साल 2024 के चंद हफ्तों ने ही निक्की जियोवानी, ज़ाकिर हुसैन और श्याम बेनेगल जैसे लोगों को हमसे छीन लिया जिन्होंने अपनी सोच, अपनी संजीदगी और अपनी जिंदगी से हमें राह दिखाई कि कैसे मिल-जुलकर रहना चाहिए। हमसे कहीं दूर फिलस्तीन, सूडान और यूक्रेन में रह रहे लोगों के लिए यह साल बेइंतहा तकलीफ वाला रहा। दुनिया ने इन लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया, मानो हमारे लिए मिल-जुलकर साथ रहने का कोई मतलब ही नहीं रहा।
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और फिर आता है दिल्ली की आम आदमी सरकार का फरमान कि दिल्ली सरकार के स्कूलों में अवैध बांग्लादेशियों को दाखिला नहीं दिया जाएगा। यह और बात है कि दिल्ली सरकार ने इसी साल अप्रैल में दाखिला सर्कुलर जारी करते हुए कहा था कि ‘किसी भी निराश्रित, शरणार्थी/शरण के लिए आवेदन करने वाले, बेघर, प्रवासी, अनाथ बच्चे को दाखिले से वंचित नहीं किया जाएगा।’
इस तरह, 2024 का अंत बच्चों के शरीर पर लड़ी जा रही राजनीतिक लड़ाइयों के गहराने से हो रहा है। यह ग्रह आखिर कब तक बचेगा जब तरह-तरह की सीमाएं खींची जा रही हों, मानो गेटेड-कम्युनिटी वाली सोच ही स्थायी नजरिया बन गया हो? यह भी सोचना होगा कि जब तक भी यह ग्रह जिंदा रहेगा, तब तक हम कैसे जी पाएंगे?
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इस साल हर सुबह न्यूज फीड को स्क्रॉल करते हुए मैंने महसूस किया कि इस दौर में कैसे जीएं। इस मामले में हम फिलिस्तीनियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। पिछले दो साल में फिलिस्तीनियों ने हमें सिखाया है कि यह उम्मीद छोड़ने का समय नहीं। उन्होंने युद्ध अपराधों का दस्तावेजीकरण किया है, विकसित देशों के पाखंड के बारे में लिखा है, फैलाई जा रही मनगढ़ंत बातों की सच्चाई सामने लाई है और कॉरपोरेट मीडिया को उसकी पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता के लिए निशाने पर लिया है।
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यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि यह सब करते हुए भी उन्होंने सब्जियां उगाने, खाना बनाने, पतंग उड़ाने, साइकिल चलाने, कहानियां सुनाने, चित्र उकेरने, सूर्यास्त की खूबसूरती को निहारने और इसकी भव्यता से प्रेरित होने जैसे रोजमर्रा के क्रियाकलापों को जारी रखा है। जब वे न्याय और समानता के लिए दिल से और पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ लड़ सकते हैं तो भला हम कैसे निराश हो सकते हैं?
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बच्चों के लिए सामग्री लिखने वाली और विद्वान कैथरीन रंडेल ने इंस्टाग्राम पर किशोरों और युवा वयस्कों के लिए एक पोस्ट किया जो पूछ रहे थे कि इस समय में अपनी थोड़ी-सी शक्ति के साथ वे कैसे जीएं। कैथरीन ने इसके लिए दो उपाय सुझाए। पहला- अपनी अंतरात्मा को बचाए रखना ताकि दुनिया की बुराई हमारे दिल-ओ-दिमाग को तोड़ न सके। और दूसरा- ‘मजबूती के साथ उस आशा का दामन थामे रखना जो निष्क्रिय आत्म संतुष्टि नहीं बल्कि जोशीली, सक्रिय, राजनीतिक रूप से सूचित, दृढ़ इच्छाशक्ति से मजबूती पाती हो क्योंकि भविष्य के लिए निराशा को अस्वीकार करना हमारा कर्तव्य है।’
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मैं 10 साल के रेनाड अत्ताला जैसे बच्चों को गाजा के खौफनाक हालात में भी रोजाना फिलिस्तीनी व्यंजन पकाने में आनंद लेते देखती हूं। मैं बिसन ओवडा को हर दिन रिपोर्टिंग करते हुए और हमें नवीनतम हमलों के बारे में अपडेट करते हुए, फिर भी बच्चों के साथ खेलने या किताबें पाने की उनकी खुशी साझा करने के लिए समय निकालते हुए देखती हूं। मैं ‘गाजा सनबर्ड्स’ को अपनी साइकिलों पर प्रशिक्षण लेते हुए और मदद पहुंचाने के नित नए तरीके खोजते हुए देखती हूं। ये उम्मीदें जगाते हैं। ये वह बैरिकेड बनाने की ईंटे हैं जिसे दुश्मन पार नहीं कर सकेगा।
(समीना मिश्रा डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर, लेखिका और शिक्षिका हैं)
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