मुंबई में स्टैंड-अप कॉमेडियन अक्सर बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) की तुलना “सामूहिक विनाश के हथियार” से करते हैं। यह टिप्पणी शहरी बुनियादी ढांचे के साथ और शहर की हताशा को दर्शाती है। जैसे-जैसे लंबे समय से स्थगित चल रहे बीएमसी के चुनाव करीब आ रहे हैं, मुंबई की सड़कों, फुटपाथों और पुलों की खस्ता हालत के बारे में लोग मुखर हो रहे हैं। मेट्रो के विस्तार के बावजूद गड्ढे, जाम और भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेनें लोगों की हताशा को और बढ़ा रही हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे बुलेट ट्रेन परियोजना को दिखावटी बताकर आलोचना करते रहे हैं। उनका कहना है कि प्रतिदिन लाखों को सेवा प्रदान करने वाले मुंबई के उपनगरीय रेल नेटवर्क पर सरकार की वास्तविक प्राथमिकता होनी चाहिए। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। पिछले 20 वर्षों में मुंबई की रेल पटरियों पर लगभग 50,000 लोगों की जान गई है- करीब 10 प्रतिशत ट्रेन से गिरने से जबकि अधिकांश की मौत पटरियां पार करते समय हुईं। अकेले 2024 में 2,468 ऐसी मौतें हुईं।
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पूर्व पार्षद रामदास कांबले बताते हैं कि उपनगरीय ट्रेनें मध्य और पश्चिमी रेलवे के अधिकार क्षेत्र में आती हैं, बीएमसी या राज्य सरकार के नहीं। शहर की व्यापक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की उपेक्षा यात्रियों को प्रभावित करती है। किराया वृद्धि, बेस्ट बस सेवाओं में कमी आदि ने स्थानीय ट्रेनों में भीड़ और बढ़ा दिया है। शिवसेना (यूबीटी) बीएमसी चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की योजना बना रही है।
एक भीड़ भरी लोकल ट्रेन के फुटबोर्ड से चिपकी महिलाओं का वायरल वीडियो भी मुंबईकरों में कोई हलचल नहीं मचा पाया जबकि यह रोजमर्रा की सच्चाई है। हजारों लोग रोज ऐसे ही यात्रा कर जान जोखिम में डालने को मजबूर हैं। रेलवे ऐसी दुर्घटनाओं से होने वाली मौतों पर तो नजर रखता है लेकिन गंभीर रूप से घायलों के बारे में उसके पास शायद ही कोई डेटा हो।
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लोगों की हताशा और बढ़ा रही हैं भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेनें
यह मामला तब सवालों में आया जब 9 मई को कल्याण से एक महिला ट्रेन 40 मिनट देर से आई। जगह न होने के कारण कई महिलाओं ने फुटबोर्डिंग का सहारा ले रखा था। कुछ लोगों का कहना था कि क्या हुआ? और क्या पुरुष यात्री ऐसा नहीं करते। कुछ ने यात्रियों को ही जिम्मेदार ठहराया जबकि अन्य ने इसके लिए ‘बीमारू राज्यों’ (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से आए ‘बाहरी लोगों’ को दोषी ठहराया और यह भी कहा कि जब तक उन्हें बाहर नहीं निकाला जाता, हालात नहीं सुधरेंगे। बहुत सारे लोगों ने इसका कारण व्यवस्थागत विफलताओं को बताया।
रेलवे भी इस समस्या को स्वीकारता है। व्यस्त समय में यात्री ठूस दिए जाते हैं। समाधान- जैसे ट्रेन की आवृत्ति बढ़ाने, समय की पाबंदी में सुधार करने और फुटबोर्डिंग रोकने जैसे समाधान के बारे में कहना जितना आसान है, करना उतना आसान नहीं। स्वचालित दरवाजों का विचार 2015 से ही चल रहा है लेकिन सफलता नहीं मिली है। 2019 में तत्कालीन रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि उन्हें केवल एसी ट्रेनों में ही लगाया जा सकता है, जहां वैसे भी अधिक किराये के कारण भीड़ कम होती है।
हालांकि, 2020 में नीति आयोग ने रेलवे को बताया था कि सभी उपनगरीय ट्रेनों में स्वचालित दरवाजे लगाए जाने चाहिए। रेलवे प्लेटफॉर्म स्क्रीन डोर (पीएसडी) पर भी विचार कर सकता है, खासकर उच्च घनत्व वाले स्टेशनों पर। लेकिन मुंबई की चुनौतियां अनूठी हैं। 200 यात्रियों के लिए डिजाइन किए गए गैर एसी कोच में अक्सर भीड़ वाले घंटों के दौरान 800 से अधिक यात्री हो जाते हैं।
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जल संकट ने महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त गांवों में परेशान करने वाली सामाजिक परिघटना को जन्म दिया हैः आवश्यकता प्रेरित बहुविवाह। जब पुरुष काम पर चले जाते हैं, अक्सर कई किलोमीटर दूर से पानी लाने का बोझ महिलाओं पर आ जाता है। जितनी अधिक पत्नियां, पानी लाने को उतनी ही ज्यादा यात्राएं। कभी विनम्रता और कभी मजाक में ग्रामीण स्वीकार करते हैं कि महिलाएं इन गांवों में शादी के लिए अनिच्छुक होती जा रही हैं।
हाल ही में वायरल हुए एक वीडियो से स्थिति की गंभीरता और स्पष्ट हो गई। इसमें नासिक जिले के पेठ तहसील के बोरीचीबारी गांव में एक महिला को रस्सी से बांधकर 40 फीट गहरे, लगभग सूखे कुएं में उतारा जा रहा है। पतली रस्सी से खतरनाक तरीके से बंधी महिला कुएं में उतरी जबकि अन्य अपनी बारी का इंतजार करती दिख रही थीं। ऐसे दृश्य गर्मी के महीनों में जल संकट से जूझ रहे कम-से-कम 16 जिलों में आम हैं।
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मराठी मीडिया की रिपोर्ट बताती हैं कि बोरीचीबारी में शादियां बंद हो गई हैं। इनमें से कुछ गांवों में घर में पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए एक आदमी का चार महिलाओं से शादी करना नई बात नहीं है। पत्नियों को तिरस्कारपूर्वक ‘पानी वाली बाई’ कहा जाता है और उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन जिलों में ग्रामीण बार-बार बीमार पड़ते हैं और संभवतः कम उम्र में ही मर जाते हैं। सखाराम भगत कहते हैं कि उनके गांव की आबादी सिर्फ 500 लोगों की है। गर्मियों में जब पास का कुंआ सूख जाता है, तो भाटसा बांध से पानी लाने में 12 घंटे लग जाते हैं।
इन इलाकों में पीने का पानी सोने से भी ज्यादा कीमती है और इसकी काफी सुरक्षा की जाती है। उगवा के ग्रामीण अपने प्लास्टिक के पानी के टैंक और ड्रम बंद रखते हैं। चंदा वाकते कहती हैं कि जब वह बाहर जाती हैं, तो उन्हें अपने घर को बंद करने की जरूरत नहीं पड़ती, पर पानी के ड्रम बंद करना कभी नहीं भूलतीं। स्थानीय ग्राम पंचायत के सदस्य सचिन बाहा की शिकायत है कि 84 गांवों को पीने का पानी सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई खेड़ी योजना सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गई है।
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यद्यपि यह शादियों का सीजन है, पर संभाजीनगर के तांड्या गांव में कोई शादी नहीं हो रही है। एशिया के सबसे बड़े बांधों में से एक जयकवाड़ी बांध तांड्या से 25-30 किलोमीटर दूर है। महिलाएं और स्कूल से लौटने के बाद बच्चे पानी के लिए यहीं जाते हैं। कवयित्री बहिणाबाई चौधरी के आसोदा गांव की लड़कियां आसोदा गांव में शादी से इनकार करने लगी हैं। ग्रामीण मेहमानों को एक गिलास पानी देने के बारे में कई बार सोचते हैं। अकोला जिले का उगवा गांव भी दुल्हन से वंचित हो रहा है।
राज्य सरकार ने एकीकृत वाटरशेड विकास कार्यक्रम, मराठवाड़ा जल ग्रिड परियोजना, गाद मुक्त धरन और जलयुक्त शिवार जैसी विभिन्न योजनाएं लागू की हैं। इसके बावजूद सरकार किसानों और ग्रामीणों को राहत देने में नाकाम रही है। जल विशेषज्ञ महाराष्ट्र में इस गंभीर स्थिति के लिए कई कारकों को जिम्मेवार मानते हैं। छत्रपति संभाजीनगर के एक अनुभवी अर्थशास्त्री एच एम देरडा का कहना है कि जलयुक्त शिवार अभियान और जल बैराजों से गाद निकालना जैसी सरकारी पहल ‘अवैज्ञानिक’ थी।
इस सबके बीच उम्मीद की किरण भी दिख रही है। रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर 2003 से काम कर रहे इंजीनियर उल्हास परांजपे ने 2020 तक 17 जिलों में 350 से अधिक ऐसी प्रणालियों का सफलतापूर्वक निर्माण किया है और हजारों लोगों को इसके सिद्धांत सिखाए हैं। इसके बावजूद पानी की समस्या बरकरार है। कोकण इलाके में भी पानी की कमी है। पानी फाउंडेशन के सीईओ सत्यजीत भटकल भी मानते हैं कि महाराष्ट्र के गांवों में पानी की समस्या बेहद विकराल है। उप मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की वह घोषणा भी मजाक बनकर रही जिसमें उन्होंने कहा था कि अधिकारी सुनिश्चित करेंगे कि कोई प्यासा न रहे। आलोचकों का तर्क है कि जल संकट पर सरकार की गंभीरता के सबूत बहुत कम हैं।
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