उत्तर प्रदेश पुलिस दर्ज किए जाने वाले मामलों में जाति का उल्लेख भी कर रही थी। इस पर पुलिस के मुखिया ने जो सफाई दी, उससे नाराज होकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश विनोद दिवाकर ने इस पर तत्काल रोक का आदेश दिया। इसके बाद राज्य सरकार ने जो किया, खुद अदालत को इसकी कल्पना नहीं होगी। कल तक पुलिस इसे पुरानी और उपयोगी परंपरा बता रही थी, लेकिन सरकार ने तुरंत आदेश जारी करके न सिर्फ एफआईआर में जाति का उल्लेख रोकने को कहा बल्कि जातीय रैलियों, आयोजनों, जाति के गौरवगान और गाड़ियों पर जाति का नाम लिखने जैसी सारी चीजों पर रोक लगा दी।
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इसका एक असर तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में आयोजित हो रही गुर्जर चौपालों पर पड़ा जिसने तत्काल नाम बदलकर इन्हें ‘पीडीए’, अर्थात पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक आयोजन बना दिया, तो प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह इसे जाति समाप्ति का ऐतिहासिक फैसला बताने से नहीं चूके। और अगर इनकाउंटर और बुलडोजर पर भरोसा करने वाली योगी सरकार है, तो भरोसा मानिए कि कुछ समय इसी नाम पर सख्ती की खबरें भी आएंगी।
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बीजेपी हिन्दुत्व की राजनीति करती जरूर है लेकिन मंडल के बाद से वह किसी भी अन्य दल से कम जातिवादी नहीं है। यह अलग बात है कि उसका जातिवाद अगड़ों और पुरुषों की तरफ झुका है। वह उन दलों से कम नहीं जिनका नाम ही जाति पर है या जो मुख्यतः एक जाति के सामाजिक आधार पर राजनीति करते हैं। असल में, अदालत का आदेश उसके लिए एक तत्काल राहत भी ले आया है, क्योंकि उसकी सरकार में शामिल ऐसी छोटी पार्टियों की तरफ से उससे असुविधाजनक सवाल पूछे जाने लगे थे जो मुख्यतः जाति आधारित पार्टियां हैं।
इनमें निषाद पार्टी, (राजभरों की) सुहेलदेव पार्टी और (पटेलों की) अपना दल शामिल है। खुद भूपेन्द्र सिंह जिस जाट समुदाय से आते हैं, उसमें आधार रखने वाली आरएलडी भी नाराज चल रही है। और स्वाभाविक तौर पर, जब ऐसी पार्टियां नाराज होंगी, तो अपने सामाजिक आधार के पास लौटने का प्रयास करेंगी; उनसे शिकायत करेंगी कि बीजेपी ने जिन वायदों के साथ हमें साथ लिया था, वह पूरा नहीं किया। इस आधार पर वे बीजेपी विरोधी दलों से नई सौदेबाजी करेंगी। खैर।
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वैसे, जाति की यह राजनीति आज से नहीं, अंग्रेजी राज के दिनों से चल रही है। महात्मा गांधी और कांग्रेस को भी इस रोग का पता था लेकिन उनको इस काम की विशालता और इसके पीछे की ताकत का अंदाजा था। इसलिए गांधी आजादी को सर्वोच्च प्राथमिकता मानकर पचासों मोर्चों पर लड़ते रहे। अपने आचरण में उन्होंने जाति नहीं मानी लेकिन पत्नी और परिवार से लेकर देश भर में जातिगत भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ आंदोलन करते रहे। हरिजन यात्रा निकाली, मंदिर प्रवेश का आंदोलन चलाया, हरिजन-केन्द्रित अखबार निकाला और अपने तीन सबसे प्रमुख कार्यक्रमों में छुआछूत हटाना शामिल रखे रहे। इतना ही नहीं, वह बाबा साहब आम्बेडकर की हर शिकायत पर गौर करते थे, खुद को बदलते रहे और इस नाम से समाज को बांटने के अंग्रेजों के षडयंत्र के प्रति भी सचेत रहे।
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गांधी को मालूम था कि जाति कितनी ताकतवर है और राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व में भी किस तरह ऊपरी जाति के लोग हावी हैं। उनको यह भी मालूम था कि जाति ने ही बौद्ध धर्म को निगल लिया क्योंकि वह जाति तोड़ने की मुहिम चला रहा था। उनको यह भी पता था कि बौद्ध धर्म के बाद सनातन समाज को नई ऊर्जा देने वाले शंकराचार्य भी जाति से नहीं टकराए और इसे माया बताकर अपना काम कर गए। इससे सीधे टकराने और समाज में इससे होने वाले नुकसान, जड़ता की तरफ सबसे पहले विवेकानंद ने ध्यान दिया और उद्घोष कियाः जब तक जड़ता नहीं टूटेगी, भारत आगे नहीं बढ़ेगा।
साथ ही, उन्होंने कहा कि भारत शूद्रों का होगा और शूद्र ही इसका नेतृत्व करेंगे। गांधी इस मंत्र को लेकर आगे बढ़े, बाबा साहब इस मंत्र को लेकर चले। दोनों का तरीका अलग-अलग था। एक मन बदलना चाहता था, दूसरा शासकीय इंतजाम चाहता था। इसका असर सामाजिक चेतना और उदारता के विस्तार में भी आया और कानूनी/शासकीय व्यवस्थाएं भी बनीं। दोनों धाराएं यहां मिलीं। काफी कुछ बदला है लेकिन हम इन सब की हद देख रहे हैं कि सौ साल की इतनी व्यापक मुहिम के बाद भी जाति और उसकी बुराइयां किस हाल में हैं।
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उत्तर प्रदेश में अब एक शासकीय आदेश से इतिहास रचने का भ्रम फैलाने वाली बीजेपी क्या रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। यह बड़ी सच्चाई यह है कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने तक पूरा संघ परिवार पिछड़ों के लिए विशेष अवसर की व्यवस्था का विरोधी था। लेकिन चुनावी मजबूरियों ने उसे यह बदलाव करने को विवश किया। पर दलितों, औरतों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के प्रति उसका रवैया अब भी छुपा नहीं है। यह तब है जबकि एक कथित पिछड़ा ही केन्द्र में मुखिया है। संघ और भाजपा ने कभी दलितों के प्रति दिखावे से अधिक कुछ किया हो, इसका कोई उदाहरण नहीं है। अंतरधार्मिक शादियां तो उसकी राजनीति का खुराक हैं ही, अंतरजातीय शादी भी उसको पसंद नहीं है।
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असल में, जाति को हल्का मानना असली सवाल से नजर चुराना है क्योंकि जाति तोड़ने और छोड़ने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए, बहुत पक्का संकल्प चाहिए, बहुत ताकत चाहिए। जाति बहुत मजबूत व्यवस्था है लेकिन यह बहुत लचीली भी है। वह देश, काल और आर्थिक-सामाजिक स्थिति के अनुरूप खुद को मोड़ लेती है। और सबके ऊपर, उसके साथ धार्मिक सत्ता की मोहर भी लगी है। बेटी-रोटी से लेकर राजनीतिक सत्ता तक का रिश्ता बनाने और चलाने में उसकी सबसे प्रभावी भूमिका है। और यह सामाजिक-राजनीतिक ही नहीं, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कार्यव्यापार को भी प्रभावित करती है, उससे जुड़ी है। दलित होने का मतलब आत्मसम्मान की कमी भी है जो किसी दलित मां के गर्भ से जन्म लेने भर से नहीं आती है। समाज में दसियों वंचनाएं है लेकिन इतना खतरनाक कोई नहीं।
सो, बीजेपी को इस बहाने अभी एक ऐसा खिलौना मिल गया हो सकता है जो खतरनाक ही है।
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