विचार

इस नवरात्र पर क्यों न स्त्री की दृष्टि और मुक्ति आंदोलन को समझा जाए?

इस नवरात्र पर क्यों न स्त्री की दृष्टि और मुक्ति आंदोलन को समझा जाए? यह भी कि लैंगिक न्याय के आधार पर सामाजिक संरचना कैसे की जाए?

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फोटो: Getty Images NIHARIKA KULKARNI

इस सप्ताह नवरात्र शुरू हो रहा है। स्त्री को देवी तो बहुत माना गया है, मगर धरातल पर कुछ और नजर आता रहा है। क्यों न इस नवरात्र पर स्त्री की दृष्टि और स्त्री मुक्ति आंदोलन को समझा जाए। सवाल यह है कि लैंगिक न्याय के आधार पर समाज और राजनीति की संरचना कैसे की जाए?

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हर शब्द या संज्ञा राजनीतिक होती है। उस काल विशेष की लैंगिक सत्ता को दर्शाती है। स्त्री, नारी, महिला शब्दों के मायने जाने बगैर राजनीतिक राह भी स्पष्ट नहीं होती। यह भी सही है कि शब्दों के अर्थ अलग-अलग संदर्भ, काल में बदलते रहे हैं। स्त्री बहुत प्रचलित शब्द है। स्तयै धातु से निकले इस शब्द का मतलब यास्क अपने निरुक्त में शर्म से सिकुड़ना बताते हैं। पाणिनी ने इसको हल्ला करना, शोर करना, इकट्ठा करने का पर्याय बताया है। पतंजलि ने कहा है कि स्पर्श, रूप, रस, गंध का संघ स्त्री है। वह स्तन-केशवाली होती है। माने, स्त्री की परिभाषा दैहिक है। नारी ‘नृ’ से निकला शब्द है। नृ का उपयोग मानव के लिए होता था। फिर बाद में यह स्त्री और पुरुषवाची शब्दों में विभक्त हुआ। महिला मह् धातु से निकला शब्द है, जिसका मतलब आदर-सम्मान है।

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खैर, लैंगिक सत्ता का हस्तांतरण लैंगिक न्याय नहीं है। लैंगिकता को सामाजिक मानने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भाव या भूमिका लैंगिक नहीं होती। पितृसत्ता ने यौनिक नियंत्रण हेतु लैंगिकता को भाव, भावना, भूमिका से जोड़ा है। ममता, दृढ़ता जैसी भावना स्त्री या पुरुष की थाती नहीं है। मर्द को रोना नहीं आता। यह भी बड़े तरतीब से स्थापित किया है कि स्त्री की देह में किसी प्रकार की भी आध्यात्मिक उन्मुक्ति संभव नहीं है। वह मात्र शरीर है। उसकी काया माया है।

गोया कि सदियों की संस्थापित व्यवस्था मनोवृत्ति बन जाती है। भारतीय इतिहास की पहले पहल स्त्री रचनाकारों की कविताएं यह दर्शाती हैं कि स्त्री की स्थिति क्या रही और कैसे उसने मुक्ति का बिगुल बजाया। आज से करीब ढाई हजार साल पहले की थेरी गाथा रचनाएं बौद्ध भिक्खुणियों के अंतर्मन को प्रस्तुत करती हैं। कैसे किसी किस्सगौतमी, अम्बपाली, उब्बीरी ने पितृसतात्मक समाज की परिवार रचना में दुःख झेले। यह भी इतिहास में दर्ज है कि गौतम ने भी भिक्खुणियों के लिए संघ के द्वार पहली ही बार में नहीं खोले। वह जानते थे कि समाज के लिए इतना बड़ा बदलाव सहन करना कठिन होगा। मगर संघ ने भिक्खुणियों को स्वीकार किया। यह स्वीकृति सशर्त थी। भिक्खुणियों को भिक्खुओं के समकक्ष नहीं रखा गया।

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कालांतर में अनेक विप्लव के स्वर भक्ति के जरिये उभरे। कारैकाल अमैयार, आंडाल, अक्क महादेवी, लाल डेढ़, मीरा, संत सोयराबाई, कान्होपात्रा और अनगिनत स्त्रियों ने सामूहिक मुक्ति से अपनी मुक्ति का मार्ग तय किया।

स्त्री को मात्र देह समझना अपने आप में एक राजनीति है। स्त्री को शरीर समझने से जो दूसरा पहलू जुड़ा है, वह भूमिका का है। भूमिका को लैंगिकता से जोड़ा गया है। किसान, लुहार, बढ़ई, मिस्त्री, बुनकर की काल्पनिक छवि में पुरुष का चित्र उभरता है। यहां तक कि डॉक्टर, पायलट, इंजीनियर के बतौर भी हम पुरुष को ही देखते हैं। अक्सर स्त्री वाहन चालकों पर फब्तीयां कसता समाज भूल जाता है कि पुरुष वाहन चालक भी गलती करते हैं। उस गलती को लैंगिकता से जोड़ा नहीं जाता।

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मानव इतिहास में जब वह शिकारी-संग्रहक रहा, तब किसकी क्या भूमिका रहा करती थी? नीरव जंगल में साथ-साथ रहते इंसानी समुदाय में हरेक वयस्क को शिकारी होना ही पड़ेगा। पचमढ़ी की महादेव पहाड़ी के शैल चित्र याद आए। कैसे महिलाएं शिकार करती थीं, संग्रहण भी करती थीं, मछली भी पकड़ती थीं, मधुमक्खी के छत्ते से शहद भी निकालती थीं। आंखों के सामने चलचित्र-सा गांव का दृश्य घूम गया। कैसे सारा दिन महिलाएं खेती में काम करती हैं, दीवारें चुनती हैं, करधा चलाती हैं। इसको सकल घरेलू उत्पाद से जोड़ा नहीं जाता। मगर पंचसितारा में पुरुष शेफ को लाखों का पैकेज मिलता है। श्रम के मूल्यांकन में असमानता गहरा राजनीतिक कदम है। मूल्यरहित कामों में दासता के लिए स्त्री को बंधक रखना, लक्ष्मण रेखा खींचना राजनीति है। इसी मानसिकता ने स्त्री को पूज्य कहा है, ताकि वह मानवीय चूक से परे कर दी जाए।  

अक्सर रानी लक्ष्मी बाई के ‘‘सुराज भव चाहिर्जे’’ के आव्हान का जिक्र होता है। मगर उनसे भी पहले 1848 में स्त्री स्वराज के लिए सावित्री बाई फूले, फातिमा बीबी ने शिक्षा क्रांति का अलख जगाया।

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यह एक महत्वपूर्ण पहलू है कि बदलाव कभी एकांगी नहीं होता। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तहजीबी अधिनायकत्व से लड़ते समय लैंगिक प्राधन्य से भी लड़ा गया। इसी माहौल में पंडिता रमाबाई ने स्त्री धर्म नीति की रचना कर डाली और विरोध झेला। पंडिता रमा बाई की ही तरह रुक्मा बाई राऊत ने पति से विच्छेद के हक के लिए जेल यातना को भी सहन किया। वह सुतार समाज की थीं और चिकित्सक थीं। लंबे संघर्ष के बाद चूंकि पति को दूसरा विवाह करना था, तब जाकर पति ने दांपत्य दावा वापस लिया। इसी दौरान सरला देवी चौधरानी ने भारत स्त्री महामंडल की 1910 में स्थापना की थी। 1917 में एनी बेसेंट के साथ जुड़कर स्त्री मताधिकार के लिए संघर्ष किया। परिणामतः त्रावणकोर-कोचि पहली देशी रियासत बनी, जिसने 1920 में महिला मताधिकार प्रदान किया।

आजाद भारत में भी स्त्री मुक्ति आंदोलन ने सत्तर-अस्सी के दशक में स्त्री चेतना को जगाने के प्रभावी प्रयास किए। जब 1978 में दो पुलिस कर्मियों ने मथुरा नाम की नाबालिग आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार किया। तब नारी निर्यातना प्रतिरोध मंच, कोलकत्ता, प्रोग्रेसिव ऑर्गेनाईजेशन ऑफ वूमन, हैदराबाद स्त्री संघर्ष संगठन, फोरम एगेंस्ट ओप्रेशन ऑफ वूमन, मुंबई के अथक संघर्ष ने 1983 में कानूनी संशोधन को अंजाम दिया। ऐसे ही दहेज प्रतिबंध का संशोधित कानून 1984 और 1986 में संगठनों की स्त्री चेतना से बन सका।

जब राजस्थान के दिवराला में रूपकुंवर को अग्नि मे झोंककर सती के लिए उकसाया गया, तब 1988 में महिला आंदोलन की ही पहल पर संशोधन कानून पुनः लाया गया।

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1985 में आपराधिक दंड प्रक्रिया की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिला को भरण पोषण राशि की अपील शाहबानो ने उच्चतम न्यायालय में पेश की और वह स्वीकारा गया। तत्कालीन सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला के तलाक पर संरक्षण कानून पारित किया जिसके तहत विवाह के दौरान तय राशि को भरण पोषण का आधार बताया। शाहबानो मामले पर सरकार का कोर्ट के फैसले से इतर संशोधन लाना परंपरावादियों की फतेह मानी गई। कालांतर में इस संशोधन की प्रगतिगामी परिणति की भी चर्चा होती है। 1992 में राजस्थान सरकार की साथिन भंवरी देवी ने बाल विवाह रोकने का प्रयास किया। तब उनके साथ गैंगरेप हुआ। पुलिस के अन्यायकारी रवैये, समाज का बहिष्कार, सरकार के द्वारा जिम्मेदारी को कुबूल न करने के नजरिये के चलते महिला संगठन आगे आए। निरंतर संघर्ष ने 1997 मे उच्चतम कोर्ट ने विशाखा नाम के संगठन की पहल पर सुनवाई करते हुए कार्य स्थल पर शोषण दुर्व्यवहार, बलात्कार रोकने तथा सजा का फैसला दिया। याद रखा जाए कि आज भी भंवरी देवी को इंसाफ नहीं मिला। लेकिन संघर्ष ने कार्यस्थल को जिम्मेदार बनाने का काम किया। निर्भया की दुःखद घटना के बाद पुनः बलात्कार पर कठोर संशोधन कानून आया।

महिला संगठनों की ही चेतना ने सबरीमला और हाजी अली में स्त्री प्रवेश का बिगुल बजाया। महिलाएं उत्तरपूर्वी भारत में भी उठ खड़ी हुईं। मणिपुर में सेना के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के बलात्कार का डट कर विरोध किया। अफस्पा पर आज भी इरोम शर्मिंला का संग्राम जारी है। मिजो महिला आंदोलन, नागा मर्दस एसोसिएशन, असोम महिला समिति ने नशा मुक्ति, स्त्री गरिमा, जायदाद, तलाक पर खूब लड़ाई लड़ी है।

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ऐसे ही माहौल ने स्त्री की राजनीतिक चेतना बढ़ाई। उत्तराखंड के चिपको आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, राज्य गठन आंदोलन में स्त्रियां पुरुषों से आगे रहीं। नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवाई गांव की महिलाएं करती रही हैं। हाल के किसान आंदोलन, सीएए/एनआरसी में नारी को संविधान के हक के लिए सड़क पर निकलते देखा है। खिलाड़ी बहनों ने यौन शोषण के खिलाफ आवाज ऊठाई तो केरल फिल्म उद्योग की नायिकाओं ने पहल करके हेमा कमेटी बनवाई।

यदि आज बिलकिस बानो के उत्पीड़कों को माला पहनाई जाती है, तो यह महज सांप्रदायिक नहीं है। बुली सुली डील पर सत्तारूढ़ दल चुप्पी साध लेता है। लाडली बहना की बात होती है, पर वैवाहिक रेप की बात उठाए जाने पर वैवाहिक संस्था के संरक्षण का हवाला दिया जाता है। सदियों से पितृसत्तात्मक कब्जा स्त्री पर आरोहित की जाती रही है। स्त्री मुक्ति से ही समाज को इस गुलामी से उबारा जा सकता है। तब शायद सही मायने में हर दिन शक्ति का एहसास होगा। मात्र नौ दिन की पूजा नहीं।

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