विचार

आकार पटेल का लेख: रिहाना के तो पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे, लेकिन वाशिंगटन पोस्ट और द इकोनॉमिस्ट पर क्यों है चुप्पी!

वाशिंगटन पोस्ट और द इकोनॉमिस्ट ने भारत में लोकतंत्र और सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों पर प्रहार को प्रमुखता से उठाया है। लेकिन पॉप सिंगर रिहाना के पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ने वाली सरकार इस बार चुप है। कारण यह है कि इन पत्रिकाओं ने जो कुछ लिखा है वह सच है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

वाशिंगटन पोस्ट के संपादकीय बोर्ड ने लिखा है कि भारत के लोकतंत्र के दावे पर सवालिया निशान लगाया जाना चाहिए। अखबार ने यह शीर्षक उस रिपोर्ट में लगाया है जिसमें भारत के इन दिनों के हालात, शासन-प्रशासन की व्यवस्था आदि का आंकलन किया गया है। इनमें संसद में बिना वोटिंग के पास किए गए कृषि कानून और एक खुले दस्तावेज़ को एडिट करने के लिए युवा महिला कार्यकर्ताओं को जेल में डालने आदि का जिक्र है।

एक पॉप स्टार द्वारा मात्र छह शब्दों के बयान पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई थी, उसके विपरीत भारत के विदेश मंत्रालय ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया है। पॉप स्टार रिहाना ने सीएनएन की एक खबर को शेयर करते हुए 2 फरवरी को लिखा था “आखिर हम इसके बारे में बात क्यों नहीं कर रहे?” न ही अक्षय कुमार और सचिन तेंदुलकर समेत भारत के ‘वीर सपूतों’ ने वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया दी। लगता है प्रधानमंत्री ने इन लोगों को ऐसा करने का कोई निर्देश नहीं दिया क्योंकि शायद पीएम को लगता है कि वाशिंगटन पोस्ट की खबर पर क्या कुछ बोलना जबकि पॉप स्टार के तो लाखों फॉलोअर हैं

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विश्व की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका द इकोनॉमिस्ट ने भी अपने ताजा अंक में लिखा है कि, “अपने आलोचकों को लेकर भारत का रवैया न सिर्फ खराब है बल्कि पाखंडपूर्ण है।” वाशिंगटन पोस्ट की ही तरह द इकोनॉमिस्ट ने भी कहा है कि “मोदी सरकार की हरकतों ने उसे घटिया और मूर्ख साबित किया है।“

सरकार ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। सका एक कारण हो सकता है कि इकोनॉमिस्ट ने अपनी रिपोर्ट में भारत सरकार द्वारा गुरुजी गोलवलकर को सरकारी तौर पर श्रद्धांजलि देने का मुद्दा उठाया है। पत्रिका ने लिखा है, “गोलवलकर का विश्वास था कि नाजियों की जर्मनी ने जिस तरह अपने यहां यहूदियों के साथ सुलूक किया उससे भारत को सबक लेकर सीखना चाहिए और उसका फायदा उठाना चाहिए।”

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चलिए वाशिंगटन पोस्ट के दावे का विश्लेषण करते हैं कि हम एक लोकतंत्र नहीं रहे हैं। पश्चिमी देशों की नजर में लोकतंत्र सिर्फ चुनाव नहीं है। उनके लिए लोकतंत्रा का अर्थ नागरिक स्वतंत्रता, बुनियादी अधिकारों की रक्षा और इंसाफ तक पहुंच है। इन सारे तत्वों को मिलाकर ही सरकारी ढांचा बनता है जिसे पश्चिमी देश लोकतंत्र मानते हैं।

लेकिन, हमारे यहां हम सिर्फ चुनाव को ही लोकतंत्र मान लेते हैं। लेकिन इसमें क समस्या है। भारत ने सामूहिक तौर पर 1947 में स्वतंत्रता हासिल की, यानी अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित सत्ता पूरी तरह भारतीयों के हाथ में आ गई। इससे भारतीय नागरिकों को यह अधिकार मिल गया कि वे तय करें कि कैसे नागरिक स्वतंत्रता और निजी आजादी की रक्षा के लिए हमारे अपने कानून हों। सामूहिक तौर पर आजादी का मतलब मोटे तौर पर वोट देने का अधिकार है। वैसे यह अधिकार कुछ पाबंदियों के साथ ब्रिटिश काल में भी था। लेकिन सामूहिक तौर पर स्वतंत्रता मिलने से भारत को उन पाबंदियों से मुक्ति मिली थी जो अंग्रेजों ने लगा रखी थीं। इनमें मतदान का अधिकार, कानून और कानून बनाने की प्रक्रिया सबकुछ शामिल था।

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1947 के बाद भारत को निजी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर ध्यान केंद्रित करना था ताकि बुनियादी अधिकारों को मजबूती मिले। लेकिन भारत इस मामले में थोड़ा लड़खड़ा गया। सरकारों ने नागरिकों को उनके अधिकारों से कुछ हद तक वंचित रखा। सरकारों ने नागरिक अधिकारों पर कब्जा कर लिया। ये अधिकार हैं:

  • बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी

  • किसी भी पेशे को अपनाने की आजादी

  • शांतिपूर्ण मजमे की आजादी

  • एसोसिएशन बनाने की आजादी

  • अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को मानने-अपनाने की आजादी

लेकिन आज के भारत में ये सारे अधिकार नजर नहीं आते।

ये सारे अधिकार बुनियादी हैं, जिन्हें सरकारों के अतिक्रमण से संरक्षित किया गया है। लेकिन संविधान संभा जैसा चाहती थी, वैसा भारतीयों को नहीं मिल रहा है। सरकार ने इन्हें नागरिकों से छीन लिया है, और बहुत से तो कभी अस्तित्व में ही नहीं थे।

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ऐसे अनेक कानून हैं जो बोलने की आजादी को न सिर्फ नियमित करते हैं बल्कि उन्हें अपराध भी ठहराते हैं, ऐसे में यह बड़ा मुश्किल है कि किस कानून का जिक्र किया जाए। राजद्रोह, आपराधिक मानहानि और आपराधिक उल्लंघन कुछ ऐसे ही कानून हैं। ये सारे कानून उन देश में नहीं हैं जहां से संदर्भ लेकर हमारे कानून बनाए गए हैं। (ध्यान रहे भारत का संविधान मनु स्मृति पर आधारित नहीं है बल्कि दूसरे राष्ट्रों के संविधानों पर आधारित है।)

सुप्रीम कोर्ट ने 1950 के दशक में फैसला दिया था कि संविधान सभा ने किसी भी पेशे को अपनाने की आजादी दी है, लेकिन इसने गायों को काटे जाने की अनुमति नहीं दी है क्योंकि इससे हिंदुओं की भावनाएं आहत हो सकती हैं। इस तरह यह बता दिया गया कि संविघान सर्वोपरि है लेकिन हिंदू भावनाएं उससे भी ऊपर हैं।

विरोध प्रदर्शन (शांतिपूर्व मजमा) को अपराध ठहरा दिया गया है, प्रचार करने के अधिकार को भी अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया है, बोलने की आजादी पर राजद्रोह मामला बना दिया जाता है, इसी तरह आपराधिक मानहानि और आपराधिक उल्लंघन के भी कानून सामने रख दिए गए हैं।

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सरकार ने इन अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए तर्कपूर्ण पाबंदियों का हवाला दिया है, जिससे अधिकारों पर ही पाबंदियां लग गई हैं। भारत में हमेशा ऐसा होता रहा है। लेकिन मौजूदा सत्ता ने सरकारों के अधिकार को नागरिकों के अधिकार के ऊपर तरजीह दी है ताकि ऐसे लोगों को कुचला जा सके जो सरकार के खिलाफ खड़े होते हैं। वाशिंगटन पोस्ट और द इकोनॉमिस्ट ने यही सब लिखा है। और भारत सरकार इस सब चुप है तो इसका कारण यह है कि ये सब सच है।

हम एक पॉप गायिका को चुप रहने के लिए कह सकते हैं क्योंकि वह एक युवा महिला है। लेकिन वाशिंगटन पोस्ट और दि इकोनॉमिस्ट को यह कहना कि भाड़ में जाओ थोड़ा मुश्किल है, इसलिए खामोशी ही सबसे अच्छा विकल्प है। जो कुछ भी नहीं कहा गया है वह ऐसै नहीं है कि आसानी से खत्म हो जाएगा। भारत सरकार की निरंतर कार्रवाइयां और अपने नागरिकों के खिलाफ की जा रही हरकतें विश्व स्तर पर भारत की प्रतिष्टा की कीमत पर की जा रही हैं। और हम इस सबको इतने करीब से देख रहे हैं कि हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि हम इसकी क्या कीमच चुका रहे हैं। लेकिन काफी कुछ हो चुका है और इस सबको टाला जा सकता था। यह अलग बात है कि भारत सरकार आज इस बात की परवाह नहीं करती है कि वह नागरिकों के लिए क्या कर रही है खासतौर से जब तक उसका ध्येय पूरा होता रहता है।

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