विचार

खरी-खरी: मोदी नाम का ब्रह्मास्त्र फिर चलेगा क्या इन विधानसभा चुनावों में !

जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनकी अपनी-अपनी राजनीतिक परिस्थितियां हैं। परंतु बीजेपी की चिंता केवल राज्यों की परिस्थितियों तक सीमित नहीं है। बीजेपी का चुनावी ब्रह्मास्त्र तो नरेंद्र मोदी हैं। सवाल यह है कि मोदी कार्ड अब कितना सफल है।

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फोटो : Getty Images Hindustan Times

यह भी कुछ अजीब सप्ताह है। राजधानी दिल्ली का मिजाज भी अजीब-सा है। न तो ठीक से ठंड पड़ रही है और न ही पूरी तरह गर्मी है। इस वर्ष यहां वसंत का मौसम नहीं है। आप मौसम के मिजाज के बारे में कुछ कह नहीं सकते। यही कुछ हाल देश एवं दिल्ली के राजनीतिक मिजाज का भी है। कम-से-कम दिल्ली में राजनीतिक गतिविधियों का मिजाज भी कुछ ढीला ही है। जिस बड़े नेता को देखो, वह दिल्ली के बाहर घूम रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बंगाल और असम में भाषण कर रहे हैं। उधर, राहुल गांधी केरल और तमिलानाडु घूम रहे थे। प्रियंका असम के लोगों का दिल जीत रही थीं। और तो और, जिन गुलाम नबी आजाद के बारे में कभी यह नहीं सुना कि वह जनता के बीच रैली करते हों, वह भी जम्मू में जनता के बीच हाजिरी दे रहे थे। लब्बोलुआब यह है कि इन दिनों दिल्ली ठंडी है और जनता का दरबार गर्म है। और क्यों न हो! पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो चुका है। जाहिर है कि अब राजनीति जनता के पाले में है और नेता जनता को लुभा रहे हैं।

पांच राज्यों में होने वाले चुनाव भी कुछ ऐसे-वैसे नहीं हैं। पिछले छह-सात वर्षों में लगभग सभी चुनावों का मुद्दा कोई और नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उनकी राजनीति रही है। मोदी जी ने चुनाव जीतने का एक बहुत सफल फार्मूला बना लिया है और वह हर चुनाव उसी फार्मूले पर जीतते हैं। वह लोगों में पहले एक जनता विरोधी शत्रु का भय उत्पन्न करते हैं। और फिर स्वयं उस शत्रु का वध कर जनता के अंगरक्षक का स्वरूप धारण कर लेते हैं। वह शत्रु गुजरात में खुले तौर पर वहां का मुस्लिम समुदाय था और उसका वध कर वह केवल गुजरात ही नहीं, देश भर में हिंदू हृदय सम्राट बन गए और लगातार चुनाव जीतते रहे।

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जनता के मुंह का जायका बदलने के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अंगरक्षक के साथ देश की जनता की रातों- रात किस्मत बदलने का भी स्वांग रचा। उन्नति एवं प्रगति के ऐसे सपने दिखाए कि देश मोदीमय हो उठा। परंतु चुनाव समाप्त होते ही वही घृणा एवं शत्रु वध का ऐसा रूप धरा कि जनता नोटबंदी की मार भूलकर मोदी जी के नाम पर वोट देती रही। परंतु सन 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते जनता का मोदी मोह कुछ भंग होने लगा, तो उनकी किस्मत से पुलवामा का आतंकी हमला हो गया। लीजिए, मोदी जी ने बालाकोट एयर स्ट्राइक कर फिर अंगरक्षक का रूप धारण कर लिया। पाकिस्तान को ‘ठीक’ करने के नाम पर जनता ने मोदी जी की झोली 2019 में वोट से भर दी और बीजेपी को ऐसा बहुमत प्राप्त हो गया कि निश्चय ही उसने भी यह सपने में नहीं सोचा था।

अब देखें, मार्च एवं अप्रैल में होने वाले बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु एवं पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों में अब वह किस शत्रु का वध कर जनता को मोहते हैं। परंतु अभी तक तो मोदी जी के पास ऐसा कोई ब्रह्मास्त्र नहीं दिखाई पड़ रहा। हर राज्य की परिस्थितियां अलग-अलग हैं और हर जगह राजनीति अलग ही होगी। खैर, बंगाल में तो मुस्लिम जनसंख्या बड़ी है। अतः वहां ‘जय श्रीराम’ कार्ड चलाना आरंभ हो गया है। परंतु समस्या यह है कि यदि वहां का मुस्लिम वर्ग ममता के पक्ष में एकजुट हो गया तो फिर तो बीजेपी की बाजी पलट सकती है। बहरहाल, बंगाल में भीषण रण होगा। मोदी और शाह ने बंगाल पर बिहार की तरह ठान भी ली है। फिर चुनाव आयोग तो सरकार की जेब में है। बंगाल में बीजेपी का रास्ता साफ करने के लिए चुनाव आठ चरणों में होंगे। हमारे एक मित्र तो इस घोषणा पर हंस कर बोले, चार राज्यों में मतदान की तारीखों की घोषणा हुई है। बंगाल के आठ चरण के चुनाव से तो बंगाल के चुनावी नतीजों की ही घोषणा हो गई। अब क्या कीजिए, जितने मुंह उतनी बातें। इन दिनों एक बड़े वर्ग का ईवीएम प्रणाली से ही विश्वास उठ गया है। पर ममता दीदी को भी हलका मत समझिए। अगर मोदी गुजरात के शेर हैं तो ममता भी बंगाल की रॉयल टाइगर हैं। अतः सबकी निगाहें अगले दो-ढाई महीनों में बंगाल पर ही रहेंगी।

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जहां तक असम का सवाल है तो वहां भी मुस्लिम जनसंख्या बहुत बड़ी है। वहां पिछला चुनाव बीजेपी ने एनआरसी के मुद्दे पर जीता था। असम के लोगों को आशा थी कि एनआरसी के साथ-साथ असम बांग्लादेशियों से मुक्त हो जाएगा। वहां तो खेल ही उलट गया। एनआरसी लागू होने के बाद कुल 17 लाख लोग नागरिकता से वंचित हुए। इनमें से 12 लाख हिंदू थे। नए नागरिकता के नियम के अनुसार, बांग्लादेश से आए हिंदू नागरिक को नागरिकता देनी पड़ेगी। असम तो बांग्लादेशियों से मुक्त होने से रहा। असम की समस्या वैसी की वैसी बनी रहेगी। अब उसकी समझ में आया कि एनआरसी तो खोटा सिक्का निकला। उधर, कांग्रेस ने घोषणा कर दी है कि यदि वे सत्ता में आए तो एनआरसी को लागू नहीं करेंगे। उधर, बोडो जैसी कई असमिया जनजातियां भी बीजेपी के कट्टर हिंदुत्व स्वरूप से भड़क गईं। बोडो बीजेपी का साथ छोड़ कांग्रेस के मोर्चे में शामिल हो गए। इस प्रकार असम में बीजेपी की रणनीति बिगड़ गई। अब देखें वहां मोदी और शाह की जोड़ी क्या गुल खिलाती है। तमिलनाडु एवं केरल तो बीजेपी के लिए सदा टेढ़ी खीर रहे हैं। हां, पुडुचेरी में सरकार गिराकर बीजेपी की निगाहें इसकी सत्ता पर जरूर हैं।

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यह तो रही चुनावी राज्यों की अपनी-अपनी राजनीतिक परिस्थितियां। परंतु बीजेपी की चिंता केवल राज्यों की परिस्थितियों तक सीमित नहीं है। बीजेपी का चुनावी ब्रह्मास्त्र तो नरेंद्र मोदी हैं। सवाल यह है कि मोदी कार्ड अब कितना सफल है! नरेंद्र मोदी केवल शत्रु वध कर अंगरक्षक रूप धारण कर जनता का मन मोहने की कला जानते हैं। यह रणनीति अब पुरानी हो चुकी है। फिर देश की परिस्थितियों में दो मौलिक परिवर्तन हो चुके हैं। देश की अधिकांश जनता अब भूखी है। मेरा यह मतलब नहीं है कि उसको दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं है। खाना तो खाने को है। परंतु यूपीए राज में उसने जो मोटरसाइकिल खरीदी थी, उसमें तेल डलवाने के पैसे उसकी जेब में नहीं हैं। केवल इतना ही नहीं, देश की लगभग साठ प्रतिशत जनता छोटे-मोटे काम-धंधों से गुजारा करती थी। इस वर्ग की बड़ी संख्या बेरोजगार है या मुश्किल से दो वक्त का पेट पाल रही है। वह युवा जो पहले ‘मोदी, मोदी, मोदी’ कहता था, उसको अब मोदी ही शत्रु लगने लगें तो कोई बड़ी हैरानी की बात नहीं होगी। डर यह है कि इस चुनाव में कहीं स्वयं मोदी जी ‘जनता शत्रु’ रूप न ले लें।

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ऐसा हो ही जाए, यह तो पक्का नहीं है। अभी भी मोदी जी पर अंध विश्वास रखने वाले भक्तों की कमी नहीं है। परंतु यह मत भूलिए कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने एक बड़े वर्ग का मोदी अंध मोह तोड़ दिया है। किसान आंदोलन कोई छोटा-मोटा आंदोलन नहीं है। इस सप्ताह किसान आंदोलन ने सौ दिन पूरे कर लिए हैं। पिछले सात वर्षों की सत्ता में किसानआंदोलन अकेला ऐसा राजनीतिक आंदोलन है जिसमें मोदी मोह तोड़ने की क्षमता दिखाई पड़ रही है क्योंकि किसान आंदोलन ने मोदी जी की छवि को किसी हद तक गरीब विरोधी रूप दिया है। आज के मोदी 2014 के ‘चाय वाले’ मोदी नहीं रहे। आज मोदी अडानी-अंबानी के मित्र अधिक हैं। कारण यह है कि जनता का पेट भले ही ना खाली हो, उसकी जेब जरूर खाली है। दूसरी ओर, मुठ्ठी भर पूंजीपतियों का खजाना रोज भर रहा है। ऐसे में किसानों की आवाज की गूंज बड़ी है। मोदी जी का शत्रु वध रूप तभी मनमोहक लगेगा जब पेट भरा हो और जेब भी। कुछ हो न हो, इन सात वर्षों में जनता की जेब खाली ही नहीं बल्कि कट भी गई। ऐसे में अंगरक्षक राजनीतिक स्वरूप बहुत कारगार तो होना कठिन है। अर्थात यदि पांच राज्यों के चुनाव आर्थिक मुद्दों पर हो गए तो बीजेपी का ‘मोदी ब्रह्मास्त्र’ कमजोर पड़ सकता है।

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