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'कृषि कानूनों की वापसी के बाद यूपी जीतने का सपना देख रही बीजेपी गलतफहमी में है, किसानों का गुस्सा खत्म नहीं हुआ है'

दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से संघर्ष कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष डॉ. अशोक धवाले का मानना है कि बीजेपी अगर सोचती है कि वह यूपी चुनाव जीत लेगी तो वह खुशफहमी में है, क्योंकि यूपी के किसान भाजपा सरकार से परेशान हैं। पेश हैं उनसे हुई बातचीत के अंश:

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

प्रधामंत्री द्वारा अचानक की गई घोषणा को क्या आप किसानों के राष्ट्रव्यापी विरोध के विचार से सकारात्मक चिह्न के रूप में मानते हैं?

प्रधानमंत्री ने इन तीन कृषि कानूनों पर यू-टर्न तो लिया लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि ये कानून गलत थे। ये तीनों कानून किसान-विरोधी, जनविरोधी और कॉरपोरेट- समर्थक थे। इसलिए यह अभूतपूर्व किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जीत है और इसका पूरे भारत और विदेश में अभिवादन किया गया है।

भाजपा अगर सोचती है कि वह यूपी चुनाव जीत लेगी तो वह बहुत ही गलत सोच रही है क्योंकि कई मुद्दे हैं और उत्तर प्रदेश के किसान भाजपा सरकार से परेशान हैं। धान के लिए एमएसपी प्रति क्विंटल 1,940 रुपये है और यूपी के किसान सिर्फ 1,100 रुपये प्रति क्विंटल पा रहे हैं इसलिए उनके साथ 840 रुपये प्रति क्विंटल की धोखाधड़ी हो रही है। दूसरी बात, यूपी में गंभीर कमी है और यूपी में कालाबाजारी बड़े पैमाने पर हो रही है। इसलिए किसानों ने अपनी मानसिक शांति खो दी है। यह भी अतिरिक्त है कि डीजल और पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं। यूपी के किसानों का पूरा बजट इस वजह से गड़बड़ा गया है। ये मुद्दे कृषि कानूनों से जुड़े नहीं हैं लेकिन आम लोग, किसान इस सरकार को लेकर पागल हो गए हैं। मैं बहुत दृढ़ता से समझता हूं कि अगर मोदी ने सोचा है कि वे लोग कृषि कानूनों की वापसी से यूपी चुनाव जीत जाएंगे, तो वे बहुत गलत समझ रहे हैं।

खेती किसानी राज्य का विषय भी है। प्रदेश सरकारों किस तरह उजगह को भर सकती हैं जो खुली छोड़ दी गई हैं। उदाहरण के लिए किसानों की आत्महत्या के मामलों में महाराष्ट्र सबसे ऊपर है लेकिन पहले राज्य सरकार किसानों की मदद में नाकाम ही रहती रही है।

भारत में किसानों की आत्महत्या 1993- 94 में शुरू हुई। और एनसीआरबी के आंकड़े खुलासा करते हैं कि 1995 से 2020 के बीच के पिछले 25 वर्षों में चार लाख कर्ज पीड़ित किसानों को आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ा। इनमें से एक लाख ने भाजपा शासन के दौरान आत्महत्या की है और लाखों को अपनी जमीन बेचनी पड़ी है।

1991 में नवउदारवादी नीतियां शुरू होने के कारण लगभग सभी राज्य सरकारें पूरे भारत में इन नीतियों का अनुसरण कर रही हैं। नवउदारवादी नीतियों के कार्यान्वयन के तुरंत बाद पूरे भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले बढ़ गए और इस नवउदारवादी नीति में बदलाव की अपेक्षा थी। अगर आप हालात को रोकना चाहते हैं, तो नीतियों में बदलाव अपेक्षित हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि केन्द्र सरकार अधिकतम फंडों और स्कीमों पर नियंत्रण करती है।

बिहार ने 2006 में कृषि बाजार बोर्ड को तयाग दिया जबकि केरल ने सब्जियों तक को भी एमएसपी में शामिल कर लिया। इन दो राज्यों से क्या सबक हैं?

राज्यों के बीच बिहार का परिदृश्य सबसे खराब है। वहां धान की एमएसपी 1,940 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि किसान 800 रुपये प्रति क्विंटल पा रहे हैं क्योंकि राज्य में कोई मंडी नहीं है। बिहार के किसान यूपी से भी कम एमएसपी पाते हैं।

केरल में आरंभ से ही एपीएमसी कानून नहीं है क्योंकि राज्य की कृषि नकदी फसलों पर आधारित है। धान के लिए, केरल सरकार 2,850 रुपये प्रति क्विंटल दे रही है जो एमएसपी से 900 रुपये अधिकहै । यह भारत में सबसे अधिक है और यह राजनीतिक इच्छाशक्ति को दिखाता है। कृषि को लेकर राज्य सरकार की सीमाओं के बावजूद कई चीजें की जा सकती हैं।

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