विचार

अर्थव्यवस्था की बदहाली पर मोदी सरकार की बेखबरी चिंताजनक, संसाधनों की कमी नहीं, असल समस्या प्रबंधन

देश की दो तिहाई आबादी जीविका के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से कृषि पर निर्भर है। लेकिन वर्तमान आर्थिक संकट के समाधान के सारे विमर्श में देश की कृषि की भयावह बदहाली का कोई जिक्र नहीं है। इसकी उपेक्षा कर विकास दर बढ़ाने के सारे प्रयास क्षणिक साबित होंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की विकास दर ने सभी अनुमानों को ध्वस्त कर दिया। विभिन्न सर्वेक्षणों में पहली तिमाही के लिए 5.5 से 5.8 फीसदी विकास दर रहने का अनुमान लगाया गया था। रिजर्व बैंक ने भी इस तिमाही में 5.5. से 6.5 फीसदी विकास दर रहने का अनुमान लगाया था। पर जब केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने पहली तिमाही के जीडीपी की विकास दर के आंकड़े जारी किए, तो सभी अनुमान धरे रह गए। सरकार भी सकते में आ गई।

जारी आंकड़ों के अनुसार, इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर महज 5 फीसदी रही है जो पिछले 6 सालों में सबसे कम है। यह दर पिछली 5 तिमाहियों से लगातार कम हो रही है। पिछले साल की समान तिमाही में यह दर 8 फीसदी थी, जो गिरकर अब 5 फीसदी रह गई है। इसी तिमाही में चीन की विकास दर 6.2 फीसदी रही जो पिछले 27 सालों में चीन की सबसे कम विकास दर है। चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से लगभग साढ़े चार गुना बड़ी है।

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किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत विकास दर को बनाए रखना ज्यादा चुनौती भरा कार्य होता है। पिछली दो तिमाहियों, यानी जनवरी-मार्च 2019 और अप्रैल-जून 2019 से भारत के पास सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का तमगा नहीं रह गया है, जिसका ढोल बजाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री-संत्री सबसे आगे रहते थे। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि अर्थव्यवस्था का यह संकट मानवरचित है और मोदी सरकार के चौतरफा कुप्रंबधन के कारण अर्थव्यवस्था में मंदी छा गई है।

बीजेपी सरकार भले ही इस वक्तव्य को राजनीतिक कह कर खारिज कर दे लेकिन इससे अर्थव्यवस्था के निष्पक्ष जानकारों का असहमत होना मुश्किल है। मोटा अनुमान है कि जीडीपी विकास दर में 1 फीसदी की गिरावट से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था में 60 लाख रोजगार के अवसर समाप्त हो जाते हैं। इसका सीधा असर मांग, खपत और निवेश पर पड़ता है।

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नॉमिनल जीडीपी विकास दर (नामित जीडीपी विकास दर जिसमें महंगाई दर भी विकास दर में शामिल रहती है) तकरीबन 8 फीसदी रही है जो जीडीपी गणना के नए-पुराने मापदंडों पर पिछले 17 सालों में सबसे कम है। निजी उपभोग की दर भी पिछले 18 महीनों के सबसे कम स्तर 3.1 फीसदी पर पहुंच गई है। लेकिन मोदी सरकार इस गुमान में बेसुध रही कि राजस्व बढ़ रहा है, तो सुस्ती-मंदी, गिरते उपभोग, मांग, निवेश और बेरोजगारी की खबरें फिजूल हैं।

निवेश और उपभोक्ता मांग में भारी गिरावट के कारण देश का मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र चरमरा गया है। इस क्षेत्र की वृद्धि दर महज 0.6 फीसदी रह गई है जो साल भर पहले 12.1 फीसदी थी। अब सरकार के लिए उन खबरों को झुठलाना मुश्किल है जिनमें पिछले दो महीनों में कई औद्योगिक क्षेत्रों में लाखों नौकरियां जाने की बात कही गई थी। खेती के बाद कंस्ट्रक्शन उद्योग सबसे ज्यादा रोजगार देता है। इस क्षेत्र में तेज गिरावट आई है।

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इस अप्रैल-जून तिमाही में इसकी वृद्धि दर गिरकर 5.7 फीसदी रह गई जो साल भर पहले 9.6 फीसदी थी। कृषि और उससे जुड़े वानिकी, मत्स्य क्षेत्र के हालात भी बिगड़े हैं। इस क्षेत्र की वृद्धि दर महज 2 फीसदी रही है जो एक साल पहले 5.1 फीसदी थी। लेकिन सरकारी प्रवक्ताओं का कहना है कि कृषि क्षेत्र में सुधार हुआ है क्योंकि जनवरी-मार्च 2019 की तिमाही में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 0.1 फीसदी थी। यह आर्थिक संकट के प्रति सरकार की दिग्भ्रमता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है।

लेकिन अनेक अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जीडीपी दरअसल में पांच फीसदी से भी कम है। वित्त मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम ने अपने शोध पत्र में अनेक तथ्यों के सहारे बताया है कि 2011-12 से 2016-17 के दरम्यान विकास दर को 2.5 फीसदी से अधिक बताया गया है। 2016 से मोदी सरकार ने जीडीपी गणना का तरीका बदल दिया है। जीडीपी आंकड़े संगठित और कॉरपोरेट सेक्टर पर आधारित होते हैं। इसमें असंगठित क्षेत्र को पूरी तरह शामिल नहीं किया गया है और यह मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र भी उसी गति से आगे बढ़ रहा है, जिस रफ्तार से संगठित और कॉरपोरेट क्षेत्र।

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प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरुण कुमार का साफ कहना है कि मौजूदा आर्थिक संकट असंगठित क्षेत्र से शुरू हुआ और धीरे-धीरे उसने संगठित क्षेत्र को भी अपनी जद में ले लिया। ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता सामग्री उद्योग (एफएमसीजी) इसके सटीक उदाहरण हैं। मसलन, पारले जी बिस्किट का उपयोग असंगठित क्षेत्र में यानी ग्रामीण, मजदूरों में सबसे ज्यादा होता है, लेकिन पारले जी संगठित क्षेत्र की कंपनी है। गांवों में इसकी खपत कम हुई, तो पारले जी कंपनी भी मंदी की चपेट में आ गई। नोटबंदी और जीएसटी की सबसे ज्यादा मार असंगठित क्षेत्र पर पड़ी है जहां 94 फीसदी लोग काम करते हैं। लेकिन अब जीडीपी गणना में असंगठित क्षेत्र को पूरा शामिल नहीं किया जाता है। लेकिन सरकार जीडीपी गणना की इस कमजोरी को सुधारने के लिए अनिच्छुक दिखाई देती है जिससे मोदी सरकार के आर्थिक आकलन धराशायी हो रहे हैं।

आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने के लिए वित्त मंत्री सीतारमण ने कई घोषणाएं की हैं। 5-10 दिन में रियल्टी सेक्टर को उबारने के लिए भी वित्त मंत्री नए उपायों की घोषणा कर सकती हैं। अब अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सार्वजनिक बैंकों के विलय की घोषणा की गई है। विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए शर्तों में छूट दी गई है। इन फैसलों का मांग और खपत बढ़ाने में कब तक कारगर प्रभाव देखने में आएगा, इसे लेकर कोई उद्यमी या कारोबारी आश्वस्त नहीं है। पहले सरकार और कारोबारी जगत का जबरदस्त दबाव था कि खपत, मांग, निवेश बढ़ाने के लिए ब्याज दरों को कम किया जाना चाहिए।

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साल 2019 में ही रिजर्व बैंक ब्याज दरों में तीन बार कटौती कर चुका है लेकिन इस दरम्यान मंदी और तेजी से पसरती गयी। इस वजह से उद्योग जगत को पूरी उम्मीद थी कि सरकार बड़े राहत पैकेज का ऐलान करेगी जैसा कि2008 में वैश्विक मंदी के समय किया था। पर उद्योग जगत को निराशा ही हाथ लगी है। इसका अक्स मशहूर उद्यमी और बॉयोकॉन की मैनेजिंग डाइरेक्टर किरण मजूमदार शॉ के ताजा वक्तव्य में देखा जा सकता है किवित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर का घटकर 5 फीसदी पर आ जाना सरकार के लिए आर्थिक आपातकाल की चेतावनी है। अब सरकार को अधिक तेजी से और व्यापक स्तर पर काम करने की जरूरत है। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि विकास दर इतनी नीचे गिर जाएगी। स्थितियां काफी चिंताजनक हैं।

सरकार के पास आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। अब तो रिजर्व बैंक ने 1.76 लाख करोड़ रुपये देकर मोदी सरकार की मुराद भी पूरी कर दी है। मोदी काल में असल समस्या आर्थिक प्रबंधन और प्राथमिकताओं की है। आश्चर्यजनक है कि आर्थिक संकट के समाधान के सरकारी उद्योग जगत के विमर्श में देश की कृषि की गिरती आमदनी और उसकी आय बढ़ाने का जिक्र तक नहीं है जिसके कारण मांग, खपत में इतनी भयावह गिरावट आई है। कृषि पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से जीविका के लिए देश की दो तिहाई आबादी निर्भर है। यह तय है कि इस अधिसंख्य आबादी की उपेक्षाकर विकास दर को बढ़ाने के प्रयास क्षणिक साबित होंगे। सरकार को अपनी दमड़ी (खजाने) की चिंता छोड़ इस आबादी की गलती चमड़ी (आय) की चिंता करनी चाहिए जिनके बल पर वह सत्ता पर काबिज हुई है।

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