विचार

आकार पटेल का लेख: स्वच्छता अभियान-2.0 का फोकस कचरा हटाने पर, साफ-सफाई तो पहले चरण में भी पूरी नहीं हुई

प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान के दूसरे चरण की शुरुआत की है। लेकिन क्या पहले चरण का अभियान सफल रहा है। क्या उस अभियान का मूल उद्देश्य पूरा हुआ है। इस बार तो ध्यान ही सिर्फ कचरा हटाने पर है न कि बाल स्वास्थ्य, स्वच्छता और पेयजल आदि पर।

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मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन-2 की शुरुआत की है और प्रधानमंत्री का कहना है कि इसका मकसद देश के शहरों को कचरा मुक्त बनाना है। इसकी घोषणा करते हुए, उन्होंने कहा, “स्वच्छता दूसरे चरण में शहरों में कचरे के पहाड़ों को प्रोसेस करके पूरी तरह से हटा दिया जाएगा। ऐसा ही एक कचरा पहाड़ दिल्ली में लंबे समय से है, इसे भी हटाने का इंतजार है।"

कूड़ा-करकट और गंदगी पर ध्यान केंद्रित करना ही स्वच्छ भारत-2 को स्वच्छता के लिए पहले चलाए जा रहे दो अन्य कार्यक्रमों से अलग करता है। 1999 में, वाजपेयी सरकार ने शौचालय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया था। 2012 में, कार्यक्रम को निर्मल भारत अभियान कहा गया और 2014 में इसका नाम बदलकर स्वच्छ भारत अभियान कर दिया गया। जब प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा की, तो उन्होंने लोगों को शपथ दिलाई, लेकिन इसमें शौचालय का जिक्र नहीं है बल्कि यह कूड़े -कचरे पर केंद्रित है।

2 अक्टूबर 2019 को देश के सभी गांवों को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया। लेकिन कुछ महीने बाद एनएसओ ने पेयजल, स्वच्छता, सफाई और घरेलू स्थितियों पर एक सर्वे जारी किया। इसमें सामने आया कि देश के 28.7 फीसदी गांवों में शौचालय नहीं है। इसके अलावा यह भी बताया गया कि 3.5 फीसदी गांवों में शौचालय तो है लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं।

किसी भी जगह को खुले में शौच से मुक्त तब घोषित किया जाता है जब वहां रहने वालों के पास शौचालय हो, भले ही वह सार्वजनिक हो। कई राज्यों ने मार्च 2018 में अपने गांवों को सौ फीसदी ओडीएफ घोषित किया, छह महीने बाद किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि सा तो नहीं है। एनएसओ ने कहा कि गुजरात में 75.8%, महाराष्ट्र में 78% और राजस्थान में 65.8% ग्रामीण परिवारों के पास किसी न किसी तरह के शौचालय की सुविधा है - चाहे वह व्यक्तिगत हो, सामुदायिक या फिर भुगतान किया जाने वालो हो। लेकिन तीनों राज्यों की सरकार ने तो सौ फीसदी खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया था। मध्य प्रदेश को ओडीएफ घोषित किया गया था, जिसमें केवल 71 फीसदी घरों तक शौचालय की पहुंच थी, जबकि ग्रामीण तमिलनाडु में पहुंच 62.8% थी।

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पहले 2014 में और फिर 2018 में आईजेडए इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि जिन लोगों के पास किसी प्रकार के शौचालय की सुविधा थी, लेकिन फिर भी वे खुले में शौच करते थे, उनकी संख्या 2014 और 2018 के बीच 23% थी। अध्ययन में पाया गया कि जिन राज्यों में सर्वेक्षण किया गया, उनमें से बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के कम से कम 43 प्रतिशत ग्रामीण लोग - - खुले में शौच करते थे।

सर्वे के दौरान जो समस्याएं सामने आईं उनमें से एक थी कि शौचालय तो बन गया, लेकिन उसमें पानी की व्यवस्था नहीं है, जिससे उनका इस्तेमाल नहीं हो सकता। ऐसा संसाधनों के बेमेल कारण हुआ था। 2016-17 में, स्वच्छ भारत अभियान के लिए लगभग 14,000 करोड़ रुपये मिले थे, लेकिन गांवों में पानी के लिए बुनियादी ढांचे को केवल 6,000 करोड़ रुपये मिले। जल संसाधन मंत्रालय का अनुमान है कि एक परिवार को एक दिन में कुल 40 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जिसमें से 15 से 20 लीटर स्वच्छता के लिए होता है। लेकिन एक ऐसे घर में जहां पानी की आमद ठीक-ठाक हो वहां भी पानी सिर्फ 8 से 10 लीटर पानी ही मिलता था, और इसका उपयोग खाना पकाने, पीने और धोने के आदि के लिए किया जाता है। स्वच्छता तो फिर आखिरी नंबर पर ही आएगी। इसके अलावा कई गांवों में तो पाइप से पानी की पहुंच ही नहीं थी।

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आखिर स्वच्छता पर ध्यान क्यों दिया जाना चाहिए था न कि कूड़े-कचरे पर? कारण है कि साफ-सफाई के अभाव का असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। 2019-20 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में कुछ भयानक आंकड़े सामने आए। बच्चों के पोषण स्तर को दर्शाने वाले चार प्रमुख संकेतकों पर राज्यों ने 2015-16 के स्तर की तुलना में 2019-20 में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की। गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, एनीमिक और वेस्टेड (ऊंचाई के लिए कम वजन) बच्चों की हिस्सेदारी 15 साल पहले 2005-06 में दर्ज किए गए स्तरों की तुलना में काफी अधिक थी। इसने प्रगति के उलट होने का संकेत दिया जिसे जीतना कठिन था। यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में भी, जो इन संकेतकों में आगे रहे हैं, 2019-20 में दर्ज किए गए स्तर 2015-16 के आंकड़ों की तुलना में खराब थे।

सर्वे में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के आंकड़े रखे गए। इसके अलावा 10 बड़े शहरों का विश्लेषण भी सामने रखा गया। 2019-20 में सभी 10 राज्यों के बच्चों में एनीमिया के लक्षण अधिक पाए गए। गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट और पश्चिम बंगाल में 2005-06 के मुकाबले 2019-20 में अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार पाए गए।

इसके अलावा लंबाई के हिसाब से कम वजन वाले बच्चों की संख्या भी इन्हीं 10 राज्यों में अधिक पाई गई। असम, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में ऐसे बच्चों की संख्या 2005-06 के मुकाबले 2019-20 में अधिक पाई गई।

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अध्ययन में यह भी सामने आया कि आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में डायरिया के शिकार बच्चों की संख्या अधिक है। बिहार में तो ये संक्य़ा 2015-16 के 10.4 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 13.7 फीसदी पहुंच गई।

2021 में इस कार्यक्रम का नाम बदलकर स्वच्छ भारत 2.0 कर दिया गया है, जो अब शहरों पर ध्यान केंद्रित करते हुए 2026 तक जारी रहेगा। लेकिन अपने वास्तविक उद्देश्य (बच्चों के स्वास्थ्य) को नजरंदाज करते हुए शुरू किया गया पहला चरण 2 अक्टूबर 2019 को ही इसके मूल उद्देश्य को उलट उलट देता है। और अब हम अभियान के दूसरे चरण में चले गए हैं, एक बार फिर से दृश्य और सौंदर्य पहलुओं पर ध्यान दिया जा रहा है और कचरे को हटाने की बातें हो रही हैं, साफ-सफाई और स्वच्छता पर ध्यान है ही कहां।

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