विचार

सबकी हो गिनती, तभी जनगणना का मतलब, विकलांगो को शामिल करना कोई दानकर्म तो नहीं!

ऐतिहासिक रूप से जनगणनाओं में विकलांग लोगों की उपेक्षा की जाती रही है। इस बार न्याय की आशा, लेकिन चुनौतियां कम नहीं 

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Getty Images Debajyoti Chakraborty
जनगणना लोगों की गिनती भर नहीं। यह योजना, नीति और राजनीतिक ताकत की बुनियाद है। क्या होगा जब यह गिनती अधूरी रह जाए, अनजाने में लाखों लोग इससे बाहर रह जाएं? भारत में विकलांग लोगों के संदर्भ में यह सवाल सैद्धांतिक नहीं, जीती-जागती सच्चाई है।

पिछली जनगणना 2011 में हुई थी और तब भारत की आबादी का सिर्फ 2.2 फीसदी हिस्सा विकलांगता से पीड़ित पाया गया। यह आंकड़ा खासा विवादित है। विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमानों के मुताबिक, दुनिया में विकलांगता करीब 15 फीसदी है। इसका मतलब है कि भारत में इनकी संख्या तकरीबन 20 करोड़ होनी चाहिए। यानी इतने लोग गिनती में आने चाहिए, लेकिन उनके सामने नहीं गिने जाने का जोखिम है। इतने बड़े पैमाने पर छूटने को संख्या में अंतर के रूप में नहीं बल्कि पहचान से महरूम किए जाने के तौर पर देखा जाना चाहिए। 

जब विकलांगता को गायब कर दिया जाता है, तो वह महत्वहीन भी हो जाती है। न तो सेवाओं की योजना बनाते समय और न ही बुनियादी ढांचा खड़ा करते समय विकलांगों को ध्यान में रखा जाता है। और इस तरह, अधिकार आकांक्षाएं बनकर रह जाती हैं। स्कूल भवनों से लेकर जॉब पोर्टल तक हर जगह उन्हें नजरअंदाज किया जाता है और ऐसे बहिष्कार की शुरुआत गलत गिनती से होती है। 

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उपेक्षा का इतिहास

समस्या आज की नहीं। इसकी जड़ें औपनिवेशिक युग की उस सोच में हैं, जिसमें विकलांगता को एक दोष माना जाता था, ऐसा दोष जिसके प्रति दया का भाव रखना चाहिए। 1872 में हुई पहली भारतीय जनगणना में ‘अशक्तता’ पर अस्पष्ट प्रश्न रखे गए थे। परिणाम अविश्वसनीय आए और उसके बाद इन प्रश्नों को हटा दिया गया। दुनिया भर में बने माहौल के बाद 1981 की जनगणना में विकलांगता को फिर से शामिल किया गया, लेकिन परिभाषा संकीर्ण और कार्यप्रणाली तब भी खराब ही रही।

विकलांगता की गणना दिखने वाले कारकों पर निर्भर करती है। अदृश्य और संज्ञानात्मक विकलांगताओं की अनदेखी कर दी जाती है। कलंकित होने के भय से परिवार के लोग भी इसे छिपाते हैं। अगर प्रमाणपत्र न हो तो ऐसे लोगों को विकलांग मानने से सिरे से खारिज कर दिया जाता है। बिना प्रमाण पत्र वाले कई लोगों को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाता है। ये खामियां यूं ही नहीं। वे व्यवस्थात्मक पूर्वाग्रहों और धारणाओं को दिखाती हैं कि कौन गिनने लायक हैं। 

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सरकार ने घोषणा की है कि 2026-27 की जनगणना में विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत सूचीबद्ध सभी 21 श्रेणियां शामिल होंगी। कागज पर यह बड़ा बढ़िया दिखता है। अधिकारियों का कहना है कि वे कार्यात्मक प्रश्नों और सांकेतिक भाषा का उपयोग करेंगे, लेकिन इसे कैसे लागू किया जाएगा, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं। 

संरचनात्मक बदलावों के बिना यह बड़ी आसानी से महज दिखावा होकर रह जा सकता है- क्योंकि केवल अधिसूचना इसकी गारंटी नहीं है कि यह अभ्यास ईमानदारी से या जरूरत के मुताबिक किया जाएगा। अभी इस पर कोई स्पष्टता नहीं कि गणनाकर्ताओं को कैसे प्रशिक्षित किया जाएगा, सर्वेक्षणों में विकलांगता को कैसे परिभाषित किया जाएगा, या बिना प्रमाणपत्र वाले मामलों में क्या किया जाएगा। साफ है, गलत गिनती का वास्तविक खतरा अब भी बना हुआ है। 

सबसे अहम है अमल 

जनगणना प्रक्रिया को वास्तव में समावेशी बनाने के लिए, सरकार को विकलांग व्यक्तियों और उनके प्रतिनिधि संगठनों को प्रक्रिया के केन्द्र में रखना होगा। सिविल सोसाइटी समूहों, ऐक्टिविस्ट और अनुभवी लोगों को इस प्रक्रिया की योजना, प्रशिक्षण और समीक्षा के विभिन्न चरणों का हिस्सा बनाना चाहिए।

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गणनाकर्ताओं को न केवल परिभाषाओं पर बल्कि सही भाषा का उपयोग करने और गोपनीयता का सम्मान करने के तरीके पर भी प्रशिक्षित करने की जरूरत होगी। उन्हें ऐसे प्रश्न पूछने के लिए निर्देश और प्रशिक्षण- दोनों की जरूरत होगी, जिसे साबित करना न पड़े। जैसे: ‘क्या आपको देखने, याद रखने, सुनने या चलने में कठिनाई होती है?’ किसी व्यक्ति के ‘विकलांग’ होने के बारे में पूछने की तुलना में इस तरह से बेहतर जवाब पा सकते हैं।

सरकार को इसके लिए बड़ा जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए कि गिने जाने के लिए प्रमाण-पत्र होना जरूरी नहीं। ऑटिस्टिक बच्चों से लेकर बाईपोलर डिसऑर्डर के शिकार वयस्कों तक, तमाम लोग केवल इसलिए डेटा में नहीं आ पाते क्योंकि उन्हें नौकरशाही का खौफ होता है या फिर इस बात का कि लोग क्या कहेंगे। और संख्या में कम होने का सीधा-सीधा राजनीतिक परिणाम होता है। इसलिए जरूरी है कि गिनती का काम ऐसे किया जाए कि विकलांग व्यक्ति अपनी स्थिति का खुलासा करने में सुरक्षित महसूस करें। जब तक लोगों को लगता है कि विकलांग के रूप में पहचाने जाने से उन्हें नुकसान होगा, वे चुप रहेंगे। एक मददगार माहौल बनाने के लिए सार्वजनिक संदेश, कानूनी सुरक्षा और संस्थागत जवाबदेही की जरूरत होती है।

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परिसीमन आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उच्च विकलांगता आबादी वाले क्षेत्रों को पुनःसीमांकन प्रक्रिया में खंडित न किया जाए। इन समुदायों को विभाजित करने से उनका सामूहिक राजनीतिक प्रभाव और अधिकारों और पात्रता तक पहुंच कमजोर हो जाती है। जनगणना से पहले ही सभी संस्थानों को अपनी प्रथाओं की समीक्षा करनी चाहिए। उनके पास कितने विकलांग कर्मचारी हैं? क्या जॉब पोर्टल उनके मददगार तकनीक के अनुकूल हैं? क्या विविधता नीतियों में न्यूरोडाइवर्जेंस शामिल है? क्या सार्वजनिक इमारतें वास्तव में सुलभ हैं या सुलभता का दिखावा भर कर रही हैं? 

डेटा सही होने का चौतरफा असर होता है। गिनती में विफल होने का मतलब है योजना बनाने में विफल होना। और योजना बनाने में विफल होने का सीधा सा मतलब है बहिष्कृत हो जाना। न केवल इस बार की जनगणना देरी से हो रही है; बल्कि विकलांग व्यक्तियों को न्याय दिलाने में भी देरी हो रही है। भारत के पास दशकों की चूक को सुधारने का मौका है। लेकिन आगे का रास्ता केवल घोषणाओं से तय नहीं किया जा सकता। इसके लिए भरोसा बनाना होगा, गिनती करने वालों को सही तरह से प्रशिक्षण करना होगा और यह सारा काम पूरी पारदर्शिता के साथ होना होगा।

विकलांगों की गिनती कोई दानकर्म या अनुपालन से जुड़ा विषय नहीं। यह हर जिंदगी, इसके हर रूप और स्वरूप को ससम्मान स्वीकार करने के बारे में है। एक अच्छी जनगणना सभी की गिनती करती है। एक सार्थक जनगणना सुनती है, सीखती है और बदलाव लाने में मदद करती है।

(पुनीत सिंह सिंघल विकलांगों के लिए काम करने वाले ऐक्टिविस्ट हैं।)

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