राजनीति

बीजेपी से दलित वोटरों का मोहभंग, समुदाय मायावती से निराश, नए नेतृत्व का हो रहा उभार

मोदी के हिंदुत्व में न राष्ट्रवाद है, न रोजी-रोटी, न आजादी, न लोकतांत्रिक अधिकार हैं, फिर भी नेताओं के स्वार्थ इससे सिद्ध हो रहे हैं। जब दलित पार्टी और दलित राजनीति का शिगूफा नहीं था, तब जगजीवन राम, बूटा सिंह को पूरा दलित समाज अपने नेता के तौर पर देखता था।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

मंडल कमीशन से उभरी चेतना को अयोध्या आंदोलन के जरिये कमजोर करने की हरसंभव कोशिश की गई। बीजेपी को इसका फायदा तो मिला लेकिन वह इस तरह मजबूत नहीं हो पाई कि केंद्र की सत्ता तक पहुंच जाए। समाजवादियों के एक वर्ग को उसने लुभाया, तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन सके। नरेंद्र मोदी जब राष्ट्रीय पटल पर आए, तब से दलित वोट बैंक छितरा गया है। उसे एकजुट करने की कोशिशें हो तो रही हैं, लेकिन नेताओं के छोटे-छोटे स्वार्थ इसमें बाधक बन रहे हैं।

अब तो साफ लगने लगा है कि बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती बीजेपी के सामने सरेंडर ही कर चुकी हैं। यह तो बिल्कुल साफ है कि बीजेपी ने येन-केन-प्रकारेण उन पर दबाव बना रखा है लेकिन इस स्थिति के लिए मायावती खुद अधिक जिम्मेवार हैं। कांशीराम ने अपनी संगठनात्मक क्षमता के बल पर वृहत्तर दलित समाज को जोड़े रखा था, लेकिन वह सीन से जैसे-जैसे गायब होते गए, मायावती ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। इसका पार्टी से अधिक घाटा पूरे दलित समाज को हुआ और उसके पास बीजेपी में जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहा।

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर, लोकसभा चुनाव में बीएसपी के हाशिये पर चले जाने की वजह यही रही। इसके संभालने के मायावती के पास हाल में भी कई मौके थे, पर वह आगे आईं ही नहीं। हाथरस में दलित बेटी से रेप मामले के विरोध में बीजेपी-विरोधी सभी दल सक्रिय रहे, पर बीएसपी और मायावती कहीं नहीं दिखीं। कोरोना की दोनों लहरों में लगे लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा दलितों को ही झेलना पड़ा, लेकिन बीएसपी कहीं फ्रंटफुट पर नहीं दिख रही। इसका असर आगामी यूपी विधानसभा में तो दिखेगा ही।

दलित वोट बैंक बिखरते जाने की वजह पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता उदित राज इस तरह बताते हैं: ‘कांशीराम से लेकर मायावती तक ने ऐसे लोगों को इकट्ठा किया जो अपनी जाति के लोगों को इकट्ठा कर सकते थे- राजभर ने अपनी जाति को, तो चौहान ने अपनी, कुर्मी ने अपनी, जाटव ने अपनी और कोरी ने अपनी जाति को इकट्ठा किया। जब बीएसपी में इन नेताओं को सम्मान नहीं मिलने लगा या उनका अपमान होने लगा, तो उन्हें यह रास्ता समझ में आया कि अपनी जाति इकट्ठा कर अपने बल पर एमएलए, एमपी बन जाओ।'

उदित राज आगे कहते हैं, 'इससे व्यक्ति का तो भला हो गया, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, शासन-प्रशासन में भागीदारी और संसाधनों में हिस्सेदारी आदि के मुद्दे खत्म हो गए। मोदी के हिंदुत्व में न राष्ट्रवाद है, न रोजी-रोटी-आजादी-डेमोक्रेटिक राइट्स हैं, फिर भी नेताओं के स्वार्थ इससे सिद्ध हो रहे हैं। जब दलित पार्टी और दलित राजनीति का शगूफा नहीं था, तब जगजीवन राम, बूटा सिंह को पूरा दलित समाज अपने नेता के तौर पर देखता था।'

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अब बातें समझ में आ रही

बीएसपी सांसद रहे लालमणि प्रसाद कहते हैं कि इन स्थितियों में दलित समाज में काफी उथल-पुथल है। कांशीराम के निधन के बाद दलितों को सत्ता में अपेक्षित भागीदारी नहीं मिल पाई, इसलिए बीएसपी बिखरती चली गई और कुछ समाजवादी पार्टी में चले गए, कुछ कांग्रेस में तो कुछ बीजेपी में गए। नई टेक्नोलॉजी आने के बाद दलित भी सूचनाओं से संपन्न हो रहे हैं और उनमें ज्यादा जागतिृ आई है। इसका असर तो होगा।

यही बात दलित विचारक चंद्रभान प्रसाद दूसरे ढंग से कहते हैं। उनका मानना है कि बीएसपी को मिलने वाले वोट प्रतिशत से समझा जा सकता है कि मायावती का जनाधार अब भी बरकरार है। इसके साथ ही दलितों में हिंदुत्व के प्रभाव को हराने की तरफ भी जा रही है। वह कहते हैं कि दलित मिड्ल क्लास में बीजेपी को किसी भी तरह हराने की सोच बनने लगी है। दलित नवयुवक भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर रावण की तरफ आकर्षित हैं। वे भी बीजेपी के खिलाफ हैं। यह मानना अभी जल्दबाजी होगी कि चंद्रशेखर की पार्टी तुरत-फुरत बड़ी हो जाएगी, पर यह तो कहा जा सकता है कि वह आने वाले वर्षों में बीएसपी को रिप्लेस कर लेगी।

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दलितों के सवालों पर काम करने वाले पत्रकार अनिल चमड़िया का भी मानना है कि फिलहाल भले लग रहा हो कि दलित राजनीति कमजोर हो रही है, लेकिन भविष्य दलित और पिछड़ों का ही है। पहली बात तो यह कि जो दलित पार्टियां हैं या कही जाती हैं, वह कमजोर होती रही हैं। इतिहास तो यही बताता है। फिर भी उसको लंबे समय तक नहीं रोका जा सकता। वैसे, इसमें तो शक नहीं कि दलित वोटों पर कब्जे को लेकर क्षत्रपों को पावर देकर बीजेपी ने बीएसपी के खेल को बिगाड़ा है।

गोरखपुर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. हर्ष कुमार सिन्हा कहते भी हैं कि ‘वर्ष 2014 में बीजेपी के नए सियासी पैतरों से सभी राजनीतिक दलों को खुद को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ा है। बीएसपी 2014 के बाद कोई स्टैंड नहीं बना सकी है। न तो वह बीजेपी के करीब हो सकी, न ही विपक्ष की भूमिका में दिख सकी। ऐसे में बीएसपी में निष्ठा रखने वाले वोटर भ्रमित हुए हैं।’ प्रो. सिन्हा कहते हैं कि ‘मायावती अतिरेकी राजनीति का प्रतीक हैं। जहां अन्य दल किसी व्यक्ति का कद बढ़ाते या घटाते हैं, वहीं बीएसपी में या तो आप हैं या नहीं। ऐसे में कभी निष्ठावान रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्या और रामवीर उपाध्याय सरीखे नेता अलग होते गए। लोगों को लगा जब पैसा देकर ही टिकट मिलना है तो निष्ठा का क्या मतलब।’

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कभी बीएसपी के गोरखपुर जोनल कोऑर्डिनेटर रहे श्रवण कुमार निराला का मानना है कि ‘बीएसपी दलितों के मुद्दे पर वर्ष 2007 में यूपी में सत्ता हासिल करने के बाद से ही भटक गई थी। पार्टी में मायावती की तानाशाही भी दिनोंदिन बढ़ती ही चली गई।’

इसे दलित युवा साहित्यकार अमित कुमार सिलसिलेवार ढंग से कहते हैं: ‘पिछले एक दशक में बीएसपी के जनाधार में कमी के चार प्रमुख कारण नजर आते हैं- पहला, मूल सिद्धांतों को छोड़ना; दूसरा, मायावती की स्पष्टवादिता में क्षरण; तीसरा, कैडर वाले नेताओं को निकालना या उनका निकल जाना; और चौथा, दलित और पिछड़ों के मुद्दों पर चुप्पी साधना।’

गोरखपुर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. हर्ष कुमार सिन्हा तो मानते हैं कि ‘बीएसपी क्रेडिट कार्ड सरीखी पार्टी रही है। जब तक उसके क्रेडिट कार्ड में वोट ट्रांसफर की क्षमता थी, तब तक मायावती ने इसे खूब भुनाया। लेकिन उसकी नीतियों के चलते क्रेडिट कार्ड की वैल्यू कम हुई तो पार्टी में भगदड़ है।’

(साथ में लखनऊ से के. संतोष)

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