विचार

जीएम फसलः पौष्टिक खाद्यों को भी खतरनाक बना रही हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियां, सरकारें दे रही हैं बढ़ावा

यूनियन आफ कन्सर्नड साईंटिस्टस नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों और पर्यावरण को कई खतरे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पौष्टिक खाद्यों को भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किस तरह खतरनाक बना रही हैं, इसका उदाहरण अमेरिकी पत्रिका एपोच में हाल ही में प्रकाशित लेख में दिया गया है। इस चर्चित लेख में मेलिसा डी. स्मिथ ने बताया है कि जब से संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्के की अधिकतर फसल को जीएम फसल में बदला गया है और जीएम फसल से जुड़े खतरनाक खरपतवार नाशकों का उपयोग इसमें हुआ है, तब से इससे जुड़ी अनेक स्वास्थ्य समस्याएं सामने आ रही हैं।

इस विषय पर हुए वैज्ञानिक अनुसंधान का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि किडनी और लिवर पर मक्के की जीएम फसल का प्रतिकूल असर विशेष तौर पर हो रहा है। इस लेख में ऐसे अनेक लोगों के अनुभव बताए गए हैं जो कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से त्रस्त थे, पर जीएम मक्के को खाना छोड़ा तो यह स्वास्थ्य समस्याएं आश्चर्यजनक तौर से दूर हो गईं या बहुत कम हो गईं।

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पर सवाल यह है कि जीएम मक्के को छोड़ना इतना सरल नहीं है क्योंकि जीएम मक्के के सिरप और तरह-तरह के उत्पादों का उपयोग बहुत से बड़े उद्योगों में उत्पादित और प्रोसेस किए गए खाद्यों में हो रहा है। अब भला कोई ऐसे खाद्यों की पहचान कैसे करे कि किस में जीएम मक्का किसी न किसी रूप में मौजूद है कि नहीं। इस उदाहरण से पता चलता है कि एक बार जीएम खाद्यों का प्रवेश खाद्य व्यवस्था व खाद्य चक्र में हो जाए तो इससे बचना कितना कठिन है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त की गई फसलों (जीएम फसलों या जीई फसलों) का मनुष्यों और सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जी.ई. फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक ‘जेनेटिक रुलेट् (जुआ)’ के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीई फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है और जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

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यूनियन आफ कन्सर्नड साईंटिस्टस नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों और पर्यावरण को कई खतरे हैं। इंडिपेंडेंट साईंस पैनल में मौजूद 11 देशों के वैज्ञानिकों ने जीई फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्म विकार, गर्भपात आदि।

भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में इस विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई। पत्र में कहा गया कि जीएम प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है और उसके पोषण गुण कम हो सकते हैं या बदल सकते हैं।

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उदाहरण के लिए मक्के की जीएम किस्म जीएम एमओएन 810 की तुलना गैर-जीएम मक्का से करें तो इस जीएम मक्का में 40 प्रोटीनों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण हद तक बदल जाती है। जीव-जंतुओं को जीएम खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जीएम खाद्य के गुर्दे (किडनी), यकृत (लिवर) पेट और निकट के अंगों (गट), रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन और प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी सिस्टम) पर नकारात्मक स्वास्थ्य असर सामने आ चुके हैं।

17 वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया है कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके सन्दर्भ में भी अध्ययनों से यह नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नजर आए हैं जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर स्वीकृति दे दी जाती है और आज भी दी जा रही है।

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इन वैज्ञानिकों ने कहा कि जिन जीव-जंतुओं को बीटी मक्का खिलाया गया उनमें प्रत्यक्ष विषैलेपन का प्रभाव देखा गया। बीटी मक्के पर मानसैंटो ने अपने अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन किया तो अल्पकालीन अध्ययन में भी नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी की रिएक्शन का खतरा जुड़ा हुआ है। बीटी बैंगन जंतुओं को फीड करने के अध्ययनों पर महको-मानसेंटो ने जो दस्तावेज तैयार किया, उससे लिवर, किडनी, खून और पैंक्रियास पर नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम विभिन्न जीव-जंतुओं पर (विशेषकर चूहे, खरगोश और बकरी पर) नजर आते हैं।

अल्पकालीन (केवल 90 दिन या उससे भी कम) अध्ययन में भी यह प्रतिकूल परिणाम नजर आए जबकि जीवन-भर के अध्ययन से और भी कितने प्रतिकूल परिणाम सामने आते, इस पर प्रश्न खड़े हो गए हैं। अतः इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि बीटी बैंगन के सुरक्षित होने के दावे का कोई औचित्य नहीं है। यह दावा तो बस इस आधार पर किया जा सका कि महको-मानसेंटो के आंकड़ों की व्याख्या को बिना जांचे-परखे स्वीकार कर लिया गया। थोड़े से भी दीर्घकालीन, कम से कम 2 वर्ष के अध्ययन तो किए ही नहीं गए।

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बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने और अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डा. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है और इस गंभीर चिंता के विषय को उपेक्षित किया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं और जीएम फसल के आने के बाद ही यह समस्याएं देखी गईं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी कॉटन बीज और खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने और प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।

बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जो दस्तावेज जारी किया था, उसमें उन्होंने बताया था कि स्वास्थ्य के खतरे के बारे में उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक और भारतीय सरकार के औषधि नियंत्रक से चर्चा की थी। इन दोनों अधिकारियों ने कहा कि विषैलेपन और स्वास्थ्य के खतरे संबंधी स्वतंत्र टेस्ट होने चाहिए। केवल उत्पाद बेचने वाली कंपनी के टेस्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

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लगभग 100 डाक्टरों का एक संगठन है ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर’। इस संगठन ने भी पर्यावरण मंत्री को जी.एम खाद्य और विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी। उनके दस्तावेज में बताया गया कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिका अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जी.एम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं और इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।

तीन वैज्ञानिकों में वान हो, हार्टमट मेयर और जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज इकाॅलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है। इस दस्तावेज के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी ‘सूअर’ या ‘सुपरपिग’, जिसके लिए मनुष्य की वृद्वि के हारमोन प्राप्त किए गए थे, बुरी तरह ‘फ्लाप’ हो चुका है। इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अन्धा था और नपुंसक था।

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इसी तरह तेजी से बढ़ने वाली मछलियों के जीन्स प्राप्त कर जो सुपरसैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था, वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी और इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी। बहुचर्चित भेड़ डाॅली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे और सामान्य भेड़ के बच्चों की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुणा अधिक पाई गई।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के इन अनुभवों को देखते हुए उससे प्राप्त भोजन को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह सोचने-विचारने का विषय है। अतः यह स्पष्ट है कि भोजन की सुरक्षा के लिए कई नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। विशेषकर शाकाहारियों के लिए एक अलग चिंता का विषय है कि उनके भोजन में न जाने किस जीव के जीन डाले गए हों। इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए और उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए। पर सबसे जरूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जी.एम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए।

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