बीते दिनों एक प्रेस वार्ता हुई। दुनिया भर से महिला आंदोलन की स्वीकृति का पचहत्तरवां साल मनाया जा रहा है। लेकिन महिला पत्रकार विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित अफगानिस्तान के मंत्री की वार्ता में नदारद रहीं। क्या संबंधों को घनिष्ठ करने की गरज इतनी भारी है कि हम अपने ही संविधान और संविधान प्रदत्त समता को नजरअंदाज करने पर आमादा हैं?
इस घटना से कई सवाल उठते हैं। कुछ संकेत हिला देने वाले हैं। पिछले कुछ समय से हमारे हुक्मरान की तमाम देशों की यात्रा, राष्ट्रनायकों से झप्पी के बाद भी जिस तरह पहली बार भारत वैश्विक सामरिक तन्हाई झेल रहा है, क्या यह वार्ता उसकी प्रतिकृति नहीं? हमारे साथ टैरिफ युद्ध छेड़ने वाले, एच1-बी वीजा की राशि बढ़ाने वाले ट्रंप सरकार का गाजा में सतही समझौते की पेशकश करना, इतना प्रभावित कर गया कि हमारे हुक्मरान बारंबार तारीफ के पुल बांधते रहे। दूसरी तरफ, चीन से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं, घुसपैठ पर चर्चा तो बहुत दूर है। तब भी यह उम्मीद तो नहीं थी कि अफगानिस्तान जैसे मुल्क की तालिबानी सरकार को हमारे हुक्मरान इस हद तक जाकर खुश करना चाहेंगे।
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भले ही आलोचनाओं के चलते आनन फानन में एक अन्य वार्ता महिला पत्रकारों के साथ फिर आयोजित हुई। मगर यह भारत की बेबसी का बेशर्म प्रदर्शन बहुत पीड़ादायक था। इस वार्ता ने एक और पहलू को भी उजागर किया। महिला पत्रकार की अनुपस्थिति किसी को आयोजन के दौरान नहीं खली। पुरुष पत्रकार खुशी से शामिल होने चले गए। तो क्या लैंगिक समता, न्याय मात्र स्त्रियों का मुद्दा है? यह क्या अपने आप में पितृसत्तात्मक सोच नहीं कि स्त्री के लिए, बस वही खड़ी रहे। हरेक को खांकों, भूमिकाओं में बांटना निःसंदेह पितृसत्तात्मकता की परिणति है। क्या तमाम पुरुष पत्रकारों को बहिष्कार नहीं करना चाहिए था। जैसा कि पूर्व गृह मंत्री ने भी बयान में कहा।
यदि महिलाओं के प्रति यह भेद दिखाई तक नहीं दिया, तो क्या यह मान लेना चाहिए कि पिछले दशक का उन्मुखीकरण ऐसा हो चला है कि अब भेदभाव दिखाई नहीं पड़ता। वह नव-सामान्य है, अपवाद नहीं। यदि राष्ट्रीय राजधानी के सरकारी प्रेस वार्ता में यह सहजता से हो गया, तब सुदूर इलाकों का क्या होगा? सोचना कठिन नहीं है।
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याद दिलाने का मन करता है कि वह फूले, बाबा साहेब, पेरियार, गांधी, राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे अनगिनत ही थे, जिन्होंने इस भेद को अस्वीकार करना शुरू किया। महिलाएं तो बाद में आगे आईं। ऐसे में लैंगिक अल्पसंख्यकों को न्याय की उम्मीद तक नहीं करनी चाहिए। एक पल की असजगता कैसे किसी समूह को अदृश्य कर सकती है! मानस से और मानसिकता से शून्य बना सकती है।
क्या यही वह मानसिकता नहीं, जहां महिलाएं मात्र बाल विकास मंत्रालय संभालती हैं। जहां वही स्त्रीवादी मूल्यों पर बोलती हैं। तो क्या लैंगिक न्याय पूरे समाज का मुद्दा नही़ं? जैसे कि सामाजिक न्याय पूरे समाज के लिए जरूरी हैं, क्या इस घटना ने यह नहीं दर्शाया कि महिला हक असल में हक नहीं, पुरुष प्रधानता की मेहरबानी है। वे चाहें तो मिलेगी, अन्यथा नहीं।
इस घटना से एक और बात स्पष्ट हुई। कैसे विचार व्यवस्था अभ्यास को पोषित करती है। हाल में शतक पूरा किए संगठन की विचार व्यवस्था 2014 से सरकार में है। वह संगठन स्त्रीमुक्त होने पर गौरवान्वित है। स्त्री को माया, शाब्दिक अर्थ से समझें तो "त्रिया चरित" कहा जाता है। माने उसके पास मात्र शरीर है। कोई मनीषा नहीं। सो उसका स्थान तय है।
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मानव सभ्यता के विकास पर दृष्टि डालें, तो कुछ और तथ्य सामने आते हैं। कृषि विकास के क्रमिक दौर में क्षेत्र (खेत) की मालिकी तय होने लगी। जीवन स्थापित बसाहट की ओर बढ़ा। तब स्त्री भी पुरुष का "क्षेत्र" मानी गई। उसकी कोख पर हक तय पुरुष का होने लगा। यह पितृसत्ता की शुरुआत थी। उस दौर की कहानियों में किसी पति की मृत्यु होने पर या उसके पुंसत्व हीन होने पर पत्नी नियुक्त पुरुष के साथ संतानोत्पत्ति कर सकती थी। ऐसे संतान क्षेत्रज कहलाते। धीरे-धीरे यह प्रथा खत्म हुई। पितृसत्ता और भी प्रगाढ़ हुई।
शतक पूरा किए संगठन ने आदर्श स्त्री को परिभाषित किया है। आज्ञाकारी, पतिव्रता आदि उसके गुण हैं। सबसे अहम् बात यह है कि वह अपना जीवनसाथी नहीं चुन सकती। लव जिहाद, अंतरजातीय विवाह पर सम्मान, हत्या असल में स्त्री हक पर हमला है। यौन संबंधों में उसकी रजामंदी कोई मायने नहीं रखती। दांपत्य में तो कतई नहीं। वह पत्नी धर्म माना गया है। सो वैवाहिक बलात्कार की तो बात ही नहीं हो सकती। गौरतलब है कि जिनकी पत्रकार वार्ता थी, उनकी विचार व्यवस्था से इनको परहेज नहीं हो सकता।
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अफगानिस्तान की इसी सरकार ने स्त्री शिक्षा, खेलकूद में भागीदारी, चिकित्सा सेवा में आगे आना, अन्य कामकाजी पेशे अपनाने पर पाबंदी लगाई है। मलाला को याद करने पर भी, यह ध्यान रहे कि एक का छूट जाना चक्रव्यूह के ध्वंस होने का सानी नहीं है। दिल्ली में जो हुआ, वह हमख्यालों का ही करार है। बामियान उनको नहीं भाया। मगर यहां हुक्मरान भी तो मर्जी का इतिहास, विरासत लेखन करना चाहते हैं। बहुत कुछ कलम से तोड़ना- मरोड़ना चाहते हैं।
व्यवस्थाएं अभ्यास को आदत में तब्दील करने का माद्दा रखती हैं। अभ्यास सचेत होता है, आदतें अवचेतन होती हैं। गुलामी को पोषित करती व्यवस्था में अभ्यास लकवाग्रस्त हो जाता है। गुलामी की आदत पड़ जाती है। यहां तक कि उदारता की ओर झुके व्यक्ति, संस्थाएं भी बिना सोचे गुलामी को सुविधानुसार ओढ़ लेती हैं। तभी सबरीमला हो या हाजी अली, महिला प्रवेश पर तथाकथित उदारपंथी भी कट्टरता के साथ कंधा मिला लेते हैं। यह व्यवस्था को दर्शाती है।
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यह भी विचारणीय है कि पड़ोसी मुल्क को, जहां से सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है, उससे गुरेज है। निःसंदेह होना चाहिए। बशर्ते कि वहां के मासूम आवाम के प्रति हृदय में कोई मलिनता न हो। मगर क्या वैचारिक तौर पर अभिव्यक्ति और आजादी पर पाबंदी लगाने वाली व्यवस्था तहजीबी आतंक का स्वरूप नहीं? उससे जब हथ मिलाया जाता है, तब वह हमें अपने आप के बारे में कुछ बताता है।
ऐसे में बार-बार यह याद रखना चाहिए कि हमारी विरासत उदारवादी है। प्रभुत्व संपन्न वर्ग के एक लघु कट्टर समूह की मनमानी, पाबंदी को थोपना हमें भी उस दिशा में ले जाने की कोशिश है। जहां आजादी ज़हन में नहीं रही, वहां कोई आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता। कुछ दिनों पूर्व सोशल मीड़िया पर व्यंग्य चलवाया गया कि उस देश में गांधी और चरखा भेजकर देखो। पर याद रहे गांधी, नमक, चरखे ने हमें डर से आजाद किया। निडरता के बिना निर्मलता नहीं आ सकती। इन दोनों के बिना लोकतंत्र कायम नहीं रह सकता। कुछ विचार व्यवस्थाएं डर को पोषित करती हैं, ताकि निडरता और निर्मलता खत्म हो जाए। ऐसी व्यवस्थाओं का मिलन कुछ दर्शाता है। बात सिर्फ महिलाओं की नहीं है।
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