सिनेमा

खटकती है हिंदी फिल्मों में उत्तर भारत की नकली दुनिया, समाज से दूर तक संबंध नजर नहीं आता

हिंदी फिल्में जब उत्तर भारत पहुंचती हैं, तो साफ नहीं होता कि किस जगह के किस इलाके की पृष्ठभूमि में किरदार रचे गए हैं। उत्तर भारत के गांव और कस्बों की एक धारणा बना दी गई है, जिसपर आज के निर्देशक भी अमल करते हैं और बार-बार नकली दुनिया रचने की कोशिश करते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछले दिनों मनोज के. झा निर्देशित फिल्म ‘फैमिली ऑफ ठाकुरगंज’ आई। फिल्म अगर आपने देखी हो, तो मान लें कि हिंदी फिल्मों में उत्तर भारतीय समाज कमोबेश इसी रूप-रंग में आ रहा है। अपराध की दुनिया में लिप्त किरदार बदला, फिरौती और जमींदारी रसूख में डूबे रहते हैं। इन फिल्मों में रिश्तों का लोकतंत्र नहीं रहता। महिलाओं की गौण उपस्थिति रहती है।

उत्तर भारत से सामंती प्रथा आजादी के कुछ दशकों के बाद समाप्त हो गई, लेकिन फिल्मों में यह अभी तक चली आ रही है। वेशभूषा, बोली, रहन-सहन और पृष्ठभूमि में दशकों पहले की छाप मौजूद रहती है। चरित्र का निर्माण भी दशकों पुराना है। उत्तर भारत में प्रवेश करते ही हिंदी फिल्मों की कहानियां रूढ़िवादी गलियों में भटकने लगती हैं। दिख रहे समाज और संसार का नकलीपन झांकता रहता है। साफ दिखता है कि इन फिल्मों का अपने समाज से आज का कोई संबंध नहीं है।

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लंबे समय से हिंदी फिल्मों से गांव गायब हो गया है। फिल्म जब उत्तर भारत में पहुंचती है, तो यह स्पष्ट नहीं होता कि किस प्रदेश के किस इलाके की पृष्ठभूमि में किरदार रचे गए हैं। दशकों के अभ्यास और हिंदी फिल्मों ने उत्तर भारत के गांव और कस्बों की एक धारणा बना दी है। आज के निर्देशक भी उन्हीं धारणाओं पर अमल करते हैं और बार-बार नकली दुनिया रचने की कोशिश करते हैं।

नतीजतन इन फिल्मों की लोकप्रिय अपील नहीं बन पाती। मल्टीप्लेक्स के दर्शकों की ऐसी फिल्मों में कोई रुचि नहीं रहती। निर्देशकों को भी लगता है कि छोटे-मझोले शहरों और कस्बों के दर्शकों को रिझाना है, तो सौंदर्यबोध और चित्रण के लिहाज से कुछ दशक पीछे चलना ही ठीक रहेगा। पिछले साल आई राजकुमार गुप्ता की ‘रेड’ में आधुनिकता के बीच भी चित्रण की यही पारंपारिकता दर्शकों को चिढ़ा रही थी। आर. बाल्की की ‘पैडमैन’ फिल्म में मध्य प्रदेश का माहौल होने के बावजूद अक्षय कुमार की मौजूदगी व्यवधान डालती रही। अक्षय कुमार अपनी लोकप्रियता के अनुरूप उच्चारण और संवादअदायगी पर मेहनत किए होते, तो ‘पैडमैन’ की स्थानीयता उभर कर आती।

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हिंदी फिल्मों में उत्तर भारत के चित्रण में इसी स्थानीयता की कमी खटकती है। बोली, भाषा, वेशभूषा, परिवेश और चरित्रों में स्थानीयता का अभाव उन्हें एकरूप और नकली बनाता है। इन दिनों निर्माता-निर्देशक भाषा पर थोड़ा ध्यान दे रहे हैं। कोशिश करने के साथ यह दावा किया जाता है कि अभिनेता/अभिनेत्री ने स्थानीय लहजे में हिंदी बोलना सीखा। उनके लिए प्रशिक्षक रखे गए और सेट पर भी उनके संवादों के उच्चारण के लहजे में आवश्यक सुधार के लिए प्रशिक्षक मौजूद रहे, लेकिन ढाक के वही तीन पात।

प्रशिक्षकों के निर्देश और कलाकारों के अभ्यास के बावजूद स्थानीय लहजा सुनाई नहीं पड़ता। कुछ पंक्तियों और उनके भी कुछ शब्दों तक ही उनकी पकड़ बन पाती है। कई बार वे सही और सटीक बोलने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन संवाद अदायगी अपेक्षित पटरी से उतर जाती है और प्रभाव भोंडा हो जाता है। लोकप्रिय अभिनेता/स्टार की मेहनत का झूठा सच पर्दे पर दिखाई और सुनाई पड़ने लगता है। इस मामले में थिएटर से फिल्मों में आए कलाकार फिर भी थोड़े सफल होते हैं।

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ताजा उदाहरण के लिए विकास बहल की फिल्म ‘सुपर 30’ में रितिक रोशन को देखा जा सकता है। इस फिल्म में रितिक रोशन ने अपनी परिचित और लोकप्रिय छवि को नोचकर आनंद कुमार बनने का प्रयत्न किया है। कद-काठी और लुक में वह आनंद कुमार की तरह नहीं हैं। फिर भी आनंद कुमार की मनोदशा, संघर्ष और मेहनत को उन्होंने आत्मसात किया, खुद को सांवला किया, पटनहिया हिंदी भी बोलने की कोशिश की, लेकिन दूसरे कलाकारों के साथ आते ही उनकी मेहनत की पोल खुलती रही।

दरअसल, इस फिल्म में उनके साथ के किरदारों में वीरेंद्र सक्सेना, आदित्य श्रीवास्तव और पंकज त्रिपाठी सरीखे रंगमंच के अभिनेता थे। यहां तक कि उनके 30 छात्रों की भी भाषा पर पकड़ रितिक रोशन से कई दर्जे ऊपर थी। यही वजह है कि उनके साथ के दृश्यों में उनकी संवाद अदायगी की कमजोरी उभरती रही। रितिक रोशन ने इस फिल्म में ‘बॉडी लैंग्वेज’ तो पकड़ ली, लेकिन ‘लैंग्वेज’ पकड़ने में असफल रहे।

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‘सुपर 30’ घोषित रूप से आनंद कुमार के जीवन से प्रेरित फिल्म है। आनंद कुमार का ‘सुपर 30’ पटना में है। खुद उनका जीवन पटना में बीता। फिल्म में पटना लिखना चाहिए था। अमूमन फिल्मकार किसी भी शहर को स्थापित करने के लिए वहां के ‘सिग्नेचर इमारतों और वास्तु’ को फिल्मों में दिखाते हैं। गलियों और मकान के हूबहू सेट तैयार किए जाते हैं। अगर उन्होंने वास्तविक लोकेशन पर शूट किया होता, तो शहर सहज रूप में उनकी फिल्मों में आ जाता है। विकास बहल ने ‘सुपर 30’ में पटना शहर के प्रसिद्ध और परिचित स्थानों को दिखाने का कोई प्रयास नहीं किया। इसके उलट कुछ फिल्मों में कहानी किसी और प्रदेश और इलाके की रहती है, लेकिन शूटिंग की सुविधा-असुविधा से पृष्ठभूमि का लोकेशन लापरवाही की चुगली कर जाता है।

वास्तविकता और स्थानीयता के लिहाज से इस साल आई फिल्मों में अभिषेक चौबे की ‘सोनचिरैया’ और अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ का उल्लेख किया जा सकता है। पिछले साल आई डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ‘मोहल्ला अस्सी’ भी उल्लेखनीय है। तीनों ही फिल्मों में अनेक चरित्र थे। उन सभी की भूमिका दमदार थी। ‘सोनचिरैया’ में चंबल का इलाका स्पष्ट तरीके से दिखा। चंबल के बीहड़ों और बस्तियों को अभिषेक चौबे और उनके कैमरामैन ने बारीकी से कैद किया और विश्वसनीयता कायम रखी थी।

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अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ का लालगांव काल्पनिक गांव था, लेकिन वहां की गलियां, थाना, तालाब और भाषा उत्तर भारत की थी। निश्चित ही इसे रचने में फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइनर और लेखकों ने अनुभव सिन्हा की मदद की होगी। उनके कलाकारों ने स्क्रिप्ट में निर्दिष्ट गांव को पर्दे पर स्थापित किया और दर्शकों को अपने साथ वहां पहुंचा दिया। डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्लाअस्सी’ में पप्पू की चाय की दुकान और अस्सी की गली देखकर ‘काशी का अस्सी’ के लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह भी हैरत में रह गए थे।

उत्तर भारत की चरित्रगत स्थानीयता के संदर्भ में प्रकाश झा का उल्लेख जरूरी होगा। उनकी फिल्मों की भाषा और पृष्ठभूमि बिहार की रहती है। उन्होंने ‘दामुल’ की शूटिंग जरूर बिहार में की थी, लेकिन दूसरी पारी में वह महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बिहार सृजित करते रहे। उन्होंने महाराष्ट्र के वाई और मध्यप्रदेश के भोपाल को बिहार बना दिया था। गौर करना होगा कि लहजे, उच्चारण और शैली के हिसाब से उन्होंने अपनी फिल्मों में खास भाषा विकसित की है, जो उनके संवादों और कलाकारों के परफॉर्मेंस को प्रभावशाली बना देती है। दूसरे निर्देशक उनके अनुकरण में सफल नहीं हो पाते।

इन दिनों एक और बात खटकती है। उत्तर भारत की पृष्ठभूमि की फिल्मों में पंजाबी गानों का कोई तुक नहीं बनता है, लेकिन हम बार-बार ऐसी फिल्मों में पंजाबी गाने सुनते हैं और देखते हैं। उत्तर भारत में प्रचलित गीत-संगीत के बजाय पंजाबी धुनों और बोलों के गीत-संगीत की भरमार रहती है। हमारे निर्देशकों को पंजाबी गाने डालने के इस दबाव से निकलना होगा। उन्हें अपनी फिल्मों में स्थानीय धुनों और बोलों के साथ प्रयोग करना होगा।

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