कई भूस्खलनों के कारण कश्मीर घाटी को शेष भारत से जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-44) जगह-जगह क्षतिग्रस्त हो गया। इसके हफ्तों तक बंद रहने से भारी तबाही मची। मुश्किल ज्यादा बढ़ गई, क्योंकि यह सब उस समय हुआ जब सेब की फसल अपने चरम पर थी और उत्पादकों ने देश भर के बाजारों में सेब से लदे ट्रक भेजना शुरू ही किया था। पूरी तरह तैयार सेबों से लदे हजारों ट्रक तीन हफ्ते तक (26 अगस्त से 17 सितंबर के बीच) या तो राजमार्ग पर जगह-जगह फंसे रहे या फिर निर्धारित स्थानों पर ही खड़े रह गए, जिससे उपज सड़ जाने से भारी नुकसान हुआ। यह सब लगातार हुई भारी बारिश और अचानक आई बाढ़ का नतीजा था, जो उधमपुर के थरद-जखेनी में हुए बड़े भूस्खलन के कारण और गंभीर हो गया। न सिर्फ फल लदे ट्रकों की आवाजाही पंगु हुई, पूरी सप्लाई चेन ही बंद हो गई। इसने उत्पादकों, व्यापारियों और ट्रांसपोर्टरों के साथ आम लोगों को भी भारी संकट में डाल दिया।
Published: undefined
एशिया की सबसे बड़ी और कश्मीर की प्रमुख फल मंडियों में से एक सोपोर फल मंडी के अध्यक्ष फैयाज़ अहमद मलिक ने संडे नवजीवन से कहा, “सड़क खुलने के इंतजार में जिस तरह उपज का बड़ा हिस्सा बर्बाद हुआ, फल उत्पादक तबाह हो गए हैं। हालांकि, राजमार्ग बुधवार (17 सितंबर) को चालू हो गया और नुकसान का पूरा आकलन बाकी है, लेकिन दिल्ली मंडी से मिली शुरुआती रिपोर्ट बता रही हैं कि वहां पहुंचने वाली ज्यादातर खेपों में फल सड़ चुके थे। कई मामलों में तो व्यापारियों ने क्षतिग्रस्त उपज का परिवहन खर्च उठाने से भी इनकार कर दिया। शुरुआती आकलन के आधार पर हमारा मानना है कि घाटी के फल उत्पादकों को 1,000 से 1,200 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।”
Published: undefined
पीर पंजाल की दुर्गम पहाड़ियों को चीरकर बनाया गया राष्ट्रीय राजमार्ग- 44 लंबे समय से कश्मीर के लोगों के लिए मुश्किलों और यहां तक कि जानलेवा दुर्घटनाओं का सबब बना हुआ है। डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा 1926 में कश्मीर हाईवे के रूप में निर्मित इस सड़क का मकसद घाटी को जम्मू से जोड़ना था। 1947 के बाद, प्राचीन झेलम घाटी सड़क खो देने के बाद यही हाईवे था, जो शेष भारत के लिए घाटी की एकमात्र जीवन रेखा बन गया। फिर भी, इसके खतरनाक भू-भाग के कारण, खासकर मानसून और भीषण सर्दियों के दिनों में यह बार-बार बंद हो जाता है, जिससे भारी मानवीय और आर्थिक नुकसान होता है।
हालिया भूस्खलन ने एक बार फिर साबित किया है कि एनएच- 44 का नाजुक भूविज्ञान किस तरह इसे प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बना देता है। यह ऐसी चुनौती है जिसका सामना लोग साल-दर-साल करते आ रहे हैं।
Published: undefined
भारतीय राजमार्ग प्राधिकरण के परियोजना निदेशक शुभम यादव ने बताया कि किस तरह “इस बार, हमने उधमपुर में थराद के पास पहाड़ी के पूरे 300 मीटर हिस्से को उस पर बनी सड़क के साथ खो दिया। लगातार बारिश के कारण पहाड़ी खिसककर लुढ़क गई। मलबे के ऊपर नई सड़क बनाने में दो महीने से ज्यादा लगता, लेकिन सड़क के महत्व की संवेदनशीलता के मद्देनजर, हमने डायवर्जन का विकल्प चुना और बहुत कम समय में इसे बना लिया। हालांकि, यह आसान नहीं था। इस दौरान लगातार हल्की ही सही, लगातार बारिश ने दिक्कतें पैदा कीं। कई बार तो भारी मशीनरी मलबे में फंस जाती थीं”।
Published: undefined
लगभग 270-300 किलोमीटर लंबे एनएच- 44 पर पिछले कुछ वर्षों में फोर लेन सड़क बनाने और इसे विस्तार देने का काम चल रहा है। पूरे समय इसकी जरूरत और इसके महत्व के मद्देनजर भारत सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के जरिये 2011 में एक सड़क-चौड़ीकरण परियोजना शुरू की। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार खुदाई, विस्फोट और बड़े पैमाने पर वनस्पति हटाने की प्रक्रिया ने आसपास की ढलानों को जिस तरह अस्थिर किया है, भूस्खलन का खतरा बढ़ना ही था। उनका मानना है कि बुनियादी ढांचे या खेती के लिए जंगल साफ करने से मिट्टी को स्थिरता देनी वाली जड़ प्रणालियां नष्ट हो जाती हैं, जो आगे चलकर भूस्खलन का कारण बनता है। राजमार्ग के पास सुरंगों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण ने प्राकृतिक जल निकासी का ढर्रा तो बदला ही, ढलानें कमजोर हुई हैं और कटाव तथा भूस्खलन बढ़ा है।
कश्मीर विश्वविद्यालय में पृथ्वी एवं पर्यावरण विज्ञान संकाय के डीन और पृथ्वी विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रो. गुलाम जिलानी बताते हैं, “एनएच44 के किनारे ढलानें ढह रही हैं। पहाड़ों की ढलानें कटेंगी, तो उनका अस्थिर होना लाजिमी है जो भूस्खलन का कारण बनता है। जहां तक राजमार्गों की बात है, सड़कों, सुरंगों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर ढलानों की कटाई से भूभाग खासा कमजोर हुआ है। नतीजा, इलाके में लगातार भूस्खलन हो रहे हैं। यह एक तरह से अपनी जड़ें खुद काटने जैसा है”।
Published: undefined
जिलानी आगे बताते हैं, “सड़कों का विस्तार उतना भी आसान नहीं कि हर जगह अर्थमूवर लाकर चार या आठ लेन का राजमार्ग बना दिया जाए। कहीं विस्तार संभव है, कहीं-कहीं बिलकुल नहीं। ऐसी परियोजनाएं विशेषज्ञों के उचित परामर्श से ही पूरी की जानी चाहिए। विशेषज्ञ ही संबंधित इलाके का व्यापक अध्ययन करने के बाद, इसकी सीधाई (संरेखण) को लेकर मार्गदर्शन कर सकते थे और यह भी कि राजमार्ग के विभिन्न बिन्दुओं पर कितना चौड़ीकरण व्यावहारिक होगा। दुर्भाग्य से, इस सब पर गौर नहीं किया गया और नतीजे सामने हैं।”
प्रोफोसर जिलानी जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार होने वाली तेज बारिश को राजमार्ग के किनारे ढलानों के ढहने के एक अन्य कारण के तौर पर देखते हैं। हालांकि, वह इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि मानव जनित हस्तक्षेप भूस्खलन का सबसे प्रमुख कारण हैं।
Published: undefined
उन्होंने कहा, “यह मूलतः कठोर चट्टानों वाले पहाड़ हैं, जिन पर हजारों वर्षों में विकसित हुई प्राकृतिक मिट्टी की परत है। जब तक छेड़ा न जाए, मिट्टी की यह परत स्थिर रहती है। जैसे ही सड़क या सुरंग निर्माण जैसे बाहरी तत्वों की घुसपैठ होती है, क्षरण शुरू हो जाता है और यह कमजोर हो जाती है। कई ऐसे क्षेत्रों में भी राजमार्ग चौड़ा करने के प्रयास किए गए जहां यह भूगर्भीय रूप से संभव ही नहीं था। इस कारण ढलान और भी अस्थिर हो गए। सड़कों और सुरंगों के अलावा घर-होटल सहित बड़ी संख्या में इमारतें भी अक्सर जलग्रहण क्षेत्रों के मुहाने पर बना देने से भी समस्या बढ़ गई है”।
बार-बार बंद होने के मद्देनजर उन विकल्पों की ओर ध्यान गया है जो एनएच- 44 पर दबाव कम कर सकते हैं। एनएच 44 दशकों तक कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने का एकमात्र सतही मार्ग बना रहा, और तब तक रहा जब तक कि 2010 की गर्मियों में घाटी में शोपियां जिले को जम्मू में पुंछ जिले से जोड़ने वाले ऐतिहासिक मुगल रोड को पीढ़ियों से बंद रहने के बाद फिर से खोल नहीं दिया गया। अलग बात है कि इसका अधिकांश एकल-लेन, और कहीं-कहीं बमुश्किल दो-लेन वाला ढांचा इसे भारी वाणिज्यिक परिवहन, नियमित आवागमन या फलों के निर्यात जैसे समय-संवेदनशील माल के लिए अनुपयुक्त बनाता है।
Published: undefined
स्पष्ट है कि एनएच- 44 तीन सप्ताह तक बंद रहने से न सिर्फ घाटी की आर्थिक कमजोरी उजागर हुई है, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में अंधाधुंध विकास का खतरा भी उभर कर सामने आ गया है। हालांकि तत्काल मार्ग परिवर्तन से यातायात अस्थायी रूप से बहाल हो सकता है, लेकिन अस्थिर ढलानों, अनियंत्रित निर्माण और बदलते जलवायु पैटर्न के गहरे संकट को दूर करने में यह कोई खास कारगर नहीं है।
जब तक सड़क विस्तार और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का वैज्ञानिक आकलन और पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों के साथ क्रियान्वयन नहीं किया जाता, राजमार्ग इसी तरह अनिश्चय का गलियारा ही नहीं जीवन और आजीविका के लिए भी खतरा बने रहेंगे। यह संकट महज एक तार्किक चुनौती नहीं, हिमालयी क्षेत्र में विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच नाजुक संतुलन की याद भी दिलाता है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined