बंगाली साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और बहुआयामी लेखकों में से एक, सुनील गंगोपाध्याय ने बंगाली साहित्य की दुनिया में बतौर कवि प्रवेश किया था। 1953 में उन्होंने कृत्तिबास नाम की पत्रिका की शुरुआत की, जो बाद में युवा कवियों के लिए एक मंच बन गई। इसके बाद 1965 में उन्होंने पहला उपन्यास 'आत्मप्रकाश' लिखा, लेकिन कवि से उपन्यासकार बनने का अनुभव उनके लिए डरावना था।
1965 में प्रकाशित इस उपन्यास की लेखन शैली की उस समय इतनी आलोचना हुई कि लोगों के गुस्से से बचने के लिए सुनील गंगोपाध्याय को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) से कुछ दिनों के लिए दूर जाना पड़ा था।
दरअसल यह कहानी पूर्वी पाकिस्तान के एक युवक सुनील की है, जो कोलकाता की अंधेरी गलियों में खुद की पहचान तलाशता है। इसमें सुनील गंगोपाध्याय ने बचपन, विस्थापन, मानवीय संबंध, खोई हुई यादों और शहर में उठती अस्थिरताओं को समाहित किया।
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बोहेमियन जीवन पर आधारित यह उपन्यास तत्कालीन बंगाली उपन्यासों से बिलकुल अलग था, जो तत्कालीन रूढ़िवादी आलोचकों को रास नहीं आया। उन्होंने इसे आक्रामक और उत्तेजक शैली वाला माना। बोहेमियन एक ऐसी जीवनशैली होती है जो पारंपरिक सामाजिक नियमों, सीमाओं और जिम्मेदारियों से थोड़ी हटकर होती है। ऐसा जीवन नियमों और बंधनों से मुक्त, खोजपूर्ण, कलात्मक और स्वतंत्र होता है।
अपने पहले उपन्यास की लेखन शैली की वजह से सुनील गंगोपाध्याय को काफी विरोध का सामना करना पड़ा, जिसके बाद उन्होंने कुछ समय के लिए कलकत्ता छोड़ दिया था।
एक बार की बात है कि फिल्म डायरेक्टर रितुपर्णो घोष के साथ बातचीत में सुनील गंगोपाध्याय ने बताया था कि शादी से पहले उनके बहनोई ने उनका 'आत्मप्रकाश' उपन्यास पढ़ा तो उनके मन में विचार आया कि वह (सुनील गंगोपाध्याय) उनकी बहन के लिए परफेक्ट मैच नहीं है। हालांकि बाद में उसी घर में उनका रिश्ता जुड़ गया।
हालांकि 'आत्मप्रकाश' ने उन्हें बंगाली साहित्य में प्रभावशाली उपन्यासकार के रूप में स्थापित करने में मदद की और बतौर कहानीकार उनका यह सफर चल पड़ा। उन्होंने कई बेस्टसेलिंग उपन्यास लिखे।
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अब जान लेते हैं कि सुनील गंगोपाध्याय के इस सफर की शुरुआत कैसे हुई थी। सुनील गंगोपाध्याय का जन्म ब्रिटिश भारत में 7 सितंबर 1934 को मदारीपुर, पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में एक बंगाली परिवार में हुआ था। कम उम्र में ही वह कलकत्ता आ गए।
1954 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने बंगाली में पोस्ट ग्रेजुएशन की। 'आत्मप्रकाश' के बाद सुनील गंगोपाध्याय ने एक ऐतिहासिक उपन्यास सेई सोमॉय लिखा। यह वह समय था जब बंगाल में पुनर्जागरण चल रहा था।
सेई सोमॉय में 19वीं सदी के बंगाल की झलक दिखती है। सुनील गंगोपाध्याय को 1985 में इसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
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1970 में सत्यजीत रे के डायरेक्शन में फिल्म 'अरण्येर दिन रात्रि' आई, जिसकी कहानी सुनील गंगोपाध्याय के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी। यह चार दोस्तों की कहानी है, जो कोलकाता की व्यस्त जिंदगी से ऊबकर बिहार के जंगलों में छुट्टियां मनाने निकलते हैं। जैसे-जैसे वे प्रकृति के करीब आते हैं, उनके भीतर छिपे संवेदनात्मक, सामाजिक और नैतिक पहलू बाहर आने लगते हैं।
साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय ने पाठकों के लिए जासूसी किरदार "काकाबाबू" भी गढ़ा। इस सीरीज पर कई बंगाली फिल्में और टीवी शो बने। काकाबाबू एक अपाहिज इतिहासकार हैं और सीरीज की हर कहानी में कोई रहस्य, ऐतिहासिक खोज या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मिशन होता है।
यह पात्र न सिर्फ बच्चों बल्कि बड़ों में भी उतना ही लोकप्रिय है जितना टिनटिन और शेरलॉक होम्स। "काकाबाबू" का हर मिशन रोमांच पैदा करने के लिए काफी है।
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सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेबाक बोलने के लिए फेमस सुनील गंगोपाध्याय ने अपनी लेखनी के जरिए परंपरागत सोच का विरोध किया और 200 से ज्यादा किताबें लिखीं। 23 अक्टूबर 2012 को दक्षिण कोलकाता स्थित आवास पर हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि सुनील गंगोपाध्याय अपने समकालीनों में सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में से एक थे। उनके निधन से उत्पन्न शून्य को कभी नहीं भरा जा सकता।
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