादी दिशा में पहुंच गई है। 1951 में, उसने कहा था कि वह नेहरू द्वारा किए गए पहले संशोधन को निरस्त कर देगी जिसके तहत बोलने की आजादी, सभा करने की आजादी संघ या संगठित होने की आजादी दी गई थी। उसके विचार में यह वैसी लोकतांत्रिक प्रकिया नहीं थी जैसी कि किसी लोकतांत्रिक देश में होती है।
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1954 में और बाद के वर्षों में इसने कहा कि यह निरोध कानूनों (जैसे यूएपीए और सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम) को निरस्त कर देगी क्योंकि वे "व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांतों का पूरी तरह उल्लंघन करते है।" लेकिन आज, आज तो निश्चित तौर पर बीजेपी इन्हीं कानूनों को लागू करने की सबसे बड़ी चैंपियन बन गई है।
बीजेपी जब सत्ता में नहीं थी और उसे सत्ता में आने की कुछ उम्मीद भी नहीं थी, तो नागरिक अधिकारों और सरकार के अधिकारों को लेकर उसका रुख एकदम अलग था। आज जब सत्ता पर उसका नियंत्रण है, तो बीजेपी नागरिक अधिकारों के बजाए सरकार के अधिकारों और नियंत्रण पर जोर देती है।
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