विचार

निर्धन समुदायों के छात्रों में पढ़ने-सीखने की बड़ी ललक, और प्रोत्साहन मिले तो तस्वीर बदल सकती है

थोड़ा सा प्रोत्साहन और अनुकूल अवसर मिलने पर निर्धन समुदायों के बच्चे पढ़ने-लिखने में बहुत रुचि लेते हैं। ऐसे उत्साही छात्रों को और प्रोत्साहन मिलने की जरूरत है। ऐसे छात्रों के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर मिल सकें तो इसमें शिक्षा प्रयास की बड़ी सार्थकता है।

निर्धन समुदायों के छात्रों में पढ़ने-सीखने की बड़ी ललक, और प्रोत्साहन मिले तो तस्वीर बदल सकती है
निर्धन समुदायों के छात्रों में पढ़ने-सीखने की बड़ी ललक, और प्रोत्साहन मिले तो तस्वीर बदल सकती है फोटोः भारत डोगरा

दूर-दूर के गांवों की निर्धन बस्तियों के लिए प्रतिदिन स्कूल जाना आसान नहीं होता है। तिस पर समय-समय पर प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर जाने वाले परिवारों के लिए तो अपने बच्चों की पढ़ाई में निरंतरता रखना और भी कठिन हो जाता है। ऐसी स्थितियों में यदि ठीक बस्ती के भीतर या बहुत निकट एक अनौपचारिक स्कूल और चलाया जाए तो इन बच्चों की शिक्षा में निरंतरता बनाए रखने की संभावना और बढ़ जाती है।

कुछ इसी तरह की सोच से परमार्थ संस्था ने उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में दूर-दूर की निर्धन बस्तियों में ऐसे शिक्षा केन्द्र स्थापित किए हैं जिन्होंने स्कूली बच्चों की शिक्षा में निरंतरता बनाए रखने के साथ बच्चों को अच्छे संस्कार देने की भी भूमिका निभाई है।

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संस्था के कार्यकर्ता पंकज गौतम बताते हैं कि आरंभ में इस कार्य में कुछ कठिनाई आई थी, पर एकलव्य संस्था के शिक्षा साहित्य के आधार पर बच्चों की शिक्षा को अधिक रोचक बनाने का प्रयास किया गया, उसमें खेलों और कविताओं को अधिक महत्व दिया गया तो अधिक सफलता मिलने लगी।

मथुरापुर गांव की सहरिया आदिवासी बस्ती (बबीना ब्लाक) में एक कमरे में लगभग 25 बच्चों का स्कूल चल रहा था। जिस कमरे में शिक्षा हो रही थी, वह तरह-तरह की शिक्षा सामग्रियों और बच्चों की अपनी कलाकृतियों से सजा हुआ था। बच्चे उत्साही और प्रसन्न माहौल में अक्षर ज्ञान, पहाड़े आदि सीख रहे थे। उन्होंने कविताएं भी सुनाई।

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सबसे निर्धन समुदायों के छात्रों में भी अपनी कक्षा को सजाने व सुन्दर बनाने का उत्साह

शिक्षिका रिंकी भरतरे अपने अध्यापन के प्रति बहुत निष्ठावान हैं। उन्होंने बताया कि मुख्य समस्या तब आती है जब बच्चों के माता-पिता जीवनयापन के लिए प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर चले जाते हैं- कभी 10-15 दिन के लिए तो कभी एक-डेढ़ महीने के लिए। उस समय बच्चों की शिक्षा में बाधा आती है पर साथ में उन्होंने कहा कि जब बच्चे लौटते हैं तो उन्हें रिविजन करवा कर फिर उनकी शिक्षा को पटरी पर ला देते हैं।

हमने उन बच्चों से अलग से बात की जो प्रवासी मजदूर माता-पिता के साथ हाल के दिनों में कार्य पर गए हों। एक बालिका ने बताया कि वह भी मजदूरी करती थी पर अन्य बच्चों ने कहा कि वे मजदूरी नहीं करते थे। दो बच्चों ने कहा कि अपनी पुस्तक-कापी साथ तो ले गए थे और वहां भी पढ़ने का अभ्यास करते रहे। वहां जाने पर अकेलापन तो नहीं अखरा? यह पूछने पर बच्चों ने कहा कि हमने तो वहां भी नए दोस्त बना लिए।

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कुल मिलाकर कई कठिनाईयों के बीच भी इन बच्चों ने अपना उत्साह बनाया हुआ है। हां, शुरू में खुल कर बोलने में वे किसी आगंतुक के सामने हिचकते हैं पर एक बार बातचीत शुरू हो जाए तो फिर जल्दी ही घुलमिल जाते हैं। फोटो खींचते समय मुस्कुराने के लिए उन्हें कहा तो कुछ बच्चे इतना हंसने लगे कि फिर उन्हें कुछ कम हंसने के लिए कहना पड़ा।

इसके बाद हम सेमरिया गांव की एक सहरिया बस्ती में गए (यहां ऐसी दो बस्तियां हैं)। यहां स्कूल खुले में पेड़ के नीचे एक चबूतरे पर लगा हुआ था। हालांकि स्कूल के लिए एक कमरा है, पर मौसम के अनुसार बाहर या अंदर पढ़ने-पढ़ाने का निर्णय लिया जाता है। इसी तरह स्कूल का समय भी मौसम या अन्य स्थितियों के अनुसार बदलता रहता है।

शिक्षिका मनीषा प्रजापति बहुत पास रहती हैं, अतः स्थिति के अनुसार निर्णय लेकर बच्चों को किसी समय एकत्र करने में कठिनाई नहीं होती है। औसत स्कूल 2 से 3 घंटे तक चलते हैं। बच्चों को कैरम, लूडो, कब्बडी, खो-खो खेलने में मजा आ रहा हो तो वे अपनी अध्यापिका को देर तक स्कूल चलाने के लिए कहते हैं।

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सनम एक ऐसा छात्र है जो न सुन सकता है न बोल सकता है। इसके बावजूद वह कक्षा में नियमित आता है और पढ़ाई में भी उसकी अच्छी प्रगति है। शिक्षिका मनीषा ने बताया कि विभिन्न छात्रों को कुछ अलग तरह से पढ़ाना जरूरी है क्योंकि कुछ कम उम्र के और कुछ अधिक, कुछ की शिक्षा की जरूरतें एक दूसरे से भिन्न हैं, पर वह इस स्थिति को संभाल लेती हैं और जरूरत के अनुसार शिक्षा दी जाती है।

स्पष्ट है कि इन स्थितियों में शिक्षिका स्थानीय स्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही विभिन्न निर्णय ले पाती है। इन शिक्षिकाओं से बातचीत में यह समझने का प्रयास भी किया गया कि उन्हें यह जिम्मेदारी संभालने में किसी तरह की कठिनाई या समस्याओं का सामना करना पड़ा कि नहीं।

इस बातचीत से यह अहसास हुआ कि शिक्षिका यदि अपेक्षाकृत कहीं बेहतर सामाजिक-आर्थिक स्तर के परिवार से हैं तो उसे आरंभ में कठिनाई अनुभव होती है और वह पूरी तरह अपने कार्य में रच-बस नहीं जाती है, पर जैसे-जैसे बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ अधिक समय बीतता है तो उन्हें यह प्रयास बहुत सार्थक लगता है और फिर स्थिति संभल जाती है।

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इन स्कूलों में बच्चों को घर के पास ऐसे माहौल में शिक्षा मिलती है जहां वे अधिक सहज रूप में सीख सकते हैं और इससे बड़े सरकारी स्कूल में जा पाने की उनकी कुछ तैयारी भी हो जाती है और साथ में प्रवासी मजदूरी के दिनों की भरपाई भी हो जाती है।

इस प्रयास के एक मुख्य कार्यकर्ता पंकज गौतम के अनुसार इसके अन्तर्गत विभिन्न गांवों में ऐसे बहुत से बच्चों को मुख्य धारा के स्कूल से जोड़ा गया है जो ड्राप कर चुके थे या जिन्होंने उचित समय पर इनमें प्रवेश ही प्राप्त नहीं किया था। प्रायः कक्षा 8 के बाद अनेक आदिवासी छात्राओं को आगे पढ़ाई जारी रखने में इस क्षेत्र में कठिनाई आती है, पर हाल के इस शिक्षा अभियान के प्रयासों के कारण इनमें से छः बालिकाओं का चयन कस्तूरबा गांधी आदर्श स्कूल में हो सका।

इसके अतिरिक्त अनेक अन्य स्थानों पर भी हाल के समय में लेखक सबसे निर्धन समुदायों के बच्चों से मिला तो यही पाया कि थोड़ा सा प्रोत्साहन और अनुकूल अवसर मिलने पर बच्चे पढ़ने-लिखने में बहुत रुचि लेते हैं। ऐसे छात्रों के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर मिल सकें तो इसमें शिक्षा प्रयास की बड़ी सार्थकता है।

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