विचार

‘मेरे तो खून में थी बीजेपी, लेकिन अब मैं दूंगा कांग्रेस को वोट’: गुजरात के युवा तैयार हैं बदलाव के लिए

गुजरात बीते 22 सालों से जारी नफरत और बदले की भावना से ओत-प्रोत राजनीति से उबर रहा है। पीढ़ियों से बीजेपी को वोट देने वाले युवा अब बदलाव लाना चाहते हैं। वे कांग्रेस में उम्मीदें देख देख रहे हैं

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया पिछले साल अहमदाबाद हुई एक रैली की फाइल फोटो

मैं अहमदाबाद आया हुआ था। मैंने ऑटो वाले से पूछा कि इस बार कौन जीत रहा है। तपाक से जवाब मिला, कांग्रेस। इतना ही नहीं थोड़ा बातूनी ऑटो वाला बोला, “मैंने जिंदगी में कभी कांग्रेस को वोट नहीं दिया, हमेशा बीजेपी को वोट देता रहा हूं, लेकिन इस बार कांग्रेस को वोट दूंगा।“

मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ। मुझे ऑटो वाले ती बातों पर सीधे यकीन नहीं हुआ, क्योंकि कुछ दिनों पहले ही गुजरात दौरे पर जब मैं आया था, तो इसका उलटा ही सुनने को मिला था। मैंने सोचा, हो सकता है, ऑटोवाला मुस्लिम हो, या फिर मेरे बात करने के लहजे से अंदाज़ा लगाकर उसने यूं ही ऐसा बोल दिया हो। सर्वे करने का मेरा अनुभव कहता है कि जवाब को हमेशा सावधानी और सतर्कता से ही तौलना चाहिए।

इसी तरह मैं कई इलाकों में घूमा, तरह-तरह के लोगों को साथ वक्त बिताया। जल्द ही मेरे दिमाग में एक सवाल गुंजने लगा, क्या गुजरात में बीजेपी के खिलाफ जबरदस्त गुस्से की लहर चल रही है? या फिर मैं कुछ ज्यादा ही आशावादी हो रहा हूं? क्या मैं वही देख और सुन रहा हूं जो मैं खुद भी चाहता हूं? क्या मैं वही लिख रहा हूं, जो लिखना चाहता हूं, या फिर गुजरात बदल रहा है? इन सवालों के जवाब अभी तक मेरे पास नहीं हैं, लेकिन दो घटनाएं ऐसी हैं, जिनका जिक्र करना जरूरी है।

मैं दरअसल अपने कुछ दोस्तों की मदद करने के लिए गुजरात आया था, जिन्होंने ‘लोकशाही बचाओ आंदोलन’ के नाम से एक मंच बनाया है। मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं मंच के लिए सामग्री जुटाऊं और मोहल्ला सभाओं को संबोधित करूं।

एक शाम, मैंने अपने एक साथ से कहा कि चलो कॉफी पीते हैं। चूंकि मैं दो दिनों से दफ्तर के अंदर ही बैठकर काम कर रहा था, तो यह बहाना भी था कि कुछ ताजा हवा का मजा लिया जाए। चूंकि काफी देर हो चुकी थी, इसलिए ज्यादातर कॉफी शॉप बंद हो चुकी थीं। लेकिन, सड़क किनारे लगने वाले ढाबों पर रौनक थी और वे रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमगा रहे थे। हमने ऐसे ही एक ढाबे पर रुकने का फैसला किया, कि चलो चाय ही पी जाए।

इस ढाबे पर कई लोग, कुछ समूह में कुछ दो-चार चारपाइयों या खाट पर बैठे हुए थे। एक शोर सा था वहां, मानो शाम ढलने के बाद पक्षी अपने घरौंदों को वापस लौटे हों और चहक रहे हों। मेरे दोस्तों, भरत और देव इन लोगों में से किसी न किसी को जानते थे। मैं अपने दोस्तों की लोकप्रियता से बहुत प्रभावित हुआ। हाथ मिलाने और हाय-हैलो की औपचारिकता के बाद हम भी एक ऐसे ही ग्रुप के साथ बैठ गए। मुझे पता चला कि जिस ग्रुप में हम बैठे थे, उनमें ज्यादातर प्रभावशाली पाटीदार थे।

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धीरे-धीरे बातचीत का रुख राजनीति की तरफ आ गया। वे सारे के सारे बीजेपी विरोधी नजर आए। वे काफी आक्रोषित थे और पाटीदार आंदोलन के साथ इमोशनली जुड़े हुए थे। वे सब चाहते थे कि इस बार कांग्रेस जीते, जिससे मौजूदा गुजरात सरकार को सबक सिखाया जा सके। जैसा कि ऐसी बैठकों में होता है, बातचीत के दौरान खुलकर अपशब्दों का इस्तेमाल भी हो रहा था। मैंने उन्हें बता दिया था कि मुझे गुजराती नहीं आती, लेकिन जब-जब वे जज्बाती होते तो खुद-ब-खुद उनकी जुबान से गुजराती शब्द ही निकलते। और जब जज्बात थोड़ा ठहरते तो बातचीत फिर से हिंदी में आ जाती। चाय की चुस्कियां लेते हुए मैं इस हिंदी-गुजराती सुरगाथा का आनंद ले रहा था।

बात करते-करते जब भी मामला ज्यादा जज्बाती होकर शिखर पर पहुंचता तो सभी एक साथ गुजराती में जो-जोर से बोलने लगते। मुझे जो भी थोड़ा बहुत समझ आ रहा था, उसका लब्बोलुआब यह था कि कांग्रेस की की भूमिका पर पैनी नजर है। वे यह भी कह रहे थे कि कांग्रेस ने प्रचार में अभी अपना पूरा जोर नहीं लगाया है।

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अचानक गर्मागर्म बहस बीच में छोड़कर करीब 35 साल का एक पाटीदार युवा सीधे मुझसे बात करने लगा। गुजराती लहजे में हिंदी बोलते हुए उसने कहा, “सर, मैंने और मेरे परिवार ने हमेशा बीजेपी को वोट दिया। मैं किसी और को वोट देने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बीजेपी मेरे खून में है। पहली बार मैं इस पार्टी के खिलाफ वोट करूंगा। मैं कह सकता हूं कि आदतन मेरी उंगली फूल के बटन पर ही जाएगी। लेकिन मैं खुद पर जोर देकर कांग्रेस का बटन दबाऊंगा।”

अचानक गर्मागर्म बहस बीच में छोड़कर करीब 35 साल का एक पाटीदार युवा सीधे मुझसे बात करने लगा। गुजराती लहजे में हिंदी बोलते हुए उसने कहा, “सर, मैंने और मेरे परिवार ने हमेशा बीजेपी को वोट दिया। मैं किसी और को वोट देने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बीजेपी मेरे खून में है। पहली बार मैं इस पार्टी के खिलाफ वोट करूंगा। मैं कह सकता हूं कि आदतन मेरी उंगली फूल के बटन पर ही जाएगी। लेकिन मैं खुद पर जोर देकर कांग्रेस का बटन दबाऊंगा।”

2002 में जब बीजेपी और आरएसएस ने गुजरात में खुलेआम हत्याएं कीं और लोगों को घरों में जिंदा जलाया, उस वक्त यह युवा बमुश्किल 20 साल का रहा होगा। क्या यह बदल गया है, या फिर सिर्फ बीजेपी-आरएसएस से गुस्सा भर है? मैं उससे यह सवाल पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

एक और घटना का जिक्र करता हूं, जो एक पेट्रोल पंप पर हुई। एक दिन देव में अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर लंच के लिए ले गया। रेस्त्रां के रास्ते में वह पेट्रोल लेने के लिए एक पेट्रोल पंप पर रुका। लंबी लाइन नहीं थी, बस पांच-छह मोटरसाइकिलें ही हम से आगे थीं। देव ने मेरे साथ पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर बातचीत शुरु कर दी। ऐसा उसने जानबूझकर किया। बातचीत हिंदी में हो रही थी। उसने कीमतों पर मजाक किया और लाइन में लगे दूसरे लोग इस पर मुस्कुराने लगे। जब हमारा नंबर आया तो उसने पेट्रोल पंप वाले से पूछा कि आज का क्या रेट है। पेट्रोल पंप वाला भड़क गया और बीजेपी और सरकार को बुरा-भला कहना शुरु कर दिया। जोर-जोर से बोलते हुए उसने इसमें मोदी, अंबानी और अडानी सबका नाम ले लिया। उसने खुलेआम गालियों का इस्तेमाल भी किया।

इससे मैं न सिर्फ चौंका बल्कि थोड़ा सा डर भी गया। कुछ साल पहले तक ऐसी बातें किसी ने कही होतीं तो अब तक दंगा भड़क गया होता। और कुछ न सही, तो कम से कम इस पंप को तो आग ही लगा दी गई होती। मुझे आजतक याद है जब मेरे बेटे ने शबनम से पूछा था कि, “अब्बू कहां है?” इतना सुनते ही जिस दुकान पर हम थे, उसके मालिक ने लोगों को बताना शुरु कर दिया कि एक मुस्लिम परिवार इलाके में घूम रहा है। हम घबराकर अपनी कार की तरफ दौड़े थे और वहां से निकले थे।

गुजरात अब आगे बढ़ चुका है। मैं जब भी गुजरात आता हूं, तो मुझे मार्च 2002 याद आ जाता है। पुरानी यादें ताजा होने पर तकलीफ ही होती है। दंगों के बाद पूरा शहर एक त्रासदी से दो-चार रहा है। सभी हिंदू बहुल इलाकों से मुस्लिमों को खदेड़ दिया गया था। लोग रात को सो नहीं पाते थे। चौकीदारी उन्हें जगाए रखती थी। आरएसएस की तरफ से उड़ाई जाने वाली अफवाहों का बाजार गर्म था।

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मेरा हमेशा से मानना रहा है कि फासीवादी ताकतों का आखिरी लक्ष्य बहुसंख्यक समुदाय में डर का माहौल पैदा करना होता है। अल्पसंख्यकों पर हमले तो सिर्फ शुरुआती कदम होते हैं। गुजरात में जो कुछ हुआ था, उससे यह बात साबित हुई थी। आरएसएस ने लोगों को मारने और जिंदा जलाने के लिए जिन युवाओं को इस्तेमाल किया था, वे दूसरी तरफ से होने वाले जवाबी हमलों से खौफजदा रहते थे। आरएसएस ने खौफ की भट्टी को दहकाए रखा था। वे लगातार यह प्रचार करते रहे कि अगर कांग्रेस सत्ता में आ गई, तो वे सब पकड़े जाएंगे और उन्हें जेलों में डालकर फांसी पर लटका दिया जाएगा।

इस खौफ को कम होने में 15 साल का वक्त लगा है। सांप्रदायिक और धर्म के आधार पर लोगों को बांटने वाली रेखा धुंधली पड़ने लगी है। इसके दो कारण दिखते हैं। पहला, कीमतों में बढ़ोत्तरी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओँ का निजीकरण. नोटबंदी और जीएसटी से गरीबी के हालात में पहुंचे लोगों की तकलीफ। और दूसरा कारण है कि ईवीएम से भरोसा उठने के बावजूद, उन्हें अब भी लगता है कि वे बीजेपी की गुजरात सरकार को सबक सिखा सकते हैं।

गरीबी और विरोध, आज भी एक दूसरे से जुड़ने वाले मुद्दे हैं। मैं नहीं जानता कि चुनावों का नतीजा क्या होगा, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के खिलाफ एक लहर गुजरात में जरूर नजर आ रही है।

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