विचार

कोरोना के बाद क्या थम जाएगी हथियारों की दौड़, चिकित्सा और विज्ञान के लिए एकजुट होगी दुनिया?

जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में हमने कुछ देर के लिए कुछ देर के लिए अपने धर्मस्थलों पर जाना मुल्तवी कर दिया और मान लिया कि विज्ञान हमारा रक्षक है, पर यह सुरक्षा पाने के बाद हम फिर से उन्हीं गलियों में लौट आएंगे

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

बीसवीं सदी में पहले विश्व युद्ध के साथ फैली वैश्विक महामारी को दुनिया भूल चुकी थी। ब्यूबोनिक प्लेग और वायरस जन्य कई तरह के फ्लू की परिघटनाओं को हम अतीत की बातें मान चुके थे कि अचानक कोरोना वायरस डिसीज-2019 उर्फ कोविड-19 ने हमें घेर लिया। घूमने-फिरने से लेकर शादी-विवाह की हमारी सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। फिलहाल सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा? एक सवाल मन में आता है कि जिस तरह पहले और दूसरे विश्व युद्धों ने दुनिया को बदल डाला था, क्या कोरोना वायरस भी आने वाले समय की विश्व व्यवस्था को बदलने के लिए आया है? इस बीमारी ने लोगों की जीवन शैली, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और उससे जुड़े विज्ञान को प्रभावित किया है। पर ज्यादा बड़ा असर वैश्विक अर्थनीति पर पड़ने वाला है।

दुनियाभर में महामंदी की आहट है। नौकरियों, कारोबारों, उद्योगों, तकनीकों और रहन-सहन के तरीकों में बड़ा बदलाव देखने को मिलने वाला है। पिछली एक सदी में सबसे बड़ी परिघटना है प्रवासन (माइग्रेशन)। सबसे बड़ा धक्का उसे लगा है। उससे जुड़े परिवहन उद्योगों और सेवाओं को भी झटका लगता नजर आ रहा है। विमानन, परिवहन, पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी का कारोबार कुछ देर के लिए ठहर गया है। बेशक सब कुछ फिर से शुरू होगा, पर बदली हुई शक्ल के साथ।

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बीमारियों ने जोड़ा विश्व को एक सूत्र में

पिछली एक सदी में महामारियों ने तीन क्षेत्रों में दुनिया को एक पेज पर आने का मौका दिया है। ये काम हैं वायरसों को अलग करना, वैक्सीनों का विकास और वैश्विक स्वास्थ्य-डिप्लोमेसी की स्थापना। यह काम अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विकास के समानांतर हुआ है। सौ साल पहले जब स्पेनिश फ्लू के नाम से बड़ी महामारी फैली, तब दुनिया पहले विश्वयुद्ध की परिणति का सामना कर रही थी। बताते हैं कि उस बीमारी से पचास करोड़ से लेकर एक अरब लोग प्रभावित हुए थे। यानी उस वक्त की चौथाई से लेकर आधी आबादी ने उस पीड़ा को झेला था। उसमें दो से पांच करोड़ लोगों की मौत हुई थी।

पहले विश्वयुद्ध के कारण ज्यादातर देशों में खबरों पर सेंसर था, इसलिए मरने वालों की संख्या अनुमानों के सहारे ही रही। बहरहाल उन्हीं दिनों लीग ऑफ नेशंस की स्थापना हो रही थी, जिसमें वैश्विक स्वास्थ्य भी विमर्श का एक विषय बना। उसके तहत 1923 में उससे जुड़ा पहला अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन बना, जिसकी जगह 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ली। लीग ऑफ नेशंस की स्थापना तक फ्लू का टीका भी नहीं बना था, जिसका श्रेय चालीस के दशक में जोनास साल्क और टॉमस फ्रांसिस को जाता है।

दुनिया का काफी बड़ा क्षेत्र उस समय तक औपनिवेशिक बेड़ियों से जकड़ा हुआ था। विकसित देशों के पास उपयुक्त चिकित्सा का अभाव था, तो गरीब देशों के लोगों के पास बीमारी से मरने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। बहरहाल दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक संवाद बढ़ा, आवागमन में वृद्धि हुई और स्वास्थ्य से सम्बद्ध वैश्विक सहयोग और समन्वय भी बढ़ा। संचार के साधनों के विकास ने सामान्य व्यक्ति को स्वास्थ्य से जुड़ी चेतना और ज्ञान दिया। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में वैश्वीकरण की लहर के साथ वैश्विक प्रवासन और पलायन में तेजी आई। इस प्रक्रिया में तकनीकी विकास ने भी मदद की।

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सूचना प्रौद्योगिकी का विकास भारत जैसे देशों के लिए नए संदेश लेकर आया। बोइंग ने 1969 में पहला वाइड बॉडी परिवहन विमान बोइंग-747 तैयार करके हवाई यात्रा को सस्ता बनाया। सन 1995 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के साथ वैश्वीकरण का एक नया दौर शुरू हुआ। इस दौर के अंतर्विरोध अब सामने आ ही रहे थे कि कोविड-19 ने दस्तक देकर दुनिया को एक नया विषय दे दिया है। अब सवाल है कि कोरोना के बाद क्या?

राष्ट्रीय उभारों का दौर

हम इस वक्त दुनियाभर में राष्ट्रीय चेतना का उभार देख रहे हैं। वैश्वीकरण की लहर पीछे जाती नजर आ रही है। जिस वक्त डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका ने मौसम में आ रहे बदलाव से चलने वाली वैश्विक लड़ाई से हाथ खींचा है उसी वक्त बीमारी का एक नया खतरा खड़ा हो गया है। बेशक इनसान इस लड़ाई में जीत हासिल करेगा, पर कुछ सवाल हैं, जिनपर दुनिया को बैठकर विचार करना होगा। पिछले कुछ वर्षों से हम वैश्विक जलवायु, पर्यावरण और दुर्लभ जैविक प्रजातियों के लुप्त होने की प्रक्रिया से जुड़ी खबरें सुन रहे हैं। सन 2018 में संयुक्त राष्ट्र के इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारे पास अभी करीब 12 साल का समय है कि हम दुनिया के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं।

सन 2015 में दुनिया के देशों में इस सिलसिले में पेरिस संधि की थी, जिसे 2020 में लागू करना है। इधर इस समझौते को लागू करने की बातें चल रही हैं, उधर अमेरिका ने खुद को इससे अलग करने का फैसला कर लिया। बहरहाल डोनाल्ड ट्रंप अपनी ‘अमेरिका फर्स्ट नीति’ के तहत मानकर चल रहे हैं कि प्राकृतिक आपदाएं रोकने की जिम्मेदारी अमेरिका की नहीं है। कोरोना वायरस की खबरें आने पर उन्होंने पहले उन्हें नामंजूर कर दिया और फिर घबराकर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।

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नई चुनौतियाँ

अभी तो कोरोना से लड़ाई चल ही रही है। इसका असर बेशक ‘स्पेनिश फ्लू’ जैसा भयानक नहीं होगा, पर इक्कीसवीं सदी की दुनिया के लिए चुनौती भरा जरूर होगा। जब गर्द-गुबार छँट जाएगा, तब सभी देशों को बैठकर विचार करना होगा कि यह क्या हो गया और क्यों हो गया। यकीनन दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में कुछ स्थायी बदलाव होंगे। क्या होंगे और कैसे होंगे पता नहीं। पिछले हफ्ते वैश्विक मामलों की पत्रिका ‘फॉरेन पॉलिसी’ 12 विशेषज्ञों से यही सवाल पूछा कि इस महामारी के बाद क्या उन्हें विश्व-व्यवस्था में कोई बदलाव आने की सम्भावना नजर आती है?

कुछ विशेषज्ञों की राय है कि कोरोना वायरस के प्रकोप से लड़ने के लिए अलग-अलग देशों में राष्ट्रीय भावनाएं प्रबल होंगी, जिन देशों में सत्ता का केंद्रीकरण है, वहाँ इस बीमारी से लड़ने में सफलता मिली है। इससे केंद्रीय सरकारों की ताकत बढ़ेगी। इसके साथ ही पूरब के उभार का संदेश भी मिल रहा है। इस बीमारी से लड़ने में चीन, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को सफलता मिली है। दक्षिण कोरिया ने जितनी तेजी से इस बीमारी की जाँच करने का किट तैयार किया है, वह विलक्षण है। दूसरी तरफ इन देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को लेकर संदेह हैं। चीन ने इस बीमारी का सामना करने में अपनी प्रशासनिक मशीनरी का जिस तरीके से इस्तेमाल किया, उसे लेकर अभी पूरी जानकारी भी नहीं है। इतना जरूर साफ हुआ है कि यूरोप और अमेरिका जैसे देश सुस्त और काहिल साबित हुए। भारत की परीक्षा अभी चल ही रही है।

दुनिया में महामारी पहली बार नहीं फैली है। यह आदिकाल से चली आ रही है। अतीत की कम से कम 20 बड़ी महामारियों का ऐतिहासिक विवरण विशेषज्ञों के पास है। इस महामारी के पहले पिछले 100 साल में कम से कम चार बड़ी महामारियों का सामना दुनिया कर चुकी है। ये हैं स्पेनिश फ्लू (1918), एशियन फ्लू (1957), हांगकांग फ्लू (1968) और स्वाइन फ्लू (2009)। इन महामारियों के दो तरह के परिणाम अतीत में हुए हैं।

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हम होंगे कितने कामयाब?

एक तरफ बीमारियों से लड़ने के तरीकों की सर्वमान्य वैश्विक रणनीतियाँ बनी और बन रही हैं, डब्लूएचओ जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ ज्यादा सक्रिय हो रही हैं, चिकित्सा विशेषज्ञों का समन्वय बढ़ रहा है। यह समन्वय और बढ़ेगा, क्योंकि जब अस्तित्व का सवाल पैदा होता है, तो हम एक-दूसरे की फिक्र करते हैं और फिर अपने-अपने सुख-दुख पर वापस लौट जाते हैं। इस समन्वय के सहयोग के बावजूद बड़ी ताकतों की प्रतिद्वंदिता कम नहीं होगी। कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई के समानांतर विशेषज्ञों के बीच इस बात पर भी बहस छिड़ी है कि चीन के व्यापारिक रिश्ते दुनिया से बिगड़ेंगे, तो विकल्प क्या होगा?

लगता है कि दुनिया पूरी तरह खुलने को, समृद्धि की राहों पर बढ़ने को, भाईचारा बढ़ाने और रंजिशें दूर करने को अब भी तैयार नहीं होगी। दूसरे शब्दों में वैक्सीन और दवाओं के बजाय विश्व समुदाय हथियारों और टकराव बढ़ाने वाले उपकरणों पर पैसा खर्च करता रहेगा। जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में हमने कुछ देर के लिए कुछ देर के लिए अपने धर्मस्थलों पर जाना मुल्तवी कर दिया और मान लिया कि विज्ञान हमारा रक्षक है, पर यह सुरक्षा पाने के बाद हम फिर से उन्हीं गलियों में लौट आएंगे

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