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मोदी की जीत जाति-धर्म की राजनीति से परे नहीं, प्रचंड विजय बीजेपी की जातीय-सांप्रदायिक रणनीति का परिणाम

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि इसने हर राज्य में अलग रणनीति अपनाई। हर जगह उसने टिकट देकर अपनी तरफ झुकी जातियों और समुदायों का अपनी राजनीति में समावेशन किया और समाज के जो हिस्से उसके साथ नहीं थे, उनका बहिर्वेशन किया।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछले सत्तर साल में सेकुलरीकरण और आधुनिकीकरण भले ही जाति-धर्म को खत्म न कर पाया हो, लेकिन कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की 2019 में जीत ने यह असंभव सा लगने वाला लक्ष्य हासिल कर लिया है। लगभग सभी मीडिया मंचों पर यह विश्लेषण परोसा जा रहा है कि यह चुनाव-परिणाम जाति और धर्म के ऊपर देशहित या राष्ट्रहित की जीत है। क्या वास्तव में जाति की राजनीति अब खत्म हो गई है या खात्मे की तरफ है?

मोदी की इस जीत के इर्द-गिर्द गढ़े जा रहे इस मिथ की पड़ताल करना जरूरी है, क्योंकि अगर मोदी ने वास्तव में यह सामाजिक-राजनीतिक कारनामा कर दिखाया है, तो फिर उन्हें इक्कीसवीं सदी की महानतम हस्ती के रूप में प्रतिष्ठित करने में उनके आलोचकों को भी कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर इस दावे की सच्चाई कुछ और है तो उसे प्रकाश में लाना भी बहुत जरूरी है। मेरे विचार से इसे देखने के लिए एक भिन्न परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता होगी।

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यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि इतना बड़ा चुनाव जीतने वाली पार्टी को आम तौर से समाज के हर तबके के कुछ न कुछ वोट मिलते हुए दिखते हैं। मसलन, बीजेपी की मुसलमान विरोधी छवि के बावजूद उसे 2014 में और फिर इस वर्ष भी आठ फीसदी के आसपास मुस्लिम वोट मिले हैं। इनमें से ज्यादातर शिया और बरेलवी संप्रदाय के वोट हैं, जो मुसलमान राजनीति की सुन्नी मुख्यधारा के मुकाबले सताया हुआ महसूस करते हैं। इसलिए नतीजों की प्रकृति की जांच करने के लिए जरूरी यह है कि बीजेपी की रणनीतिक प्रवृत्तियों को परखा जाए। क्या विजेता पार्टी बीजेपी ने अपनी चुनावी रणनीति में जाति-धर्म का सहारा नहीं लिया?

अगर जीत के भव्य आंकड़ों को थोड़ा अलग रखकर देखा जाए तो पहली नजर में ही स्पष्ट हो जाता है कि बीजेपी ने अलग-अलग राज्यों में विभिन्न रणनीतियां आजमाईं। हर जगह उसने अपनी तरफ झुकी जातियों और समुदायों का अपनी राजनीति में टिकट वितरण के जरिये समावेशन किया, और समाज के जो हिस्से उसके साथ नहीं थे, उनका बहिर्वेशन किया गया।

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हरियाणा में बीजेपी खुले तौर पर जाट-विरोधी और गैरजाटों की पार्टी बनकर उभरी है; महाराष्ट्र में उसने कई जगहों पर मराठा विरोधी चुनावी गोलबंदी की और कर्नाटक में वह मुख्य तौर पर लिंगायतों की पार्टी के तौर पर चुनाव लड़ी। उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने यादव-जाटव-मुसलमान के त्रिकोण को न केवल अपनी चुनावी राजनीति से दूर रखा, बल्कि इन तीनों समुदायों के विरोध के आधार पर उसने अपने समर्थन की मुहिम चलाई। बिहार में बीजेपी ने यादवों का बहिर्वेशन किया, और मुसलमानों का नीतिश कुमार के जरिये (जैसे सीमांचल के टिकट जेडी (यू) को देना) समावेशन करने में कामयाबी हासिल की।

अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी शोध केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक, यूपी में बीजेपी ने अपने 45 फीसदी से ज्यादा टिकट ऊंची जाति के उम्मीदवारों को दिए, क्योंकि बीजेपी जानती है कि ये जातियां उसकी सर्वाधिक निष्ठावान समर्थक हैं। पार्टी हारे-जीते, ये जातियां चुनाव-दर-चुनाव बीजेपी को साठ फीसदी के आसपास वोट करती रही हैं। इसमें भी बीजेपी ने स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों को 15 टिकट दिए और 13 ठाकुरों को उम्मीदवार बनाया। बीजेपी ने केवल एक यादव को टिकट दिया क्योंकि उसे पता था कि यह समुदाय इस बार समाजवादी पार्टी को जमकर समर्थन देगा।

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चूंकि बीजेपी को पता था कि गैर-यादव पिछड़ी जातियां उसके पक्ष में वोट करती रही हैं, इसलिए उसने दस पिछड़ी जातियों के बीच में 19 टिकट बांटे। इसी तरह बीएसपी के समर्थक समझे जाने वाले जाटवों को बीजेपी ने केवल चार टिकट दिए और बाकी 17 टिकट गैर-जाटव दलित जातियों में वितरित किए। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, यूपी में मुसलमानों की आबादी बीस फीसदी के लगभग है। लेकिन बीजेपी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। अगर मोटे तौर पर मान लिया जाए कि यूपी में दस फीसदी यादव हैं, दस फीसदी जाटव हैं और बीस फीसदी मुसलमान हैं, तो प्रदेश की इस चालीस फीसदी जनता को बीजेपी ने अपनी चुनावी रणनीति से तकरीबन बहिष्कृत रखा।

यह विश्लेषण बीजेपी के ऊपर कोई आरोप नहीं है। उसे भी अपनी चुनावी रणनीति बनाने का पूरा हक है। आखिरकार समाजवादी पार्टी ने अपने आधे टिकट केवल यादव उम्मीदवारों को देना ही पसंद किए। मायावती ने भी सबसे ज्यादा टिकट जाटवों को दिए, हालांकि यह कहना होगा कि बीएसपी ने समाज के अन्य तबकों का भी ध्यान रखा और उसका टिकट वितरण सामाजिक दृष्टि से सर्वाधिक प्रातिनिधिक प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि बीएसपी को इसका लाभ भी मिला। उसके जीते हुए उम्मीदवारों में ब्राह्मण, ठाकुर, अन्य ऊंची जातियों, यादवों, अन्य पिछड़ी जातियों, जाटवों और मुसलमानों की मिली-जुली संख्या दिखाई पड़ती है। इसीलिए उसे एसपी के मुकाबले वोट भी ज्यादा मिले।

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अगर ठोस रूप से देखें तो इस कथन में जाति का मतलब है कुछ ऐसी पिछड़ी और दलित जातियां (जैसे यादव और जाटव) जिन्होंने अब तक भाजपाई राजनीति की अधीनता स्वीकार नहीं की है, और धर्म का मतलब है मुख्य रूप से मुसलमानों की बीजेपी विरोधी राजनीतिक गोलबंदी। यह तथ्यात्मक रूप से सही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में इन जातियों और मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाले राजनीतिक दलों की जबरदस्त हार हुई है। अगर आपस में उनके वोटों को जोड़ भी दिया जाए (उत्तर प्रदेश में महागठबंधन के जरिये ऐसी कोशिश भी की गई) तो भी बीजेपी को उससे ज्यादा वोट मिलते नजर आते हैं।

अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी- जैसे नेताओं की पिछले पांच साल में यह लगातार तीसरी हार है, और बिहार के राष्ट्रीय जनता दल को दूसरी हार का सामना करना पड़ा है। चूंकि ये सभी पर्टियां मुख्य रूप से किसी-न-किसी एक जाति और उसके साथ मुसलमानों के समर्थन के आधार पर टिकी हुई हैं, इसलिए इनकी पराजय को जाति-धर्म की पराजय के रूप में दिखाया जा रहा है। आंकड़ों के लिहाज से ठीक होने के बावजूद यह दावा कुछ और जांच-पड़ताल की मांग करता है।

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स्पष्ट रूप से उत्तर भारत में बीजेपी ऊंची जातियों, गैर-यादव पिछड़ों और गैरजाटव दलितों की पार्टी के तौर पर उभरी है। यह आधे से अधिक हिंदू समाज की बीजेपी समर्थक हिंदू एकता का नजारा है। इस हिंदू एकता का एक मकसद है सामाजिक न्याय की तथाकथित ब्राह्मण विरोधी राजनीति को हाशिये पर धकेल देना और दूसरा मकसद है मुसलमान वोटों के प्रभाव को समाप्त कर देना। पिछले पांच साल से उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता निष्ठापूर्वक बीजेपी विरोधी मतदान करने के बावजूद चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव डालने में नाकाम रहे हैं।

लोकतंत्र बहुमत का खेल है, और देश में हिंदुओं का विशाल बहुमत है। मुसलमान वोटर किसी बड़े हिंदू समुदाय के साथ जुड़कर ही चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता आम तौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों को समर्थन देते रहे हैं। बाकी जगहों पर वे कांग्रेस के निष्ठावान वोटर हैं। दिक्कत यह है कि कथित रूप से सेकुलर राजनीति करने वाली इन पार्टियों को हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने त्याग दिया है। हिंदू राजनीतिक एकता के तहत 42 से 50 फीसदी के आसपास हिंदू वोट एक जगह जमा हो जाते हैं। 2017 के यूपी चुनाव में भी यही हुआ था, और इस चुनाव में भी यही हुआ है।

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इस बड़ी हिंदू गोलबंदी से पैदा हुए डर के कारण गैर-बीजेपी पार्टियों ने मुसलमान वोटरों को अहमियत देना भी बंद कर दिया है। ध्यान रहे कि 2014 से पहले यही दल मुसलमान वोटरों को अपनी चुनावी रणनीति में अग्रिम भूमिका देते थे जिसके प्रतिक्रियास्वरूप बीजेपी हिंदू बहुसंख्य का अपने पक्ष में गोलबंदी कर लेती थी।

इस हिंदू गोलबंदी में नया पहलू अति-पिछड़ी और अति-दलित जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली छोटी और नामालूम किस्म के संगठनों के समर्थन का है। ऐसी करीब चालीस पिछड़ी और करीब तीस दलित जातियां 2014 से ही धीरे-धीरे बीजेपी की तरफ झुकती जा रही हैं। ये जातियां महसूस करती हैं कि अम्बेडकरवादी और लोहियावादी राजनीति से उन्हें कुछ भी नहीं मिला है। न तो उन्हें आरक्षण के लाभ मिले हैं, और न ही प्रतिनिधित्व में हिस्सा। बीजेपी उन्हें राजनीति के मैदान में उचित मौका देने का आश्वासन देती है और वे फिलहाल इस पर भरोसा भी कर रहे हैं।

अगर इलेक्टोरल इम्पैक्ट फैक्टर (ईआईएफ) के इंडेक्स पर नजर डाली जाए तो साफ हो जाता है कि उत्तर भारत में जैसे ही चुनावी होड़ में आज तक अदृश्य रहे जातिगत समुदाय ऊंची जातियों और लोधी-काछी-जैसे गैर-यादव पिछड़े मतों के साथ जुड़ते हैं, वैसे ही यह इम्पैक्ट फैक्टर बीजेपी के पक्ष में झुक जाता है, और मुसलमान वोटों के लिए इसका नतीजा शून्य में बदल जाता है।

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हिंदुत्ववादी शक्तियां ठीक यही तो चाहती थीं कि वे इतने हिंदू वोट गोलबंद कर लें कि मुसलमान मतदाताओं की बीजेपी विरोधी वोटिंग चुनाव परिणाम पर कोई असर न डाल सके। अगर किसी संख्यात्मक रूप से शक्तिशाली अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर राजनीतिक व्यर्थता का एहसास पनपने लगे तो उसके दूरगामी परिणाम लोकतंत्र के लिए खतरनाक निकल सकते हैं। बीजेपी विरोधी राजनीति करने वाले यह समझने में नाकाम रहे हैं कि मुसलमान उनकी चुनावी रणनीति में पूरक भूमिका तो निभा सकते हैं, पर नेतृत्वकारी भूमिका नहीं। इस यथार्थ को न समझने का फौरी परिणाम उनकी पराजय के रूप में निकल चुका है, और अगर इस रवैये में संशोधन न किया गया तो दूरगामी परिणाम मुस्लिम समाज के लोकतंत्र से कटते चले जाने में निकलेगा।

इस विश्लेषण से जाहिर है कि लोकसभा के चुनाव परिणामों को हमें बीजेपी की जीत से आक्रांत मीडिया मंचों की निगाह से न देखकर चालाकी से खेली गई समावेशन और बहिर्वेशन की रणनीति के आईने में देखना चाहिए। हां, बीजेपी को यह श्रेय जरूर दिया जा सकता है कि इस जटिल रणनीति को उसने बड़ी खूबी से लागू करके दिखाया।

(लेखक अभय कुमार दुबे विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक और प्रोफेसर)

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