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6 महीने से जंगल की आग में धधक रहा उत्तराखंड, चुनाव में व्यस्त बीजेपी सरकार बेपरवाह

कुछ हिस्सों में आग की वजह ग्रामीण हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर आग रियल एस्टेट लॉबी की करतूत है जो इस जली हुई वन भूमि का उपयोग कॉलोनियां विकसित करने के लिए करती हैं। यह उनकी कार्यप्रणाली रही है और उनकी स्थानीय नौकरशाही के साथ मिलीभगत होती है।

6 महीने से जंगल की आग में धधक रहा उत्तराखंड, चुनाव में व्यस्त बीजेपी सरकार बेपरवाह
6 महीने से जंगल की आग में धधक रहा उत्तराखंड, चुनाव में व्यस्त बीजेपी सरकार बेपरवाह फोटो सौजन्य- कल्पना मेहरा

उत्तराखंड में जंगलों में लगी आग डराने वाली है। सैटेलाइट की तस्वीरों से साफ होता है कि गढ़वाल में 150 और कुमाऊं के जंगलों में 500 से ज्यादा जगहों पर आग लगी हुई है। रिपोर्टों से पता चलता है कि इस आग में अब तक छह लोगों की जान जा चुकी है जिनमें 65 साल की महिला भी शामिल है। अल्मोडा के सिद्ध दूनागिरी मंदिर में तीर्थयात्री अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे क्योंकि मंदिर के बरामदे में आग की तेज लपटें उठ रही थीं।

साल 2000 में जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड एक राज्य बना, तब इसका 65 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र था जिसमें से 42 प्रतिशत घने जंगलों में आता था। पिछले 23 साल राज्य के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं क्योंकि लगातार लग जाने वाली जंगल की आग के कारण 44,518 हेक्टेयर भूमि जलकर खाक हो गई और 11,649 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण हो गया।

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धधक रहा उत्तराखंड, सरकार को परवाह नहीं

इस साल की आग खास तौर पर विनाशकारी रही है क्योंकि यह दिसंबर से ही भड़क रही है। इन आग से राज्य को पहले ही कई सौ हेक्टेयर भूमि का नुकसान हो चुका है जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान नैनीताल, हलद्वानी और रामनगर जिलों में हुआ। इससे पहाड़ी राज्य की पारिस्थितिकी को कितना नुकसान हुआ, इसका हिसाब-किताब लगाना मुश्किल है। 

नैनीताल जिले की निवासी समाजशास्त्री माधवी दारूवाला ने बताया, ‘पिछले दस दिन भयावह रहे हैं। पहाड़ों में आग लगी हुई है और भीम ताल झील जो हमारे क्षेत्र में पानी का स्रोत है, व्यावहारिक रूप से सूख गई है। हम अपनी जल आपूर्ति के लिए स्थानीय झरनों पर निर्भर हैं लेकिन सर्दियों में बारिश की कमी के कारण ये सूख गए हैं। इससे हमारे लिए पानी की बहुत बड़ी समस्या पैदा होने वाली है।’ इसके साथ ही दारूवाला ने कहा, ‘आग सर्दियों में लगी थी और वन विभाग को उस पर तभी काबू पा लेना चाहिए था। सर्दियों में आग सुलग रही थी लेकिन गर्मी ने इन्हें तेज कर दिया है और अब स्थिति यह है कि व्यावहारिक रूप से हर जिला इसकी चपेट में आ गया है।’

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सुरिया गांव, सात ताल के निवासी और प्रकृति अनुकूल सामग्रियों का उपयोग करने वाले ठेकेदार आग्नेय बुधराजा ने कहा, ‘इतना धुआं है कि सांस लेना मुश्किल है। 5 मई को शाम को आग मेरे पड़ोसी के घर तक पहुंच गई। आग पर काबू पाने में हमें तीन घंटे लग गए।’ अप्रैल के अंत  में आग नैनीताल शहर तक पहुंच गई थी और राज्य प्रशासन को भारतीय सेना और वायुसेना कर्मियों से मदद मांगनी पड़ी। नैनीताल के एसडीएम प्रमोद कुमार ने कहा, ‘एमआई-17 हेलीकॉप्टर के जरिये नैनीताल और भीमताल झीलों से पानी लाकर आग को बुझाया जा सका।’

राज्य प्रशासन का दावा है कि इनमें से 90 प्रतिशत आग जो पौढ़ी गढ़वाल, चमोली, अल्मोडा और मसूरी पहाड़ियों के आसपास फैली है, मानवजनित है। गांव वाले ताजी घास उगाने के लिए पारंपरिक रूप से जंगल की सतह को जलाते हैं। एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने कहा, ‘पिछले कुछ हफ्तों में दर्जनों ग्रामीणों को जान-बूझकर आग लगाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।’

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धधक रहा उत्तराखंड, सरकार को परवाह नहीं

देहरादून में रह रही पर्यावरणविद् रीनू पॉल इस दलील को स्वीकार नहीं करती हैं। वह कहती हैं, ‘कुछ हिस्सों में आग की वजह ग्रामीण हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर आग रियल एस्टेट लॉबी की करतूत है जो इस (जली हुई) वन भूमि का उपयोग कॉलोनियां विकसित करने के लिए करती हैं। यह उनकी कार्यप्रणाली रही है और उनकी स्थानीय नौकरशाही के साथ मिलीभगत होती है, वर्ना यह बात गले से नहीं उतरती कि इस आग को अब तक रोका नहीं जा सका।’

राज्य प्रशासन द्वारा अनौपचारिक रूप से यह संदेश देने के बाद कि अतिक्रमणकारियों को ‘इको-उद्यमी’ कहा जाना चाहिए और उन्हें वन भूमि पर कब्जा करने से नहीं रोका जाना चाहिए, ये आग और तेज हो गई। पॉल ने कहा, ‘इससे ​​हमारे जंगलों में अवैध कब्जे में भारी वृद्धि देखी गई है और वन कर्मचारी नजरें चुरा रहे हैं।’

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पॉल इसकी भी निंदा करती हैं कि सरकार इन आग के बारे में सही जानकारी जारी नहीं करती। ‘नमी की कमी के कारण ऊपरी मिट्टी पूरी तरह सूख गई है और इससे बड़े-बड़े पत्थर उखड़ रहे हैं जिसके कारण रामनगर और हलद्वानी क्षेत्र में भूस्खलन हो रहा है। पर्यटन सीजन शुरू हो गया है और इसलिए जनता को उचित जानकारी दी जानी चाहिए ताकि उनकी सुरक्षा खतरे में न पड़े। देखिए, किस तरह छोटे बच्चे दूनागिरी मंदिर में लगी आग की चपेट में आने से खुद को बचाने के लिए भाग रहे हैं। भगवान का शुक्र है कि कोई हताहत नहीं हुआ।’

पिथौरागढ़ के लेखक बीडी कसनियाल बताते हैं, ‘पिथौरागढ़ और मुनिस्यारी के लिए हवाई और हेलीकॉप्टर सेवाएं जंगल की आग और हवाई अड्डे के पास छाई धुएं की मोटी परत के कारण रोक देनी पड़ी है। धुआं 1,000 मीटर तक उतर आया है और हवाई उड़ानों के लिए जरूरी 5,000 मीटर से यह बहुत कम है। धुआं इतना घना है कि अब पहाड़ की चोटियां भी नजर नहीं आ रही हैं।’

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सोर और क्विराला घाटी में बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं और घने धुएं के कारण दृश्यता में कमी की शिकायत करते हैं। झूलाघाट से गौरीघाट जा रहे एक पर्यटक ने कहा, ‘यह चिंताजनक है क्योंकि इससे सड़क दुर्घटनाएं बढ़ जाती हैं।’ राज्य भर के चिकित्सा अधिकारियों ने सांस लेने में कठिनाई और आंखों में जलन की शिकायत लेकर आने वाले रोगियों की संख्या में भारी वृद्धि की जानकारी दी है। झूलाघाट में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के प्रभारी डॉ. चंद्रा रावत ने कहा, ‘हम खास तौर पर बुजुर्ग मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि देख रहे हैं जिन्हें धुएं के कारण सांस लेने में कठिनाई हो रही है।’

देहरादून में रह रहे बुद्धिजीवी एसएमए काजमी का मानना ​​है कि वन पंचायतों की नियुक्ति और समुदाय को जंगलों की देखभाल के लिए प्रोत्साहित करने की ब्रिटिश नीति एक गेम चेंजर थी। ‘स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र और आग की प्रकृति के बारे में अनुभव से विकसित उनकी समझ का फायदा उठाने से आग पर काबू पाने में मदद मिली। काजमी ने कहा, ‘युवाओं और महिलाओं को हमारे जंगलों की देखभाल में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि वे जंगल और ईंधन के लिए इस पर निर्भर हैं।’

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धधक रहा उत्तराखंड, सरकार को परवाह नहीं

जब एक वरिष्ठ वन अधिकारी से पूछा गया कि दिसंबर महीने में आग पर काबू पाने के जरूरी प्रयास क्यों नहीं किए गए, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘राज्य सरकार पिछले छह महीनों से चुनावी मोड में है और हमारे कई कर्मचारी ‘अन्य’ कर्तव्य निभाने में व्यस्त हैं। हमने आग बुझाने में मदद के लिए और पैसे और लोगों की मांग करते हुए कई आवेदन दिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। राज्य सरकार हमारी वन विरासत के प्रति उदासीन है और उसे परवाह नहीं कि यह लगातार खत्म हो रही है।’

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