“सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है?” जब हम अपना एक और स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं, स्मृतिशेष जनकवि अदम गोंडवी द्वारा कभी पूछा गया यह सवाल नए सिरे से जवाब मांग रहा है। यूं तो, हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता पहले भी कुछ कम खतरे में नहीं थी, लेकिन अब वंचितों, दलितों और निर्बलों की अनदेखी कर शोषण एवं गैरबराबरी बढ़ाने, अपने शुभचिंतक मीडिया की मार्फत इन सबको ही सामाजिक न्याय और बराबरी के रूप में प्रचारित करने और यहां-वहां अमीरी के नखलिस्तान बनाने में लगे सत्ताधीश खुल्लमखुल्ला स्वतंत्रता का ऐसा विद्रूप रचने लग गए हैं कि वह एक वर्ग द्वारा दूसरे की स्वतंत्रता पर हमलों का हथियार बन जाए।
नतीजा यह कि आम लोग अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं। एक समय कोई उन्हें बहुत धमकाता, तो वे अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्ति के भाव से उसे झिड़ककर कह देते थे कि ‘चलो, चलो, हमारा घर गिरा दोगे क्या?’ लेकिन आज लोकतंत्र के नाम पर चल रहे ‘बुलडोजर राज’ में किसी का भी घर ढहाकर उसे सड़क पर ला देना सत्ता का शगल हो गया है।
निस्संदेह, यह स्थिति राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस सपने का विलोम है, जिसे देखते हुए वह कहा करते, कि मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होनी चाहिए।इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता... मुझे इस बात में बिल्कुल संदेह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक गरीबों को ये सारी सुविधाएं देने की पूरी व्यवस्था नहीं हो जाती। वह चाहते थे कि आजादी के बाद हम ऐसा देश बनाएं, जिसमें गरीब से गरीब और कमजोर से कमजोर व्यक्ति को भी यह न लगे कि उसकी आवाज का कोई मतलब ही नहीं है।
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और ऐसा तब है, जब देश तो क्या दुनिया में भी और मनुष्य तो क्या ऐसा कोई मनुष्येतर जीव भी शायद ही हो, जिसे अपने लिए स्वतंत्रता अभीष्ट न हो या प्यारी न लगती हो। स्वतंत्रता इतनी प्यारी नहीं होती, तो मनुष्यता के अब तक के इतिहास में सर्वाधिक बलिदान उसी की वेदी पर दर्ज न हुए होते। न वह हमारे समय का प्रमुख राजनीतिक दर्शन बन पाती, न उससे जुड़े इस विचार पर आम सहमति बन पाती कि किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र, देश या राज्य के अपनी इच्छानुसार काम करने पर किसी दूसरे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र, देश या राज्य का किसी भी प्रकार का प्रतिबंध, अंकुश या मनाही नहीं होनी चाहिए।
विडंबना यह कि इसके बावजूद हमारे बीच स्वतंत्रता को लेकर बहुत से भ्रम फैले हुए हैं (या जानबूझकर फैला दिए गए हैं)। इन भ्रमों के चलते बहुतों के लिए समझना कठिन हो गया है कि स्वतंत्रता वास्तव में है क्या और उसके निरापद उपभोग की उत्कृष्टतम प्रणाली कौन-सी है? एक सबसे ज्यादा प्रचारित भ्रम तो स्वतंत्रता को स्वच्छंदता के बराबर ले जा खड़ा करता है। कहता है कि स्वतंत्रता सारे नियंत्रणों से मुक्ति अथवा अभाव की स्थिति है, जिसमें किसी भी अनुशासन के लिए कोई जगह नहीं होती।
इस भ्रम का शिकार लोगों के दिलोदिमाग में यह बात घुसती ही नहीं कि स्वतंत्रता न स्वच्छंदता या तंत्रहीनता का पर्याय है और न सारे अनुशासनों को धता बता देने या उनसे परे हो जाने का। वे यह भी समझ नहीं पाते कि ऐसी स्वतंत्रता किसी भी राज्य में- वह लोकतांत्रिक हो या तानाशाही- नहीं प्राप्त हो सकती और केवल प्राकृतिक या अराजक अवस्था में रहने वालों को ही उसका अनुभव हो सकता है।
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सच तो यह है कि आज हमसे वह स्वतंत्रता भी छीन ली जा रही है, जिसकी कल्पना उसके लिए चले लंबे संघर्ष के सबसे बड़े नायक के तौर पर बापू ने की थी। बापू कहते थे कि स्वतंत्रता बाहरी, विदेशी या पराये तंत्रों से तो निजात दिलाती है, लेकिन साथ ही स्व यानी अपने तंत्र द्वारा विवेकपूर्वक शासित होने यानी स्वानुशासित रहने की मांग करती है। इसलिए स्वानुशासनों से बंधना स्वीकार किए बगैर स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह जाता। अलबत्ता, स्वतंत्रता इसकी गारंटी है कि किसी व्यक्ति के कार्य अथवा विकल्प किसी और के कार्यों अथवा विकल्पों द्वारा बाधित या अवरुद्ध नहीं किए जाएंगे।
स्वतंत्रता के सिलसिले में वे कई और महत्वपूर्ण बातें कहते थे। इनमें सबसे बड़ी यह कि स्वतंत्रता बांटने से बढ़ती है और सिर्फ उन लोगों को अपने लिए स्वतंत्रता मांगने का नैतिक हक है जो दूसरों की स्वतंत्रता को उनका अधिकार मानते, उसका समर्थन करते और खुद पर अपने स्व का अंकुश लागू करने की जिम्मेदारी निभाते हैं।
प्रसंगवश, जब भी हम किसी व्यक्ति, राष्ट्र या देश की स्वतंत्रता की बात करते हैं, उसकी शुरुआत उसके होने, विचार, विश्वास और राजनीतिक राय रखने एवं कोई भी धर्म मानने या न मानने की स्वतंत्रता से होती है। इसके बाद सामाजिक बाधाओं से स्वतंत्रता का नंबर आता है। उसके बाद अपनी चाह के मुताबिक कुछ करने की स्वतंत्रता का, फिर इच्छानुसार कुछ बनने की स्वतंत्रता का।
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स्वतंत्रता संघर्ष के अनुभव से हम जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता द्वारा कोई परतंत्र राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने का राजनीतिक अधिकार प्राप्त करता है। इसी अनुभव से हम यह भी जानते हैं कि यह राजनीतिक अधिकार इस नजरिये के तहत ही सबसे ज्यादा सुरक्षित रहता है कि समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता पूरी नहीं हो सकती।
जिन बाबा साहब डाॅ. भीमराव आम्बेडकर को हम संविधान निर्माता मानते हैं, उनका भी यही मानना था कि अगर राज्य समाज में समानता की स्थापना नहीं करेगा, तो देशवासियों की नागरिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रताएं महज धोखा सिद्ध होंगी।
कई अन्य जानकारों के अनुसार भी राजनीतिक समानता का अर्थ केवल यह नहीं होता कि सभी वयस्क व्यक्तियों को मतदान का अधिकार मिल जाए क्योंकि समानता की प्रतिष्ठा के बगैर मताधिकार का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वैसे भी जहां प्रचंड आर्थिक असमानताएं हों, वहां सिर्फ मताधिकार राजनीतिक स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकता। क्योंकि उस पर यह सवाल हावी हो जाता है कि बढ़ती असमानता के कारण कहीं भूख स्वतंत्रता पर हावी होने को बेताब हो गई तो?
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कभी इसी सवाल का जवाब देते हुए लिखा था: आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई बैर नहीं/ पर भूख कहीं बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
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यहां कहना होगा कि स्वतंत्रता को लेकर जैसा स्वप्न संसार रवींद्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में रचते हैं, वह अंयत्र दुर्लभ है: ‘जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ/ और सिर हो शान से उठा हुआ/ जहां ज्ञान हो सबके लिए बेरोकटोक बिना शर्त रखा हुआ/ जहां घर की चौखट सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां/ जहां सच की गहराइयों से निकले हर बयान/ जहां बाजू बिना थके कुछ मुकम्मल तराशें/ जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास मुर्दा रवायतें/ जहां दिलो-दिमाग तलाशें नए खयाल और उन्हें अंजाम दें/ ऐसी आजादी के स्वर्ग में, ऐ भगवान, मेरे वतन की हो नई सुबह!’
हिन्दी और भोजपुरी के वैकल्पिक नजरिये से संपन्न कवि गोरख पांडे को भी स्वतंत्रता से कुछ ऐसे ही फल अभीष्ट हैं। ‘वतन का गीत’ में अपने अरमान निकालते हुए उन्होंने लिखा है: ‘हमारे वतन की नई जिंदगी हो/ नई जिंदगी इक मुकम्मल खुशी हो/ नया हो गुलिस्तां नई बुलबुलें हों/ मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो/ न हो कोई राजा, न हो रंक कोई/ सभी हों बराबर सभी आदमी हों / न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले/ हमारे दिलों की न सौदागरी हो/ जुबानों पे पाबंदियां हों न कोई/ निगाहों में अपनी नई रोशनी हो/ न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन/ न ही कोई भी कायदा हिटलरी हो।’
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लेकिन जैसा कि पहले कह आए हैं, आज हमारी स्वतंत्रता हमारे खिलाफ प्रभुवर्गों का हथियार बना दी गई है, जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय सूचकांक उसे आंशिक और लोकतंत्र को लंगड़ा करार दे चुके हैं। फलस्वरूप हालात ऐसे हो चले हैं कि सत्ताधीशों द्वारा एक ओर हमें देश को ‘विश्वगुरु’ बनाने के सपने (सब्जबाग) में भरमाया जा रहा है और दूसरी ओर लगातार बढ़ाई जा रही नफरत, उसकी जाई हिंसा, नित्य-प्रति रूप बदलते शोषणों और गैर-बराबरियों के बीच स्वतंत्रता से जुड़े हमारे किसी भी उदात्त सपने या अरमान का कोई पता-ठिकाना नहीं रहने दिया जा रहा।
इससे भी बड़ा अनर्थ यह कि हमारे प्रजा से नागरिक बनने की प्रक्रिया को उलट दिया गया है और हमारे बीच के अनेक लोग फिर से प्रजा बनकर आनंदित होने लगे हैं।
क्या पता, उनको मालूम भी है या नहीं कि इस तरह ‘आनंदित’ होकर वे अपनी ही नहीं, हम सबकी स्वतंत्रता के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं, लेकिन आपको मालूम है तो यही समय है, जब आपको अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा को लेकर सतर्क हो जाना चाहिए। साथ ही उन सारे धोखों को उनके असली रूप में पहचान लेना चाहिए, जो नाना रूपों और वेशों में उसकी राह में कांटे बिछाने के काम में लगा दिए गए हैं। पूछ सकें तो अपने आप से वह सवाल भी पूछना ही चाहिए जो ‘धूमिल’ ने कभी अपनी बहुचर्चित कविता में अपने आप से पूछा था: ‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है/या इसका कोई खास मतलब होता है?’
वैसे, आज सबसे बड़ा सवाल तो फिलहाल वही है जो अदम गोंडवी पूछ गए हैं: दिल पे रखके हाथ कहिए, देश क्या आजाद है?
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