विचार

सॉरी सरकार, आम लोग नहीं, बल्कि सरकारी और नौकरशाही की लापरवाही से बेकाबू हुआ है कोरोना संक्रमण

कोरोना अब बेकाबू हो चला है। हर रोज लाख-सवा लाख नए संक्रमित सामने आ रहे हैं, वैक्सीन की कमी होने लगी है, लेकिन सरकार है कि इसका ठीकरा आम लोगों के सिर फोड़ रही है। जबकि हकीकत यह है कि सरकारी और नौकरशाही की लापरवाही के चलते ही संक्रमण को रोकना कठिन हुआ है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

23 मार्च को सख्त कोविड लॉकडाउन लगाने का एक साल पूरा हुआ। लेकिन इस अवसर की तीक्ष्णता इससे बढ़ गई कि इस साल भी देश के बड़े हिस्सों में यह महामारी फिर डरावने ढंग से बढ़ने लगी। यह 17 फरवरी, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस गर्वोक्ति को आइना दिखाने की तरह था कि ‘जब कोविड महामारी आरंभ हुई थी, तब पूरी दुनिया भारत की स्थिति को लेकर चिंतित थी। लेकिन कोरोना के खिलाफ भारत का संघर्ष पूरी दुनिया को प्रेरित कर रहा है।’ यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि कोविड मामलों के इलाज के लिए निदान के लक्षण और उपचारात्मक क्षमताओं को बढ़ाने में या महामारी के नियंत्रण के लिए मेडिकल और गैर मेडिकल कर्मचारियों को बड़ी संख्या में जुटाने में कोई प्रगति नहीं हुई है।

कोविड का दोबारा उभरना कोई अचानक होने वाली दुर्घटना नहीं है। महामारियों का इस तरह व्यवहार उनकी प्रवृत्ति है। वस्तुतः दुर्घटना यह है कि इसके खिलाफ हमारी लड़ाई पहले की तरह ही दिशाहीन है और वैसे ही व्यवस्था खुद की पीठ थपथपाने वाला प्रोपेगैंडा कर रही है। भारत कोरोना के खिलाफ एक साल से भी अधिक समय बाद भी संघर्ष कर रहा है, प्रधानमंत्री ने इस दौरान कई बातें कही हैं, फिर भी मुंबई और पुणे-जैसे महानगरों तक के अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई में कमी है। तैयारी की निंदनीय कमी इन रिपोर्टों से ही साफ है कि सार्वजनिक अस्पताल एक ही बेड पर दो-दो कोरोना रोगियों को रख रहे हैं; और कि ऑक्सीजन वाले बेड तक वार्ड से बाहर लगाए गए हैं। जब इन पंक्तियों को लिखा जा रहा है, तब महाराष्ट्र में हर पांच मिनट में एक कोरोना रोगी की मौत हो रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और कई अन्य राज्यों में चिकित्सा सेवाओं का जो हाल है, वहां के बारे में तो बात ही क्या की जाए।

Published: undefined

निजी चिकित्सा क्षेत्र अपने पुराने तरीके से ही काम करता लग रहाहै। स्थितियां जैसे-जैसे बिगड़ रही हैं, अधिक लाभ उठाने के खयाल से उनकी रेट लिस्ट का किला और मजबूत हो रहा है। कोविड रोगियों से निजी अस्पताल किस तरह अधिक वसूली कर रहे हैं, इसे लेकर सरकार को क्यों चिंतित होना चाहिए, यह सोचने वाली बात है। तेलंगाना सुपर स्पेशिलिटी प्राइवेट हॉस्पिटल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भास्कर राव ने पिछले साल जुलाई में कहा थाः ‘जो चिकित्सा का खर्च उठा सकते हैं, सिर्फ वे लोग ही हमारे पास आएंगे। अन्य कोविड-19 रोगियों को मुफ्त और खर्च वहन करने योग्य चिकित्सा उपलब्ध कराने वाले पर्याप्त सरकारी अस्पताल हैं। ... बड़ी संख्या में मामलों से निबटने में अगर सरकारी अस्पताल नाकाफी हैं, तब ही रोगी निजी अस्पतालों में आएंगे।’

सरकार चुप बैठी हुई नहीं है। अगर महामारी कहर ढाने लगती है, तो उसके किसी किस्म के उत्तरदायित्व की बात को इधर- उधर मोड़ देने के बहाने तैयार करने के लिए वह ’विशेषज्ञों’ की सहायता ले रही है। अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा महज टेक्नो-मैनेजेरियल काम नहीं है। स्वास्थ्य और संबद्ध विज्ञान से अलग, अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के लिए काम की दिशा तय करने के तौर पर रोग की प्रकृति, प्रवृत्ति और विज्ञान समझने के लिए टेक्निकल और समाज विज्ञान के वृहत्तर क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी साथ लाना पड़ता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सक्रिय सहयोग तथा विज्ञान आधारित, पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और दृढ़ जिम्मेदारियों के जरिये लोगों का यकीन हासिल करना होता है जिनके अभाव में शेष बातें बिना रुकावट नहीं हो सकतीं।

Published: undefined

फिर भी सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब विभिन्न मोर्चों पर विफलता के बावजूद सरकार अपने ही तरह के भुलावे में रहे और विशेषज्ञों, नौकरशाही से लेकर केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल के मैनेजर कोविड के तेज प्रसार के लिए लोगों की बेपरवाही को दोष देते हों और अधिकारी को आम लोगों के साथ कीड़े-मकोड़ों की तरह व्यवहार करने का अभ्यास हो गया हो तो किसे भला कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? सच्चाई तो यह है कि यह कोविड से संबंधित अधिकारियों की बेपरवाही रही जिसके कारण इस बार संक्रमण इतनी तेजी से फैला। इसलिए कठघरे में तो उन्हें खड़ा करना चाहिए था। जिस समय ये पंक्तियां लिखी जा रही थीं, इंदौर से खबर आ रही थी कि पुलिस वाले ने एक व्यक्ति की 11 साल के उसके बेटे के सामने इसलिए लाठियों से बड़ी बेदर्दी से पिटाई कर दी कि उसने मास्क नहीं पहन रखा था।

अब दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले पर गौर करें। अदालत ने कहा कि सड़क पर चलती कोई गाड़ी भी सार्वजनिक स्थान है इसलिए उसमें सवार व्यक्ति के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है। शायद यह बताने की जरूरत नहीं कि यह सब नियम-कायदे शायद आम लोगों के लिए ही हैं। ताकतवर लोगों को इनसे छूट है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी को इस बात की छूट होती है कि वह रोड-शो और रैली आयोजित करें, उसमें खुद भी मास्क न पहनें और लोगों के सामने भी ऐसी कोई बंदिश न हो। जब सड़क पर चलती कोई कार सार्वजनिक स्थल के दायरे में आती है तो क्या रैली और रोड-शो किसी निजी जगह पर आयोजित होती है?

Published: undefined

यह भी गौर करने वाली बात है कि केंद्र सरकार और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल- जैसी सरकारी एजेंसियों ने कोरोना के बहुरूपिया स्वरूप के बारे में जानकारी कम-से-कम तीन माह तक छिपाई। लोगों को तब तक अंधेरे में रखा गया जब तक संक्रमण के मामले इतने अधिक न हो गए कि सबकी नजर में आ गए। यह सरकार चीजों को कैसे ले रही है, यह समझने के लिए इतना ही काफी है कि बाबा रामदेव स्वास्थ्यमंत्री के सामने दावा कर जाते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोनिल को प्रमाणित किया है। जबकि इस आशय की खबर के फैलते है विश्व स्वास्थ्य संगठन को सफाई देनी पड़ी कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया है।

Published: undefined

कोवैक्सीन की अपनी अलग कहानी है। बिना किसी वैज्ञानिकता के इसे लगाने की अनुमति दे दी गई। ऐसे में हम यही दुआ कर सकते हैं कि अंततः यह कारगर साबित हो। लेकिन सवाल तो उठता है कि सरकार किस तरह चीजों को हैंडल कर रही है। यह भी हैरान करने वाली बात है कि ऐसे समय जब देश में बड़ी आबादी को अभी वैक्सीन नहीं लग सका है, प्रधानमंत्री मोदी यह कहते फूले नहीं समा रहे कि वे दुनिया के तमाम देशों को वैक्सीन बांट रहे हैं! ऐसा लगता है कि बेशक वक्त महामारी का हो, सरकार के लिए तो जैसे अपनी पीठ थपथपाना ही सबसे अहम है। लोगों का जो होना हो, हुआ करे!

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined