संस्कृत की कहावत है- ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्, यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। इसका मतलब है कि जब तक जीवन है, सुख-सुविधाओं और विलासिता के साथ जियो, भले ही इसके लिए ऋण लेना पड़े। इस कहावत पर गुजरात एकदम खरा उतरा है। जब बीजेपी पहली बार 1995 में गुजरात में सत्ता में आई थी, उस समय राज्य का सार्वजनिक ऋण लगभग 10,000 करोड़ रुपये था। 2001-02 में जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री बने, तब तक कर्ज 45,301 करोड़ रुपये हो चुका था। 2014 में जब मोदी दिल्ली की गद्दी संभालने के लिए रवाना हुए, तो कैग के मुताबिक, राज्य का कुल कर्ज 2.21 लाख करोड़ था।
अब आइए 2021-22 में। राज्य का कुल ऋण 3.20 लाख करोड़ रुपये के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गया है जो चालू वर्ष (2022-23) के वार्षिक बजट 2.43 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है। इतना ही नहीं, राज्य जिस ढर्रे पर चल रहा है, उसके मुताबिक इसका सार्वजनिक कर्ज 2024-25 के अंत तक बढ़कर 4.49 लाख करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है।
राज्य के वित्तमंत्री कानू देसाई ने इस साल मार्च में बजट पेश करते हुए कर्ज के आंकड़े साझा किए लेकिन उन्होंने इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि राज्य कर्ज के जाल में किस तरह फंसता जा रहा है। उसे अगले 7 सालों में 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज का 61 प्रतिशत भुगतान करना है। नियत्रंक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की विधानसभा में पेश रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि राज्य को 2028 तक 1.87 लाख करोड़ रुपये चुकाने होंगे। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि जहां राज्य का सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 2016-21 के बीच 9.19 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ा है, वहीं सार्वजनिक ऋण 11.49 प्रतिशत की दर से अधिक हुआ है।
राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का घाटा बढ़कर 30,400 करोड़ रुपये हो गया है और कैग ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया कि सरकार गुजरात राज्य पेट्रोलियम निगम (जीएसपीसी) और गुजरात सड़क परिवहन निगम (जीएसआरटीसी) जैसे निकायों में निवेश करना जारी रखे हुए है जिनकी हालत खस्ता है। जीएसपीसी में 1,000 करोड़ रुपये और जीएसआरटीसी में 469 करोड़ रुपये का निवेश किया गया जिनकी नेटवर्थ निगेटिव है। गुजरात में राज्य
सरकार की 97 सार्वजनिक इकाइयां, 64 सरकारी कंपनियां, 29 सरकार नियत्रिंत कंपनियां और चार वैधानिक निगम हैं। हर दो साल पर गुजरात ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के आयोजन से नरेन्द्र मोदी की छवि चमकाने में मदद मिली और वह ‘विकास पुरुष’ बनकर राष्ट्रीय राजनीति में पहुंच गए। 2003 में पहले गुजरात ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से लेकर 2015 में आयोजित सातवें समिट के बारे में राज्य सरकार ने दावा किया कि उसने 84 लाख करोड़ रुपये की निवेश प्रतिबद्धताएं हासिल करने में सफलता पाई है। इसमें से 20.83 लाख करोड़ रुपये का योगदान तो अकेले 2011 सम्मेलन का रहा।
2017 में आठवें शिखर सम्मेलन के दौरान तत्कालीन मुख्य सचिव जे.एन. सिंह ने दावा किया कि अब तक किए गए वादों में से 66 प्रतिशत व्यवहार में आ चुके हैं। हालांकि इस आंकड़ें पर तब किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया लेकिन ये बेमानी तो लग ही रहे थे। खास तौर पर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि 2017-18 में भारत की जीडीपी 131.80 लाख करोड़ रुपये थी। जब इन आंकड़ों पर इधर-उधर चर्चा की जाने लगी तो आखिरकार राज्य सरकार ने आसमानी दावे करने से तौबा कर ली। इसने निवेश प्रतिबद्धताओं को रुपये के संदर्भ में बताना बंद कर दिया और अब इस सम्मेलन से ‘निवेशक’ शब्द को भी हटा दिया गया है।
राज्य सरकार ने जो हवाई दावे किए, उसकी पोल उसी के एक सरकारी विभाग ने खोल दी। राज्य के आर्थिक एवं सांख्ययिकी निदेशालय ने स्वीकार किया कि 2003 और 2011 के बीच की गई प्रतिबद्धताओं में से केवल 8 प्रतिशत ही जमीन पर उतर सकीं। वित्तीय पर्यवेक्षकों और विशेषज्ञयों ने यह भी बताया कि वर्ष 2000 से 2016 के बीच महाराष्ट्र ने भारत के कुल निवेश का 30 प्रतिशत हासिल किया था जबकि गुजरात ने महाराष्ट्र में किए गए निवेश के 10 फीसद से कुछ ही ज्यादा हासिल करने में सफलता पाई थी और वह पांचवें स्थान पर रहा था। औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग (डीआईपीपी) के एक अध्ययन के मुताबिक, 2000 और 2013 के बीच भारत में जितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया, उसमें गुजरात की हिस्सेदारी केवल 4 फीसद थी। इस अवधि के दौरान पूरे देश में 9.1 लाख करोड़ का एफडीआई आया और उसमें गुजरात को सिर्फ 39,000 करोड़ मिले। गुजरात का हिस्सा वास्तव में 2011 में 3.4 प्रतिशत से घटकर 2012 में 2.9 प्रतिशत और 2013 में 2.4 प्रतिशत हो गया।
बीजेपी गुजरात में लगातार 27 साल से सत्ता में है। इनमें से 13 साल तो नरेन्द्र मोदी ही मुख्यमंत्री थे। 2000 और 2010 के बीच प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय में राज्य चौथे से फिसलकर ग्यारह वें स्थान पर आ गया और इस अवधि के दौरान स्वास्थ्य पर राज्य का कुल खर्च 4.39 प्रतिशत से घटकर 0.77 प्रतिशत रह गया। 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में गुजरात में अस्पतालों की भी पोल-पट्टी खुल गई। इसमें कहा गया था, ‘प्रति हजार लोगों पर देश में अस्पताल बिस्तरों का औसत 0.55 है जबकि गुजरात में यह महज 0.33 है। गुजरात में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की कुल संख्या बिहार से कम है जबकि बिहार में ग्रामीण सरकारी अस्पतालों की संख्या केवल एक तिहाई है। इसके अलावा बड़ी संख्या में सरकारी अस्पतालों का निजीकरण कर दिया गया है। एक मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे की अनुपस्थिति के साथ-साथ शिक्षा के लिए निवेश में भी गिरावट आई है। गुजरात अपनी आय का 2 प्रतिशत से भी कम शिक्षा पर खर्च करता है। नतीजतन, राज्य के लगभग 45 प्रतिशत कार्यबल निरक्षर हैं या उन्होंने केवल पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई की है।’यह बात राज्य में मंत्रियों की शैक्षिक पृष्ठभूमि से भी साबित होती है।
एसोसिएशन फॉर डिमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने 2017 की एक रिपोर्ट में बताया कि गुजरात के 9 मंत्रियों ने कक्षा 5 से 12 तक पढ़ाई की हुई थी जबकि 9 की शिक्षा स्नातक या उससे अधिक की थी। 2021 में सभी मंत्रियों के बदले जाने के बाद, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि भूपेंद्र पटेल मंत्रिमंडल में छह मंत्रियों ने उच्च माध्यमिक परीक्षा पास की है जबकि छह अन्य की शिक्षा कक्षा 10 तक है।
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