मुंबई के धारावी में कोई एक व्यक्ति कोरोना संक्रमित पाया जाता है। इतनी भीड़भाड़ वाले इलाके में कैसे पता लगाया जाए कि वह किस किस से संपर्क में आया था? कोरोना से लड़ रही टीमें अपने अपने तरीकों से संपर्क में आए व्यक्तियों की सूची बनाती हैं, फिर उन सबसे भी पूछताछ करती हैं कि वे लोग कहां कहां गए, किस किस से मिले। कोई चेन दिल्ली के निजामुद्दीन तक पहुंचाती है, तो कोई देश के किसी और भीड़भाड़ वाले इलाके में। हर जगह यही सब किया जाता है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह काम कितना मुश्किल है। यह चोर पुलिस जैसा खेल है जिसमें पुलिस इधर उधर चोर का पीछा करती फिर रही है। एक चोर को पकड़ती है तो उसके दस और साथियों का पता चल जाता है, फिर उनके पीछे निकल पड़ती है. पर इस तरह से तो इस खेल का कोई अंत ही नहीं दिखता।
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इसीलिए यूरोप में डॉक्टर और इंजीनियर सरकारों के साथ मिल कर कुछ ऐसे ऐप बनाने में लगे हैं जो पता लगा पाएंगे कि कोरोना संक्रमित लोग कब और किससे मिले। यानी जो काम भारत में टीमें कर रही हैं वह काम तकनीक कर देगी। आइडिया यह है कि स्मार्टफोन में लोकेशन ट्रैकर की मदद से संक्रमित व्यक्ति पर नजर रखी जाए। यह कोई नई तकनीक नहीं है। गूगल जैसी बड़ी कंपनियां ट्रैफिक का हाल बताने के लिए इसी का इस्तेमाल करती हैं। लेकिन अगर सरकार लोकेशन के बहाने आपके फोन में झांक सके, तो निजता का क्या होगा? इस बात की क्या गारंटी है कि फोन में मौजूद बाकी के डाटा को नहीं देखा जाएगा? इस तरह के सवाल लोगों को परेशान कर रहे हैं। खास कर यूरोप में डाटा सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है।
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यूरोपीय आयोग इस वक्त मोबाइल ऑपरेटरों के साथ मिल कर इस पर चर्चा कर रहा है कि कैसे सुरक्षित तरीके से सिर्फ जरूरत का डाटा ही निकाला जाए। फ्रांस और जर्मनी में रिसर्च के मकसद से इसका इस्तेमाल पहले भी होता रहा है। इसके लिए "एनॉनिमाइज एंड एग्रीगेट" तकनीक का इस्तेमाल होता है। इसमें सिर्फ जिस डाटा की जरूरत होती है उसे ही लिया जाता है जैसे कि लोकेशन और यूजर की पहचान को जाहिर करने वाला डाटा सेव नहीं किया जाता। इसके बाद इसे ऐसे एग्रेगेटर में डाला जाता है जहां यह पहचानना नामुमकिन हो जाता है कि कौन सा डाटा किस यूजर से आया। लेकिन कोरोना संक्रमण के मामले में यूजर की पहचान करना भी जरूरी है। ऐसे में इस तकनीक में कैसे बदलाव किए जा सकते हैं, इस पर चर्चा चल रही है।
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एक दूसरा तरीका है जिसमें ब्लूटूथ का इस्तेमाल होता है। अगर आप वायरलेस हेडफोन या स्पीकर इस्तेमाल करते हैं तो आप जानते हैं कि ब्लूटूथ कैसे काम करता है। सिंगापुर की एक कंपनी इसी का इस्तेमाल कर रही है। अगर लोगों के स्मार्टफोन पर इस कंपनी का ऐप डला है और उनका ब्लूटूथ भी ऑन है तो वह आसपास के लोगों के फोन से कोड जमा कर सकता है। इस तरह से पता किया जा सकता है कि क्या किसी पार्क या अन्य सार्वजनिक जगह पर ज्यादा लोग तो जमा नहीं हैं।
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सिंगापुर में इसका इस्तेमाल हो रहा है और जर्मनी भी इसे इस्तेमाल करने पर विचार कर रहा है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि यूजर का सारा डाटा सुरक्षित रहता है, बाहर से कोई उसे नहीं देख सकता। और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह तभी काम करेगा अगर लोग अपनी मर्जी से ऐप और ब्लूटूथ दोनों चलाने को राजी होंगे। यानी अगर कुछ लोग बड़ी संख्या में कहीं जमा होते हैं और सभी का ब्लूटूथ बंद है तो उनकी जानकारी नहीं मिल सकेगी।
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सिंगापुर में जनता ने साथ दिया। सरकार के पास ऐसे लोगों का डाटा था जिनका टेस्ट पॉजिटिव निकला। जब भी कोई ऐसे व्यक्ति के आस पास आया, तो उसके फोन पर मेसेज पहुंच जाता कि आप एक कोविड-19 पॉजिटिव व्यक्ति की रेंज में हैं। इस तरह से लोग सतर्क हो जाते और अपनी रक्षा कर पाते। इसी तरह इजरायल में लोकेशन ट्रैकर का इस्तेमाल किया जा रहा है। भारत सरकार ने भी आरोग्य सेतु ऐप लॉन्च किया है जिसे महज तीन दिनों में 50 लाख से ज्यादा लोग इंस्टॉल कर चुके हैं।
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कोरोना से लड़ने में तकनीक मदद तो कर रही है लेकिन अधिकार संगठनों को चिंता है कि कोरोना संकट के खत्म हो जाने के बाद भी सरकारें इनका इस्तेमाल जारी रखेंगी और इस तरह नागरिकों की निगरानी की जाएगी। एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच और प्राइवेसी इंटरनेशनल जैसे 100 मानवाधिकार संगठनों ने एक साझा बयान जारी कर कहा है, "वायरस से लड़ने के सरकारों के प्रयासों को इनवेजिव डिजिटल सरवेलेंस का बहाना बनने नहीं दिया जा सकता।" कोरोना संकट के खत्म होने के बाद भी अगर कोई सरकार लोगों पर नजर रखती है तो उसे निजता का हनन माना जाएगा।
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