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स्वास्थ्य केंद्र बेहाल, आंगनबाड़ी की सुस्त रफ्तार, तो फिर कैसे न हो बिहार ‘चमकी’ का शिकार

बिहार में चमकी बुखार ने यूं ही भयावह रूप नहीं धारण किया है। इसके पीछे सरकारी लापरवाही और योजनाओं को लेकर उदासनी रवैया सबकुछ है। इसके अलावा बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए जो नियम-कायदे बने हैं, उनका पालन ही नहीं हो रहा है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज से निकला मातम एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से प्रभावित 16 जिलों में ऐसे ही नहीं पसर गया। हर बच्चे की ‘सरकारी हत्या’ की अलग-अलग कहानी है लेकिन इन सब में एक समानता है कि उन्हें समय रहते इलाज नहीं मिला। जैसा कि अकबरपुर गांव के राम पुकार साह कहते हैं, ‘एक किलोमीटर दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) है जो 10 साल से बंद पड़ा है। ऐसे में, गरीब का बच्चा मरेगा नहीं, तो जिएगा क्या? झोला छाप डाक्टर है, पर वो क्या इलाज करेगा?”

अकबरपुर मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर है। वह और उसके आसपास के गांव से तकरीबन पांच बच्चे ‘चमकी बुखार’ ने लील लिए। लेकिन इन मौतों के दर्द से इतर पीएचसी और उससे तकरीबन एक किलोमीटर फासले दूर स्वास्थ्य उपकेंद्र अभी भी ‘निर्लज्ज भाव’ से बंद पड़ा है।

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सिर्फ अकबरपुर ही नहीं, बिहार के ज्यादातर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उपकेंद्र बदहाल हैं। नीतीश शासनकाल में इन केंद्रों की बिल्डिंग तो बना दी गईं लेकिन अधिकतर जगह ताला लटका रहता है, गाय-भैंस-बकरी बांधी जाती है और गांव के पुरुष ताश खेलते हैं। मुजफ्फरपुर जिले के सबसे ज्यादा प्रभावित प्रखंड़ों में से एक मीनापुर के मुकसुदपुर स्वास्थ्य उपकेंद्र के बाहर पूरे सप्ताह की सारणी तो लगी है लेकिन स्थानीय लोग बताते हैं कि डाक्टर साहब का दर्शन दुर्लभ है। ऐसे में, स्थानीय लोग ठीक ही सवाल करते हैं कि यह बिल्डिंग खड़ी कर देने से क्या फायदा है।

अरुण साहा मुजफ्फरपुर के मशहूर शिशु रोग विशेषज्ञ हैं। उन्होंने प्रसिद्ध एपीडेमिकोलाजिस्ट जैकब जॉन के साथ एईएस पर रिसर्च किया है। वह कहते हैं कि इन्सेफेलाइटिस से पीड़ित बच्चे को अगर 4 घंटे के अंदर सही ट्रीटमेंट मिलना शुरू हो जाए तो बच्चे के रिकवर करने की बहुत उम्मीद होती है। लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जमीनी स्तर पर काम ही नहीं कर रहे हैं। नतीजा यह कि बच्चा जब तक मेडिकल कॉलेज पहुंचता है, उसकी स्थिति बहुत बिगड़ जाती है।

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ठीक यही बात डॉ. कफील खान कहते हैं। डॉ. कफील गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में मरते बच्चों को ऑक्सीजन सिलेंडर पहुंचाने को लेकर चर्चा में आए थे। उन्होंने मुजफ्फरपुर में कई जगह एईएस स्क्रीनिंग कैंप लगाए हैं। वह कहते हैं कि यूपी और बिहार-जैसे राज्यों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर स्थानीय लोगों का जो भरोसा होना चाहिए, वह गायब है।

ऐसा नहीं है कि यह बात कोई पहली बार सामने आ रही है या सरकारी आकाओं को यह बात पता नहीं है। बीते 16 जून को मुजफ्फरपुर आए केंद्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने भी कहा कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत करना होगा। उन्होंने स्वास्थ्य केंद्रों में ग्लूकोमीटर, ऑक्सीजन सिलेंडर की उपलब्धता को सुनिश्चित करने की बात भी कही। लेकिन बिहार सरकार ने एईएस से लड़ने के लिए 2014 में बनाए स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसीड्यूर (एसओपी) में भी यह बात साफ-साफ लिखी है कि हर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ग्लूकोमीटर होना चाहिए। साफ है, सरकार एसओपी के पालन में नाकाम रही।

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अगर आंकड़ों के जरिये बिहार की सेहत देखें तो राज्य में 17,685 व्यक्ति पर एक डॉक्टर है जबकि राष्ट्रीय औसत 11,097 व्यक्ति पर एक डॉक्टर का है। साल 2018 में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने बिहार विधानसभा में बताया था कि बिहार में कुल 6,830 डॉक्टर काम कर रहे है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुताबिक, प्रति एक हजार व्यक्ति पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

नीति आयोग की साल 2018 की रिपोर्ट भी कहती है कि बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहाल हैं। राज्य में जन स्वास्थ्य अभियान नाम के संगठन ने भी साल 2018 में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसके मुताबिक बिहार में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्च 2,047 रुपये है लेकिन इसमें से सरकार महज 338 रुपये खर्च कर रही है, यानी व्यक्ति अपनी जेब से 82 फीसदी स्वास्थ्य मद पर खर्च कर रहा है।

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नेशनल हेल्थ अकांउट एस्टीमेट और एनएफएचएस के आंकड़ों के आधार पर बनाई गई यह रिपोर्ट कहती है कि 20 राज्यों के तुलनात्मक आंकड़ों में बिहार स्वास्थ्य मद पर खर्च करने वाला सबसे फिसड्डी है। साल 2015 -16 के बजट की समीक्षा से यह भी पता चलता है कि सरकार महज 14 रुपये प्रति व्यक्ति दवाई के मद पर खर्च कर रही है जबकि स्वास्थ्य मद पर जो लोगों का व्यक्तिगत खर्च होता है, उसमें से 60 फीसदी हिस्सा दवाओं पर ही है।

इन सबका नतीजा यह है कि दलित और मुसलमान जो पहले से ही हाशिये पर हैं, वे कर्ज की जद में चले जाते हैं। जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. शकील बताते हैं कि 74 प्रतिशत दलित और 40 प्रतिशत मुसलमान स्वास्थ्य खर्चों के चलते कर्जे में डूब गए। मुजफ्फरपुर में भी जिन गरीब के बच्चों की मौत हुई, वे लोग भी कर्ज के कभी न निकलने वाले जाल में फंस गए होंगे।

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लेकिन, इससे भी पहले प्रमुख मुद्दा कुपोषण का है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बच्चों के एईएस से पीड़ित होने की वजह कुपोषण है। मीनापुर के प्रमोद भगत के साढ़े तीन साल के बेटे की मौत हो गई है। प्रमोद भगत के भाई बताते हैं कि बच्चा बीमार पड़ा तो उसे मेडिकल कॉलेज ले गए लेकिन वहां उसे सुई देकर वापस भेज दिया गया। लेकिन रास्ते में ही बच्चे की मौत हो गई। इन पंक्तियों के लेखक ने उनसे पूछा कि क्या बच्चे को आंगनबाड़ी से पोषाहार मिलता था तो प्रमोद के भाई ने जवाब दिया कि एक बार उन्होंने गांव के आंगनबाड़ी से मांगा था, पोषाहार तो नहीं मिला, उल्टे लड़ाई हो गई।

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दरअसल, कुपोषण से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने जो आंगनबाड़ी केंद्र खोले, उनकी विफलता इस एईएस संकट ने फिर से सामने ला दी है। बिहार में आंगनबाड़ी, आशा और मिड-डे मील वर्कर मानदेय के भुगतान की मांगों को लेकर लगातार आंदोलित रहते हैं। एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि हम लोग क्या कर सकते हैं- जब सरकार पोषाहार देगी, तब ही तो हम बांटेंगे; नहीं देगी तो हम अपने घर से तो नहीं देंगे। बाकी, सरकार हमसे 14 तरह के काम लेती है और मानदेय को कुछ ही दिन पहले बढ़ाकर 5,500 रुपया किया गया है। यह पैसा भी अभी मिलना शुरू नहीं हुआ है।

ठीक यही हाल आशा और मिड-डे मील वर्कर का है। मिड-डे मील बनाने वाली महज 1,250 रुपये मासिक पर काम करती है और यह भी उन्हें सिर्फ 10 माह मिलता है। आशा कार्यकर्ताओं का भी यही हाल है। लगातार आंदोलनरत रहने के बाद सरकार उन्हें एक हजार रुपये मानदेय और इनसेंटिव देने के लिए तैयार हुई है।

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आंगनबाड़ी और आशा आंदोलन से जुड़ी शशि यादव कहती हैं कि जब सरकार कुपोषण मिटाने वाले अपने कार्यकर्ताओं के ही परिवार को कुपोषित रख रही है तो फिर क्या कहा जा सकता है। इसमें तो सरकार की कुव्यवस्था ही जिम्मेदार है। बिहार आंगनबाड़ी फेडरेशन के मोहम्मद युनूस भी बताते हैं कि इस साल जनवरी से ही आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को चुनाव-संबंधी काम में लगा दिया गया था। यही वजह थी कि एईएस ने विकराल रूप धरा।

गौरतलब है कि 2014 के बाद सरकार ने एईएस से होने वाली मौतों पर एसओपी का पालन कर काबू पा लिया था। इस एसओपी में लिखा है कि आंगनबाड़ी, आशा और एएनएम को चमकी बुखार से संबंधित जागरूकता फैलानी होगी; बच्चे भूखे न सोएं, यह सुनिश्चित किया जाएगा और पीएचसी में ग्लूकोमीटर से बच्चों की जांच की जाएगी। चुनाव के अन्य कामों में आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को उलझा दिए जाने की वजह से बच्चों का यह हाल हुआ।

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बिहार में कुपोषण के आंकड़े भी देखें तो ये भयावह हैं। एनएफएचएस (नर्सिंग एंड फैमिली हेल्थ केयर) 4 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में पांच साल तक के सबसे कम लंबाई के बच्चे बिहार के हैं। 48 फीसदी बिहार के बच्चे स्टंटेड(सरल भाषा में कहें तो बौने) हैं जबकि अंडरवेट यानी कम वजन का आंकड़ा देखें तो भी बिहार नीचे से दूसरे पायदान पर है। राज्यके 43.9 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं।

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