विचार

जलवायु परिवर्तन के कारण कई जीवों पर खतरा, शताब्दी के अंत तक बहुत सारी प्रजातियां हो चुकी होंगीं विलुप्त

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की वर्ष 2020 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है।

फोटो: IANS
फोटो: IANS 

हाल में ही कनाडा के मोंट्रियल में जैव-विविधता के संरक्षण से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज का दो सप्ताह तक चला अधिवेशन संपन्न हुआ है। इस अधिवेशन के अंत में बताया गया कि सभी देश इस संकल्प पर राजी हो गए हैं कि वर्ष 2030 तक पृथ्वी का 30 प्रतिशत भू-भाग जैव-विविधता के लिए संरक्षित कर दिया जाएगा। पूरी दुनिया इस संकल्प से खुश है, पर पर्यावरण संरक्षण के लिए संकल्प और वास्तविक कार्य में बहुत अंतर रहता है, और किसी भी देश द्वारा अधिवेशन के दौरान संकल्प और अधिवेशन के बाद इससे संबंधित योजनाओं को मूर्त रूप देने में बहुत अंतर रहता है।

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अधिवेशनों के नतीजे कुछ भी हों, पर तथ्य तो यह है कि मनुष्य की गतिविधियों के कारण जैव-विविधता लगातार नष्ट होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के साथ ही भू-उपयोग में अंतर– दोनों ही मनुष्यों की गतिविधियों का परिणाम हैं – और जैव-विविधता के विनाश में इनका सबसे बड़ा योगदान है। हाल में ही साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार अनियंत्रित तापमान वृद्धि के कारण इस शताब्दी के अंत तक दुनिया की 10 प्रतिशत से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगीं। इस अध्ययन के अनुसार यदि दुनिया इसी तरह गर्म होती रही, जिसके पूरे आसार भी हैं, तब वर्ष 2050 तक 6 प्रतिशत और वर्ष 2100 तक 13 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो चुकी होंगीं। यदि पृथ्वी का तापमान इससे भी तेजी से बढ़ा तो संभव है इस शताब्दी के अंत तक 27 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के अनुसार उनकी सूचि में कुल 150388 प्रजातियां हैं, जिनमें से 42000 विलुप्तीकरण के कगार पर हैं।

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संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की वर्ष 2020 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है। यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभाव से दुनिया की जैव विविधता दो-तिहाई ही रह जायेगी और एक-तिहाई विविधता विलुप्त हो चुकी होगी। यह अपने तरह का सबसे बृहद और विस्तृत अध्ययन है, और इसमें कई ऐसे पैमाने को शामिल किया गया था, जिसे इस तरह के अध्ययन में अबतक अनदेखा किया जाता रहा है। इसमें पिछले कुछ वर्षों में विलुप्तीकरण की दर, प्रजातियों के नए स्थान पर प्रसार की दर, जलवायु परिवर्तन के विभिन्न अनुमानों और अनेक वनस्पतियों और जन्तुओं पर अध्ययन को शामिल किया गया है। इस अध्ययन को प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित किया गया था और इसे यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के डिपार्टमेंट ऑफ इकोलॉजी एंड ईवोल्युशनरी बायोलॉजी विभाग के क्रिस्चियन रोमन पलासिओस और जॉन जे वेंस ने किया था।

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इस अध्ययन के लिए दुनिया के 581 स्थानों पर वनस्पतियों और जंतुओं की कुल 538 प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। ये सभी ऐसी प्रजातियां थीं जिनका अध्ययन वैज्ञानिकों ने दस वर्ष या इससे भी पहले किया था। इसमें से 44 प्रतिशत प्रजातियां वर्तमान में ही एक या अनेक स्थानों पर विलुप्त हो चुकी हैं। इन सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के आकलन के लिए 19 पैमाने का सहारा लिया गया, इस दृष्टि से यह जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रजातियों पर प्रभाव से सम्बंधित सबसे विस्तृत और सटीक आकलन है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो अगले 50 वर्षों में पृथ्वी से वनस्पतियों और जंतुओं की एक-तिहाई जैव-विविधता हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी।

हाल में ही वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट, लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट, के अनुसार दुनियाभर में जंतुओं की संख्या पिछले 48 वर्षों के दौरान औसतन 69 प्रतिशत कम हो गई है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं। रिपोर्ट के अनुसार पक्षियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृप वर्ग के जंतुओं में वर्ष 1970 से 2018 के बीच दो-तिहाई की कमी आ गयी है। यह कमी महासागरों से लेकर अमेज़न के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों तक – हरेक जगह देखी जा रही है।

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इस रिपोर्ट को हरेक दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित किया जाता है। नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जंतुओं की संख्या में 69 प्रतिशत की कमी आ गयी गई, पिछले रिपोर्ट में यह कमी 68 प्रतिशत थी, जबकि 4 वर्ष पहले जंतुओं की संख्या में महज 60 प्रतिशत कमी ही आंकी गयी थी। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89 वन्यजीव विशेषज्ञों ने तैयार किया है, और बताया है कि यह दौर पृथ्वी पर जैव-विविधता के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण का है। इस विलुप्तीकरण और पहले के 5 विलुप्तीकरण के दौर में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले के विलुप्तीकरण की घटनाएं प्राकृतिक कारणों से हुईं, जबकि इस दौर में प्रजातियां मनुष्यों की गतिविधियों के कारण संकट में हैं।

हाल में ही प्लोस बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार अंटार्टिका में मिलने वाले स्थानिक जंतुओं में से दो-तिहाई पर विलुप्त होने या आबादी में भारी कमी का खतरा है, और तापमान वृद्धि के कारण वर्ष 2100 तक यहां की स्थानिक प्रजातियों की संख्या में भारी गिरावट होगी। इस अध्ययन को 12 देशों के 28 वैज्ञानिकों ने सम्मिलित रूप से किया है। इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 2100 तक एम्परर पेंगुइन की 80 प्रतिशत से अधिक आवास स्थान विलुप्त हो जायेंगें और इसके साथ ही इनकी कुल संख्या में 90 प्रतिशत की कमी दर्ज की जायेगी।

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भारत ने भी वर्ष 2030 तक 30 प्रतिशत भूभाग को जैव-विविधता के लिए संरक्षित करने का संकल्प लिया है, पर केवल आंकड़ों की बाजीगरी से ही संभव हो सकता है। वर्तमान में देश में संरक्षित क्षेत्र पूरे देश के भूभाग के महज 5.27 प्रतिशत क्षेत्र में स्थित है, जिसे संकल्प पूरा करने के लिए 30 प्रतिशत तक पहुंचाना होगा। इस समय देश में कुल 990 संरक्षित क्षेत्र हैं, जिसमें 106 राष्ट्रीय उद्यान, 565 वन्यजीव अभयारण्य, 100 कंजर्वेशन रिजर्व, 219 कम्युनिटी रिजर्व शामिल हैं और इनका कुल क्षेत्र 173307 वर्ग किलोमीटर है।

संरक्षित क्षेत्रों के का होने के कारण या फिर संरक्षित क्षेत्रों में खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के कारण जंगली पशु आबादी के क्षेत्र में पहुंच जाते हैं, जिसके कारण मानव-पशु टकराव बढ़ता जा रहा है। इसमें दोनों की जान जाती है। जुलाई 2022 में लोक सभा में पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि वर्ष 2018 से 2021 के बीच देश में बिजली का करेंट लगाने के कारण 222 हाथियों की मृत्यु हो गयी, रेलगाड़ी से टकराकर 45, शिकारियों द्वारा 29 और जहर देकर 11 हाथियों की हत्या की गयी। वर्ष 2019 से 2021 के बीच शिकारियों ने 29 बाघों को मारा, और 192 बाघों के मौत का कारण अभी तक तय नहीं किया जा सका है। पिछले 3 वर्षों के दौरान हाथियों द्वारा 1579 व्यक्ति मारे जा चुके हैं, जबकि इसी अवधि के दौरान अभ्यारण्य के क्षेत्र में बाघों ने 125 लोगों पर हमला कर मार डाला।

अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियां एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है। आश्चर्य यह है कि तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद भी मनुष्य अपनी कब्र खोदता ही जा रहा है।

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