विचार

मोदी और ट्रंप के एक जैसे हैं हथकंडे, दोनों ही समाज को बांटकर करते हैं वोटों की राजनीति!

ट्रंप के हथकंडे नरेंद्र मोदी जैसे ही हैं, समाज को जोड़ने की जगह बांटो और फिर इसका फायदा उठाओ। आज के नए विश्व में ऐसे हथकंडे खूब फलते-फूलते हैं जबकि पहले इन पर त्योरियां चढ़ जाती थीं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

क्या अमेरिकी इतिहास के सबसे अयोग्य राष्ट्रपति के लिए अनुकूल समय का पहिया रुक गया है? दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति के चुनाव में अब भी पांच माह का वक्त है और राजनीति में यह एक लंबा समय होता है। इस दौरान कुछ भी हो सकता है। याद कीजिए, चारसाल पहले वोट पड़ने में अभी मुश्किल से एक माह का समय था और हिलेरी क्लिंटन को 17 फीसदी की बढ़त हासिल थी; लेकिन अमेरिकी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन की इस घोषणा के कारण सबकुछ उलटा-पलटा हो गया कि एजेंसी हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ इस बात की जांच कर रही है किउन्होंने विदेश मंत्री रहते हुए सरकार के सुरक्षित नेटवर्क के बाहर से ईमेल का आदान-प्रदान किया। ये और बात है कि जांच में किसी तरह की कोई गड़बड़ी नहीं निकली लेकिन हिलेरी को जो नुकसान होना था, वह हो चुका था और उसकी भरपाई नहीं हो सकती थी।

मिनियापोलिस में एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद उथल-पुथलभरे दो हफ्तों और इस घटना को लेकर डोनाल्ड ट्रंप की आपत्तिजनक प्रतिक्रिया को देखते हुए स्पष्ट है कि ट्रंप के दोबारा चुने जाने की संभावना बहुत ही क्षीण है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी किस्मत ऐसे मुकाम पर पहुंच चुकी है जहां उम्मीदें खत्म हो गई हैं। 8 जून को सीएनएन ने एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया है जिसमें 57 फीसदी लोगों ने राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप के कामकाज के प्रति नाखुशी जताई जबकि 38 फीसदी ने सहमति। ऐसा अमेरिका के इतिहास में नहीं हुआ कि चुनाव के इतना करीब आकर कोई राष्ट्रपति ऐसी बुरी रेटिंग के बाद चुनाव में जीतकर आया हो। 55 फीसदी रजिस्टर्ड वोटरों ने जो बिडेन का समर्थन किया जो अब डेमोक्रेट के आधिकारिक उम्मीदवार हैं और 41 फीसदी ने ट्रंप का। दो तिहाई लोगों ने माना कि अमेरिका में नस्लभेद एक बड़ी समस्या है जबकि 2015 में ऐसा मानने वालों की संख्या 49 फीसदी ही थी।

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ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के ही तमाम दिग्गज खुलकर उनके खिलाफ आ गए हैं और इनमें दो बार राष्ट्रपति रहे जॉर्ज बुश, पूर्व राष्ट्रपति उम्मीदवार मिट रोमनी, पूर्व विदेश मंत्री कोलिन पॉवेल जैसे नाम शामिल हैं। इतने बड़े-बड़े नामों का खुलकर एक के पक्ष में आ जाना एक अनूठी घटना ही है। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि नामी-गिरामी चेहरों के विरोध में आने के बाद भी ट्रंप 2016 का चुनाव जीत गए थे। गुलामी से कानूनी असमानता तक अश्वेत अमेरिकियों ने लंबा बुरा दौर देखा है। 1955 में दक्षिणी राज्य अलबामा के मोंटेगोमरी में एक अश्वेत महिला रोजा पार्क बस में अश्वेतों के लिए निर्धारित सीट पर बैठी थी। आगे उसी बस में एक श्वेत घुसता है और तब तक बस में श्वेतों के लिए आरक्षित सीटें भर चुकी थीं। इस परड्राइवर ने रोजा पार्क्स समेत चार अश्वेतों को सीट छोड़ देने को कहा ताकि वहां श्वेत बैठ सकें। पार्क्स ने इनकार किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसी के बाद नागरिक अधिकार आंदोलन शुरू हुआ जिसके लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर को जाना जाता है। मोंटेगोमरी की बसों का 381 दिनों तक बहिष्कार किया गया और1956 में सु्प्रीम कोर्टने श्वेत और अश्वेतों के लिए सीटों की अलग-अलग व्यवस्था को अवैध घोषित किया। 1957 में राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर ने नागरिक अधिकार कानून पर हस्ताक्षर कर नए दौर की शुरुआत की।

हालांकि व्यवहार में भेदभाव बना रहा। 1963 के मार्च में मार्टिन लूथर किंग ने एक मार्च निकाला जो तकरीबन दो लाख लोगों की विशाल रैली में तब्दील हो गया और उसी में किंग ने मंत्र मुग्ध कर देने वाला ‘आई हैव ए ड्रीम’ भाषण दिया। इसके बाद राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने नागरिक अधिकार कानून, 1964 की दिशा में कदम बढ़ाया। कैनेडी की हत्या के एक साल बाद यह कानून प्रभावी हुआ। राष्ट्रपति लिंडॉन जॉनसन ने मतदान अधिकार कानून बनाया जिससे अश्वेत और भी सशक्त हुए। किंग को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया लेकिन 1968 में उनकी हत्या कर दी गई। इसी साल जॉन एफ कैनेडी के प्रगतिशील छोटे भाई और डेमोक्रेट पार्टी से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रॉबर्ड कैनेडी की भी हत्या कर दी गई थी।

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अश्वेतों के साथ अन्याय की घटनाएं होती रही हैं और किसी अश्वेत की हत्या के बाद प्रदर्शन भी होते रहे हैं, कई बार ये प्रदर्शन हिंसक भी हुए लेकिन फ्लॉयड की हत्या के बाद अमेरिका के 50 राज्यों में जिस तरह की अशांति फैल गई है, वह अभूतपूर्व है। 84 फीसदी अमेरिकियों ने लोगों के गुस्से को वाजिब ठहराया है।

ट्रंप को विरासत में ऐसी अर्थव्यवस्था मिली थी जो 2008-09 की मंदी से उबरकर दोबारा रफ्तार पकड़ चुकी थी। 2014 की दूसरी तिमाही के दौरान ओबामा के कार्य काल में ही अर्थव्यवस्था 5.5 फीसदी की जीडीपी विकास दर के स्तर पर पहुंच चुकी थी लेकिन ट्रंप के कार्यकाल के दौरान 2019 की अंतिम तिमाही में यह 2.1 फीसदी के स्तर तक गिर चुकी है, इसके साथ ही अब कोरोना वायरस के कारण तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था आधिकारिक तौर पर मंदी में आ चुकी है। अप्रैल में बेरोजगारी दर 14.7 फीसदी थी जो 1930 की महामंदी के बाद सबसे बुरी स्थिति थी, हालांकि लॉकडाउन के आंशिक रूप से वापस लेने के बाद मई के अतं में बेरोजगारी दर थोड़ा सुधरकर 13.3 फीसदी जरूर हो गई (स्रोतः यूएस ब्यूरो ऑफ लेबरस्टैटिसटिक्स)। फिर भी इसकी कोई उम्मीद नहीं कि राष्ट्रपति चुनाव से पहले यह कोविड-19 से पूर्व की स्थिति में आ पाएगी।

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स्वास्थ्य आपातकाल से निपटने की ट्रंप की रणनीति खतरनाक ही रही है। उन्होंने इस मुश्किल वक्त के लिए चीन, विश्व व्यापार संगठन..., ऐसा लगता है कि खुद को छोड़ कर सभी को दोषी ठहरा दिया है। अमेरिका में मरने वालों की संख्या अधिकतर मौत वाले देश से भी दोगुनी रही है और अमेरिका एकमात्र ऐसा देश है जिसमें मृतक संख्या छह अंकों में पहुंच चुकी है। अमेरिका के वोटरों को यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या इस विपत्ति को टाला जा सकता था? इसकी वजह है। लंबे अरसे तक तो वह मंडरा रहे खतरे को मानने को तैयार नहीं थे। उसके बाद उन्होंने संक्रमण के दूसरे दौर के हमले की आशंकाओं को दरकिनार करते हुए आनन-फानन में लॉकडाउन उठा लिया। यहां तक कि श्वेत कट्टरपंथियों, एक ऐसा समूह जिस पर ट्रंप काफी हद तक निर्भर करते हैं, के भी तमाम लोग ट्रंप के प्रदर्शन से नाखुश हैं। आयरिश टाइम्स के एक स्तंभ लेखक ने कहा कि सदियों में ऐसा पहली बार हो रहा है कि अमेरिका के प्रति दुनिया की संवेदनाएं इस हद तक दयनीय हो गई हैं। जबकि उनकी तुलना में जो बिडेन का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। उनके चहेतों की भीड़ में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जिन्होंने ट्रंप को हराने की जैसे कसम खा रखी हो। फ्लॉयड की अंत्येष्टि से पहले बिडेन को आमंत्रित करके उनके परिवार ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि वह कहां खड़ा है और बिडेन ने भी पूरी दृढ़ता के साथ जरूरी संदेश दे दियाः “मैं अमेरिका को लंबे समय से आहत कर रहे नस्लीघाव को भरूंगा और इनका राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं करूंगा।” इसके साथ ही ट्रंप पर टिप्पणी की कि “उनकी उदासीनता के कारण कितने लोगों की जान गई, इससे वह मुंह फेरे हुए हैं।”

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ट्रंप के हथकंडे नरेंद्र मोदी जैसे ही हैं, समाज को जोड़ने की जगह बांटो और फिर इसका फायदा उठाओ। आज के नए विश्व में ऐसे हथकंडे खूब फलते-फूलते हैं जबकि पहले इन पर त्योरियां चढ़ जाती थीं। इसे सोशल मीडिया से बढ़ावा मिलता है जो तमाम झूठ, दुष्प्रचारऔर मूखतापूर्ण विचार परोसता है जिसे बड़ी संख्या में लोग सच मान बैठते हैं। आज की चुनावी रणनीति मुख्यतः तीन तरह के लोगों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती है- ‘पक्ष, विपक्ष और अनिश्चित’। चुनावी रणनीति में तीसरी श्रेणी के लोगों को लक्ष्य किया जाता है और उन पर जैसे झूठ-दुष्प्रचार की बमबारी कर दी जाती है जिससे उन्हें अपने पक्ष में किया जा सके।

खुफिया एजेंसियां दूसरे देशों में अपनी पहुंच मजबूत करने के लिए लंबे समय से वहां की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती रही हैं। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में डिजिटल तकनीक के माध्यम से क्या इसी तरह का कोई हस्तक्षेप हुआ, इस बारे में जूरी को किसी नतीजे पर पहुंचना अभी बाकी है। इतना तय है कि कुछ ताकतों के लिए हिलेरी क्लिंटन निश्चित तौर परए क अभेद्य दीवार की तरह थीं। ट्रंप की ऐसी क्या निजी कमजोरियां हैं जो उन्हें दूसरे देशों के लिए भेद्य बनाती हैं, हो सकता है कि बाद में कभी सामने आए। फिलहाल, ट्रंप के डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट की बिडेन के राजनीतिक जीवन पर पैनी नजर होगी जिससे कि उन पर कीचड़ उछाला जा सके। बिडेन की एक पूर्व स्टाफ तारा रीड ने उन पर यौन शोसन का आरोप लगा ही दिया है।

बहरहाल, ट्रंप के फिर से चुने जाने की संभावनाएं बहुत ही कम हैं लेकिन राजनीति में पांच माह का समय मैराथन जैसा होता है। 3 नवंबर को जब तक अंतिम वोट की गिनती न हो जाए, आत्ममुग्धता के लिए कोई जगह नहीं है।

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