सिनेमा

घटिया हिंदी फिल्मों का ‘क्लासिक’ संसार

उन चुनिंदा फिल्मों को भूला नहीं जा सकता जो अपनी बेहद खराब कहानियों और संवादों के बावजूद हिंदी सिनेमा के इतिहास का एक अहम हिस्सा हैं।



फोटो: Youtube
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हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। दुनिया भर में इसके शौकीन और दर्शकों की तादाद में इजाफा तो हो ही रहा है, हिंदी सिनेमा में अब नए विषयों पर भी फिल्में बनाई जा रही हैं। अब टीनएज रोमांस और बचपन में बिछुड़े भाइयों वाली फिल्मों के दिन लद गए। आजकल मनोवैज्ञानिक रोमांच, सच्ची घटनाओं और प्रतिष्ठित लोगों के जीवन पर आधारित फिल्में बन रही हैं। यहां तक कि ‘शुभ मंगल सावधान’ जैसी पुरूष के यौन समस्याओं संबंधित फिल्में भी बनने लगी हैं।

फिर भी, हम उन चुनिंदा फिल्मों को नहीं भूल सकते जो अपनी बेहद खराब कहानियों और संवादों के बावजूद हिंदी सिनेमा के इतिहास का एक अहम हिस्सा हैं। वैसे हिंदी फिल्में अपनी अतिनाटकीयता और तड़क-भड़क के लिए मशहूर तो हैं ही, कभी-कभी फिल्मों की लाइटिंग भी फूहड़ होती है और कैमरा भी भारतीय सड़कों की तरह हिचकोले देता है। लेकिन जरा सोचिये अगर ये सभी खराब बातें एक ही फिल्म में एक साथ मिल जाएं तो? तब तो बेशक यह फिल्में जबरदस्त मनोरंजन का साधन बन जाती हैं।

ऐसी ही एक फिल्म है मिथुन चक्रवर्ती की ‘गुंडा’। कांति शाह के निर्देशन में बनी यह फिल्म 1998 में रिलीज हुयी थी। कहने को तो यह एक क्राइम थ्रिलर थी, लेकिन इसका स्टंट बहुत ही हास्यास्पद था, लेकिन संवाद मजेदार थे। एक नमूना पेश है- “मेरा नाम है बुल्ला, रखता हूँ मैं खुल्ला!” या फिर “दिखने में तो तू है नाटा, मगर तोहर नाम है लम्बू आटा!”

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फिल्म में जो ड्रामा डाला गया है वह भी आपको हंसाते-हंसाते लोट-पोट कर देगा। मिथुन चक्रवर्ती उस जमाने की बी ग्रेड फिल्मों के मशहूर हीरो थे। लेकिन ‘गुंडा’ किसी भी औसत तर्क से परे है। और इसीलिए यह एक ‘क्लासिक’ खराब फिल्म है। लेकिन जरा ठहरिये, ये ऐसी-वैसी फिल्म नहीं है। 2000 के दशक में इस फिल्म को फिस से ढूढ़ निकाला गया और सोशल मीडिया के जरिये इसका अपना एक प्रशंसक वर्ग बन गया। वेबसाइट आईलाइकटाइम्स की कामायनी शर्मा का कहना है कि ‘गुंडा’ इतनी खराब फिल्म है कि आपको इसे देखना ही चाहिए, ताकि आप अपने नाती-पोतों को ये बता सकें कि आपकी पीढ़ी ने इस फिल्म को पहली बार देखा था। आज भी ‘गुंडा’ के प्रशंसकों की तादाद कम नहीं हुई है।

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ऐसा ही एक नगीना है ‘शैतानी ड्रेकुला’। अगर रामसे ब्रदर्स की हॉरर फिल्में आपका मनोरंजन करने के लिए नाकाफी रही हैं, तो आप 2006 में रिलीज़ हुयी ‘शैतानी ड्रेकुला’ देख लीजिये। क्लासिक खराब फिल्मों की फेहरिस्त में ये फिल्म एक मील का पत्थर है। हरिनाम सिंह के निर्देशन में बनी यह फिल्म इतनी घटिया है कि आप हंसने से खुद को रोक नहीं पाएंगे।

जब कम कपड़े पहने घबरायी हुयी नायिका अचानक हुयी बारिश में भींगने लगती है, तो आप वाकई उसके ऊपर पाइप से गिरते पानी को देख सकते हैं। फिल्म की एक चुड़ैल के पंख थर्मोकोल के बने हैं जिसे आसानी से नोटिस कर सकते हैं। जब एक ‘डरावना’ भूत कुछ घबरायी हुयी लड़कियों को और भी डराने के लिए उनके पीछे दौड़ता है तो बदकिस्मती से उसका नकाब फिसल जाता है। लेकिन, वह अपना नकाब फिर लगाता है और फिर उनके पीछे दौड़ने लगता है। है न वाकई डरावना भूत!

फिर हम सोनू निगम की ‘जानी दुश्मन: एक अनोखी कहानी’ को कैसे भूल सकते हैं (ईश्वर जाने उन्होंने बतौर एक्टर अपनी शुरुआत के लिए इस फिल्म को क्यों चुना)। ये फिल्म 2002 में रिलीज हुयी और निर्देशक राजकुमार कोहली की यह आखिरी फिल्म थी (शुक्र है!)। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स काफी मजाकिया हैं। इसमें इतने सारे लोग दूसरे लोगों के शरीर में प्रवेश करते रहते हैं कि फिल्म की कहानी भूतों, बदले की आग और पुनर्जन्म का कोई गडड्मड्ड रूप बन कर रह जाती है।

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चुड़ैलों और ड्रेकुलाओं से निकल कर चलते हैं एक हीरो ‘कुत्ते’ पर। जी हां, 1985 में के सी बोकाडिया ने एक ‘सुपर हिट’ फिल्म बनायीं थी ‘तेरी मेहरबानियां’। बेशक फिल्म में एक हीरो (जैकी श्रॉफ) और एक हीरोइन (पूनम ढिल्लों) थी, लेकिन फिल्म का असली नायक था एक कुत्ता- मोती। ये बहादुर कुत्ता ही फिल्म के अंत में सभी खलनायकों से बदला लेता है और उन सभी को मार गिराता है। फिल्म में मोती ही अकेला समझदार किरदार नजर आता है! फिल्म के दौरान शब्बीर कुमार का लगातार चिल्ला-चिल्ला कर गाया गया गाना तेरी मेहरबानियां इसकी एक और उपलब्धि है।

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फोटो: सोशल मीडिया

अब हम आते हैं ‘राम गोपाल वर्मा की आग’ पर। बॉलीवुड की क्लासिक फिल्म ‘शोले’ से प्रेरित होकर निर्माता-निर्देशक राम गोपाल वर्मा ने 2007 में इसका एक तरह का सीक्वल बनाने का फैसला किया। अब अगर ओरिजिनल का नाम ‘शोले’ था तो सीक्वल को इससे बड़ा होना था, इसलिए इसका नाम ‘आग’ रखा गया। ये फिल्म इस बात की सटीक मिसाल है कि अमिताभ बच्चन और मोहन लाल जैसे बड़े सितारों को लेकर कैसे यह फिल्म नहीं बनानी चाहिए थी।

फिल्म न सिर्फ दर्शकों और समीक्षकों को पसंद नहीं आई, इससे राम गोपाल वर्मा का बतौर निर्देशक करियर भी तबाह हो गया। इसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने दुनिया की सबसे खराब फिल्म का खिताब दिया और बाद में इसे टोटल फिल्म ने सबसे खराब फिल्मों की सूची में भी शामिल किया। आज जब भी खराब हिंदी फिल्मों का जिक्र होता है तो ‘राम गोपाल वर्मा की आग’ का नाम फौरन जबान पर आ जाता है।

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कुछ और भी खराब फिल्में हैं जिनके जिक्र से ही मुंह का जायका खराब हो जाता है। मसलन हैरी बवेजा की ‘लव स्टोरी 2050’, साजिद खान की ‘हमशकल्स’ और हिमेश रेशमिया की ‘कज्जर्ज’। इन फिल्मों की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन ये ऐसी क्लासिक खराब फिल्में नहीं हैं जिन्हें बार-बार देख कर ‘घटियापन’ की नयी गहराइयों का पता चले।

क्लासिक खराब फिल्मों को देख कर तो हमें एहसास होता है कि कि इन्हें बनाने के लिए एक खास रचनात्मक काबिलियत चाहिए!

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