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संभल: यूं तो सबकुछ हस्ब-ए-मामूल, पर क्या पहले जैसे रह गया है यह ऐतिहासिक शहर!

पिछले साल 24 नवंबर को ही जामा मस्जिद के सर्वे के दौरान हुई हिंसा में पांच लोगों की जान चली गई थी। इस साल भी 24 नवंबर को पुलिस ने शहर में फ्लैग मार्च किया, जिससे फिज़ा में यूं ही बेचैनी तारी हो गई थी।

फोटो : प्रभात
फोटो : प्रभात 

संभल शहर में दाख़िल होते हुए यहीं की मिट्टी के शायर मुसव्विर सब्ज़वारी का एक शेर याद आता है –

ख़ुश-फ़हमियों के खेल की अब क्या सबील है

काग़ज़ की एक नाव है और ख़ुश्क झील है।

गलियों-सड़कों पर दिन भर भटकने और शहरियों से मिलने-बात करने के बाद लौटते हुए शायर की इस बात पर यक़ीन और पक्का हुआ। इसकी तारीख़ी हैसियत से वाक़िफ़ होने के बावजूद मैं शहर को यहां के हकीमों या फिर हड्डी-सींग के काम की बदौलत ही जानता आया था। इधर कुछ महीनों में इसे जानने की तमाम और वजहें भी ज़ाहिर हुईं।

संभल को जब-जब याद किया गया, वजहें सियासी ही रहीं। सल्तनत के दौर में ख़ास अहमियत मिली। मुग़लों के ज़माने में ओहदा शाही सूबे का रहा, कि यह दिल्ली और आगरा के बीच अहम मक़ाम था। अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान और आज़ाद हिन्दुस्तान में भी अर्से तक मुरादाबाद ज़िले का हिस्सा रहे संभल को 2011 में ज़िले का रुतबा मिला, तो नया नाम भी मिला—भीमनगर। हालांकि अगले ही साल पुरानी पहचान बहाल हो गई। मगर संभल के हालात और यहां के बाशिंदों की ज़िंदगी में कोई ख़ास बदलाव हुआ हो, ऐसा नहीं लगता।

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यह अब भी उदास-उचाट क़िस्म का ऐसा क़स्बा मालूम होता है, निज़ाम जिसे ज़िले का रुतबा देने पर आमादा है।  मगर ऐसा नहीं कि कुछ भी नहीं बदला है। बदला यह कि चक्की पाट में लाखौरी ईंटों की बनी पुरानी दीवार की जगह लाल पत्थर की दीवार बन गई है, और वहां ऊंचाई पर चक्की का एक नया पाट चमकने लगा है। ऐसी मान्यता है कि ऊदल (आल्हा-ऊदल) ने एक छलांग लगाकर चक्की का वह पाट क़िले की दीवार पर टांग दिया था।

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कोट पूर्वी के जिस प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मंदिर का जीर्णोद्धार कभी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था, उसमें तीन नए कमरे बन रहे हैं। नया कल्कि धाम मंदिर बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले साल फ़रवरी में आधारशिला रख चुके हैं। कोट गरवी में 1530 की बनी शाही जामा मस्जिद के क़रीब सत्यव्रत पुलिस चौकी बन गई है (कुछ विद्वजन मानते हैं कि सतयुग में संभल का नाम सत्यव्रत ही था), और मस्जिद की तरफ़ जाने वाले सारे रास्तों को बांस-बल्ली लगाकर घेर दिया गया है। मस्जिद की सीढ़ियों के पास बने कमरे में आरआरएफ़ (रैपिड रेस्पांस फ़ोर्स) का डेरा है। आरआरएफ़ के मुताबिक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन इस मस्जिद में सिर्फ़ स्थानीय लोग ही जा सकते हैं। बाहरी लोगों को अंदर जाने की इज़ाजत नहीं है।

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शहर से सटे फ़िरोजपुर गांव में पुराना क़िला कहे जाने वाले चटियल मैदान पर एएसआई ने चहारदीवारी बना दी है और वक़्त की मार से बचे रह गए क़िले के पत्थरों से बने दरवाज़े की मरम्मत का काम चल रहा है। क़िले का मैदान हालांकि अब भी बच्चों के क्रिकेट खेलने और नई बनी चहारदीवारी आसपास के लोगों के कपड़े सुखाने के काम आती है।

बावन सराय और छत्तीस पुरे की पहचान रखने वाले इस शहर में यों सब कुछ हस्ब-ए-मामूल दिखाई देता है। सड़कों और बाज़ारों में बेहिसाब-बेतरतीब भीड़, निऑन साइनबोर्ड वाली कुछ दुकानें, पुराने ढब के खाने-पीने के ठिकाने—बाबू के होटल पर उड़द-चावल के शौक़ीन जुटते हैं, तो हलीम वाले मारूफ़ और नाज़िम कबाबी के यहां लज़्ज़त के कद्रदान, गुरु के यहां कितनी ही तरह की मिठाइयां बनती हैं, पर शोहरत अब भी उनके पेड़े की है। सींग के कंघे बनाने वालों ने फ़ाइबर बरतने का हुनर भी सीख लिया है और जाने कितने तरह के आभूषण बनाने लगे हैं। दिल्ली में रंगाई-धुलाई के कारख़ानों में काम सीखकर लौटे लोगों ने शहर के बाहरी हिस्सों में जो कारख़ाने लगाए थे, प्रदूषण फैलाने के जुर्म में उनमें से अधिसंख्य पर ताले पड़ गए हैं।

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अड़सठ तीर्थ और उन्नीस कूपों वाली जगह संभल का महात्म्य समझाते हुए प्राचीन श्री कल्कि विष्णु मंदिर के पुजारी महेंद्र शर्मा ने कहा, ‘भगवान कल्कि अवश्य आएंगे। हमारी धर्म-पुस्तकें कहती हैं कि संभल में ही जन्म लेंगे।’ हालांकि उन्हें अफ़सोस है कि संभल की ऐतिहासिकता को कोई तवज्जो नहीं मिली, और न ही संसाधनों के विकास पर ध्यान दिया गया।

पढ़ाई-लिखाई के भी ऐसे साधन नहीं जुट पाए कि नौजवानों को बाहर न जाना पड़ता। शहरियों का पलायन लगातार होता है। यह पूछने पर कि क्या बदला है, कहते हैं कि मंदिर के सामने कभी कच्चा रास्ता था, ऊंटगाड़ियां चलती थीं, अब डामर की सड़क है। संभल को ज़िला तो बना दिया, मगर किसी अफ़सर को दरख़्वास्त देनी हो, तो 25 किलोमीटर दूर बहजोई जाना पड़ेगा। 

मंदिर से निकलकर हम कोट गरवी पहुंचे। मुख्य सड़क पर जहां शौक़त अली रोड का पत्थर लगा था, वहां से जामा मस्जिद की ऊंची दीवार और गुंबद का ऊपरी हिस्सा दिखाई दे रहा था। क़रीब ही ख़ासी चढ़ाई वाला एक तंग रास्ता है, जिसके मुहाने पर कुर्सी डाले आरआरएफ़ के जवान बैठे थे। ऊपर की तरफ़ चढ़ते हुए सामने दो इबारतें चमकती हैं—नई बनी इमारत के माथे पर लगे बोर्ड पर पुलिस चौकी सत्यव्रत और नीचे की तरफ़ मतलूब यार स्ट्रीट का एक पत्थर। इस पत्थर के पहले ही बांस के अवरोध हैं, जिनसे गुज़रकर जाने पर बाईं तरफ़ शाही जामा मस्जिद का बोर्ड दिखाई देता है। इस बोर्ड पर बना तीर जिस ओर इशारा करता है, उधर देखने पर निगाह में सबसे पहले आरआरएफ़ की वर्दियां आती हैं, मस्जिद की सीढ़ियां तो कुछ आगे जाकर मिलती हैं।

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जामा मस्जिद इंतज़ामिया कमेटी के लोगों से फ़ोन पर बात करने के बाद हम सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे कि एक जवान ने रोककर पूछा कि हम लोग शहर के ही हैं या फिर बाहर के। हमारे जवाब और यह बताने के बाद भी कि हम फ़ोटो खींचने नहीं, मस्जिद देखने जा रहे हैं, उसने कहा कि मस्जिद के भीतर सिर्फ़ स्थानीय लोग ही जा सकते हैं, बाहर वाले नहीं। थोड़ी देर में कमेटी के सचिव मसूद अली फ़ारूक़ी और मेंबर ज़ियाउल भी आ गए। सचिव ने कहा कि कोर्ट का ऑर्डर है, आप अंदर नहीं जा सकते। हालांकि ज़िया साहब हम लोगों को अंदर ले गए।

सांझ हो गई थी। आसमान के धूसर होते रंगों के पस-मंज़र में बुलंदी पर आबाद ‘ख़ुदा का वह घर’ बेहद शांत था। कुछ बच्चे ज़रूर वज़ूख़ाने के आसपास आवाजाही करते नज़र आए। ज़िया साहब ने गहरी सांस ली, फिर बोले—पांच सौ साल पहले तामीर हुई थी। इसे लेकर अब आपस में क्यों रार ठानना भला! उनसे बात करते हुए हम वहां से लौट पड़े।

कौन जाने कब और किस दिलजले ने संभल के गुन बताने के लिए कहा होगा—आदमी झूठे, मकान टूटे, ककड़ी कड़वी और बेर काने। इसे कहावत की तरह बरतने वाले इसमें और तुक भी मिलाते गए, मसलन, आम खट्टा और  इंजन उल्टा।

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यों रेल लाइन इस शहर से आगे कहीं नहीं जाती, पीछे ही जाती है और वह भी सिर्फ़ मुरादाबाद तक। उल्टा इंजन की तुक शायद भाप वाले इंजन के ज़माने की बात हो, अब तो ख़ैर डेमू चलती है। और अगर कहीं आप इंटरनेट पर तलाशने बैठेंगे, तो संभल और मुरादाबाद के बीच चलने वाली सबसे तेज़ ट्रेन के बारे में पूछने पर जो जवाब मिलता है, वह संभल हातिम सराय-मुरादाबाद पैसेंजर है। एक बार सुबह और एक बार शाम को मुरादाबाद से आकर ढाई डिब्बे वाली वही ट्रेन लौट जाती है।, जो पांच हॉल्ट स्टेशनों से होकर क़रीब 47 किलोमीटर का सफ़र तक़रीबन तीन घंटे में पूरा करती है।

सोचा था कि शाम वाली ट्रेन के समय तक स्टेशन पहुंच जाऊंगा, पर देर हो गई। ट्रेन जा चुकी थी, तख्तियां जड़े कमरों के दरवाज़े पर ताले थे और प्लेटफार्म बेतरह ख़ामोशी में डूबा हुआ था, हालांकि बाक़ायदा रौशन था। प्लेटफार्म के छोर तक जाते हुए स्टेशन मास्टर के बंद दफ़्तर के बाहर चारपाई पर मच्छरदानी लगाए कोई शख़्स लेटा हुआ मिला। हमारी बातचीत से शायद उसके आराम में ख़लल पड़ा, तो अपनी जैकेट संभालता हुआ वह भी पीछे-पीछे चला आया। वह ट्रैकमैन था, मुंशी, दिन में पटरियों की देखभाल के साथ ही रात को स्टेशन की रखवाली भी उसी के ज़िम्मे थी।

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मैं पुजारी महेंद्र शर्मा के बारे में सोच रहा था, वह 70 बरस के होने को आए, मगर बहुतेरे शहरियों की तरह उन्होंने भी कभी इस ट्रेन की सवारी नहीं की। हालांकि शहर के विकास की मंथर गति के बारे में उनके मलाल का असर बड़ी दूर तक हुआ। अगले रोज़ ही सुबह के अख़बार में पढ़ा कि मुख्यमंत्री ने अफ़सरों के साथ बैठक में कहा कि संभल का विकास सरकार की प्राथमिकता है, कि सरकार तीर्थों और कूपों की पहचान और उनके जीर्णोद्धार के लिए काम कर रही है।

संभल के 60 ठिकानों पर 224 सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। अभी 24 नवंबर को आरआरएफ़ और पीएसी के जवानों के साथ ही 16 सेक्टर मजिस्ट्रेट, डीएम और एसएसपी ने भी शहर में एहतियातन गश्त की। जामा मस्जिद के आसपास के इलाक़ों की निगरानी के लिए ड्रोन तैनात रहे। बाज़ारों में कमोबेश में ख़ामोशी रही। पिछले साल 24 नवंबर को ही जामा मस्जिद के सर्वे के दौरान हुई हिंसा में पांच लोगों की जान चली गई थी। मीडिया को दिए एक बयान में डीएम राजेंद्र पेंसिया ने कहा कि संभल अब पहले जैसा नहीं रहा। उनकी यह बात हमेशा सच हो, यह दुआ भला कौन नहीं करेगा!

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