
पिछले आठ महीनों में यह तीसरा मौका था जब 24 सितंबर को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक दिल्ली के बाहर हुई थी। इस बार इसका आयोजन बिहार की राजधानी पटना में किया गया।कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस बैठक को विशेष रूप से अहम बताया क्योंकि उनके मुताबिक,यह “ऐसे समय में हो रही है जब भारत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है।”
गौरतलब है कि कार्यसमिति की बैठकें आम तौर पर नई दिल्ली में होती रही हैं, लेकिन खड़गे और राहुल गांधी के निर्देश के बाद पार्टी ने दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में भी इसकी विस्तारित बैठकों की शुरूआत की है। पिछले साल दिसंबर 2024 में कार्यसमिति की बैठक बेलगावी (कर्नाटक) में हुई थी और इस साल अप्रैल में अहमदाबाद (गुजरात) में। लेकिन पटना बैठक इस मामले में अलग है क्योंकि यह ऐसे वक्त में हो रही है जब बिहार, विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है।
कार्यसमिति की बैठक के लिए स्थान का चयन, इसका एजेंडा और इसके निष्कर्ष- तीनों बताते हैं कि कांग्रेस बिहार को इस बार कितनी गंभीरता से ले रही है। खास बात यह रही कि बैठक के बाद कांग्रेस पार्टी की ओर से एक अपील जारी की गई जिसका मकसद लोगों को यह याद दिलाना था कि कांग्रेस की बिहार के प्रति प्रतिबद्धता नई नहीं है।
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इसने न सिर्फ बिहार में कांग्रेस की विकास वाली वह विरासत याद दिलाई जिसमें बरौनी ऑयल रिफाइनरी की स्थापना से लेकर सिंदरी खाद कारखाना, 33 शुगर मिलों की स्थापना और एशिया का सबसे बड़ा रेल यार्ड बिहार में लगाना शामिल है। पावर प्लांट, मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय की स्थापना इस प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हैं।
कार्यसमिति द्वारा जारी अपील का दूसरा हिस्सा मौजूदा हालात पर केन्द्रित था। इसमें सूबे में बेखौफ अपराधियों के बढ़ते हौसले, बेलगाम भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राज्य से बड़े पैमाने पर पलायन जैसे मुद्दों का उल्लेख है। कहना न होगा कि ये वही कारक हैं जो बिहार में एनडीए सरकार के प्रति गहरी एंटी-इन्कम्बेंसी का कारण बने हुए हैं।
इन दो बातों के अलावा, पटना में कार्यसमिति की बैठक का तीसरा उद्देश्य था कथित मुख्यधारा की मीडिया में हो रहे दुष्प्रचार के बरअक्स इंडिया गठबंधन में एकजुटता की मजबूती प्रदर्शित करना। इसी सोच के तहत इंडिया गठबंधन के सभी सहयोगी दल कार्यसमिति की बैठक के बाद एक साथ ‘अति पिछड़ा न्याय संकल्प’ में शामिल हुए और 10 सूत्री कार्यक्रम भी जारी किया जो अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम जैसा है।
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ध्यान देने वाली बात है कि बिहार जाति सर्वे के अनुसार, वहां ईबीसी राज्य की आबादी का 36 प्रतिशत हैं लेकिन छोटे-छोटे समूहों में बंटे होने के कारण वे कभी मजबूत राजनीतिक ताकत नहीं बन पाए। यह बात सही है कि नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिये इस समूह को पंचायतों में 20 प्रतिशत आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं में हिस्सेदारी देकर उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया लेकिन पहले से ताकतवर और संगठित ओबीसी (27 प्रतिशत से अधिक आबादी) का दबदबा सूबे की राजनीति में अब तक कायम है।
इंडिया गठबंधन के पटना घोषणा पत्र में इसी स्थिति को बदलने की मंशा दिखाई देती है। गठबंधन ने इस समूह की जरूरतों को संबोधित करते हुए उनके सामने एक तरह से समग्र पैकेज पेश कर दिया है जिसका मकसद उन्हें न्याय दिलाना है।
कांग्रेस ओबीसी विभाग के प्रमुख अनिल जयहिंद का कहना था कि पटना ड्राफ्ट ईबीसी प्रतिनिधियों, उनके साथ काम करने वाले एनजीओ और विशेषज्ञों से परामर्श के बाद तैयार किया गया।
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राहुल गांधी ने इसे विज़न पेपर का नाम दिया। इतना ही नहीं, राहुल ने भाषण के दौरान नीतीश कुमार पर सीधा हमला भी किया। उन्होंने पूछा कि अगर नीतीश कुमार को ईबीसी की इतनी ही चिंता थी तो पिछले 20 सालों में उन्होंने ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए?
राहुल गांधी का सवाल आधारहीन नहीं है। ईबीसी में आने वाले नोनिया, धानुक और मल्लाह जैसे जाति समूह बहुत छोटे, बिखरे और शक्तिहीन हैं। इनके पास सामूहिक सौदेबाजी की क्षमता नहीं है। अक्सर वे दबंग जातियों (यहां तक कि ओबीसी के भीतर की दबंग जातियां भी) के उत्पीड़न का शिकार बनते हैं। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के अनुसार, 2020 के विधानसभा चुनावों में ईबीसी ने एनडीए के पक्ष में वोट दिया, जबकि महागठबंधन को केवल 35 प्रतिशत का समर्थन मिला। 2015 का चुनाव अपवाद रहा जब 55 प्रतिशत ईबीसी महागठबंधन के साथ गए।
न्याय संकल्प पत्र (यानी ‘पटना घोषणापत्र’) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की तर्ज पर अति पिछड़ा वर्ग अत्याचार निवारण अधिनियम बनाने का वादा करता है। इसमें पंचायतों और स्थानीय निकायों में अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण को मौजूदा 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने और 25 करोड़ रुपये तक के सरकारी ठेकों में से 50 प्रतिशत अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित करने की प्रतिबद्धता जताई गई है। इसमें अति पिछड़ा वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के भूमिहीन परिवारों को शहरी क्षेत्रों में तीन डिसमिल और ग्रामीण क्षेत्रों में पांच डिसमिल ज़मीन आवंटित करने का भी वादा है।
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पटना घोषणापत्र कुख्यात ‘एनएफएस’ खंड को भी हटाने का वादा करता है, जो आरक्षण के बावजूद प्रायः अति पिछड़ा वर्ग को रोज़गार देने से इनकार करने का हथियार बनता रहा है। यह भी वादा किया गया है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत निजी स्कूलों में आरक्षित आधी सीटें अति पिछड़ा वर्ग के छात्रों के लिए होंगी, और सभी निजी शैक्षणिक संस्थानों में अति पिछड़ा वर्ग के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान होगा। पर्यवेक्षक इसे इस बात का संकेत मानते हैं कि पार्टी अंततः निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करने के प्रति गंभीर है।
घोषणापत्र में यह भी कहा गया है कि सत्ता में आने पर इंडिया गठबंधन संविधान की नौवीं अनुसूची में संशोधन करने की मांग करेगा ताकि मौजूदा 50 प्रतिशत की सीमा से आगे आरक्षण की अनुमति मिल सके। इसके लिए राज्य विधानसभा को एक प्रस्ताव पारित करना होगा और फिर केन्द्र सरकार को उसका अनुमोदन करना होगा।
कार्यसमिति ने बिहार के मतदाताओं को याद दिलाया है कि लगभग 30 साल पहले कांग्रेस सरकार ने ही तमिलनाडु को जहां 69 प्रतिशत आरक्षण है, यह सुरक्षा प्रदान की थी।
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आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने घोषणा की कि इंडिया ब्लॉक का वादा तो बस शुरुआत है। उन्होंने कहा, “अब तक मंडल आयोग की महज 5 प्रतिशत सिफारिशें ही लागू की गई हैं। इंडिया ब्लॉक सत्ता में आता है, तो हम सुनिश्चित करेंगे कि बाकी सिफारिशें भी पूरी तरह लागू हों।”
दरअसल इंडिया ब्लॉक के नेता विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यह एक ‘मौन क्रांति’ की शुरुआत है और 1990 के दशक की मंडल लहर की तरह, इस मंडल 2.0 में राज्य के राजनीतिक समीकरणों को नाटकीय रूप से बदलने की क्षमता है।
आठ महीने पहले, बिहार में कांग्रेस को ज्यादातर लोग गंभीरता से नहीं लेते थे। लेकिन आज, पटना के ऐतिहासिक सदाकत आश्रम स्थित पार्टी मुख्यालय फिर से गतिविधियों का केन्द्र बन चुका है। युवा पाठकों के लिए जानना ज़रूरी है कि यह वही जगह है जिसे महात्मा गांधी ने 1921 में बसाया था और जिसने देश को अनेक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी दिए। भारत के प्रथम राष्ट्रपति, बिहार विभूति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने अंतिम वर्ष यहीं बिताए थे।
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