
पहलगाम में आतंकी हमले के बाद से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर साधारण कार्यकर्ता तक बिहार के आगामी चुनावों में इस मुद्दे से अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं तो दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर आईटी सेल तक सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ाने की फिराक में हैं। सत्ता और मीडिया का आतंकवाद के खात्मे का यही मतलब है। हमारा मीडिया प्रधानमंत्री के सिंधु समझौते को स्थगित करने का बयान कुछ इस तरीके से पेश कर रहा है मानो आज ही पूरे पाकिस्तान में सूखा पड़ जाएगा।
पिछले कुछ वर्षों से भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर है, सीमा पर फायरिंग के बीच युद्ध से लेकर परमाणु युद्ध तक की धमकी दी जा रही है। इन दोनों देशों के बीच तनाव का असर पर्यावरण पर भी पड़ रहा है, और सम्भव है कि आने वाले वर्षों में पर्यावरण के विनाश के असर से दोनों देशों के बीच एक नए किस्म का तनाव पैदा हो जाए। वैसे इस नए किस्म के तनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। सिन्धु नदी तिब्बत से निकलकर भारत आती है और फिर पाकिस्तान में प्रवेश करती है। पाकिस्तान के एक बड़े हिस्से में खेती सहित पानी की सभी जरूरतें इसी नदी-तंत्र और इसकी सहायक नदियों से पूरी की जाती है।
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उरी हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि खून और पानी साथ-साथ नहीं बह सकते, इसलिए वे भारत को सिन्धु जल समझौते से अलग कर देंगे और सिन्धु नदी का पानी रोक देंगे| उनका ये कथन पाकिस्तान को धमकी थी, क्योंकि पाकिस्तान के बड़े हिस्से की जरूरतें इसी नदी के पानी से पूरी होती हैं। खैर, इसके बाद कुछ किया नहीं गया पर कुछ नेताओं और मंत्रियों ने समय-समय पर पीएम मोदी के इस कथन को दोहराया।
वर्ष 2019 में हरियाणा के विधान सभा चुनावों की एक रैली में फिर पीएम मोदी को सिन्धु नदी की याद आयी, उन्होंने कहा पिछले 70 वर्षों से हमारा पानी पड़ोसी देश में जा रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, हम यह पानी हरियाणा ले आयेंगें और संभव होगा तो राजस्थान भी पहुचाएंगे। इसके बाद पाकिस्तान में सरकार की उच्चस्तरीय मीटिंग की गयी और इसका निष्कर्ष था कि भारत द्वारा सिन्धु जल समझौते में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ को उकसावे की हरकत मानी जायेगा।
इसके बाद भी जम्मू और कश्मीर में अनेक आतंकवादी हमले हुए, स्थानीय नागरिक मारे गए, सुरक्षा बल के जवान मारे गए, बाहर से आए श्रमिक मारे गए, कश्मीरी पंडित भी मारे गए पर सिंधु नदी समझौता चलता रहा। पर, पहलगाम हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार इसे स्थगित कर दिया गया है।
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वर्षों के विचार विमर्श के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच 19 सितम्बर 1960 को सिन्धु जल समझौता किया गया था। इस समझौते पर भारत की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु और पाकिस्तान की तरफ से तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किये थे। इस समझौते के तहत सिन्धु और इसकी सहायक नदियों के जल का बंटवारा किया गया था क्योंकि सभी नदियां पहले भारत में बहतीं हैं और फिर पाकिस्तान में जाती हैं। इसके तहत पूर्व की दिशा में बहने वाली तीन नदियों, ब्यास, रावी और सतलज के पानी पर पूरा अधिकार भारत का है। पश्चिम में बहने वाली तीन नदियों, सिन्धु, चेनाब और झेलम के पानी पर पाकिस्तान का अधिकार है, पर भारत इससे सिंचाई, परिवहन और पनबिजली का काम कर सकता है।
सिन्धु नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 11,65,000 वर्ग किलोमीटर है और इसमें प्रतिवर्ष 207 घन किलोमीटर पानी बहता है। पानी के बहाव के सन्दर्भ में यह दुनिया की नदियों में 21वें स्थान पर है। जहां तक पानी के उपयोग के सवाल है, भारत के अधिकार वाली नदियों का खूब उपयोग किया जाता है।
इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन कि पिछले 70 सालों से हमारा पानी पाकिस्तान में जा रहा है, पूरी तरह से गलत है। रावी और व्यास नदियों का 3.3 करोड़ एकड़ फीट पानी भारत उपयोग में ला रहा है, जबकि पाकिस्तान में प्रवेश करने के समय इसमें महज 20 लाख एकड़ फीट पानी बहता है। बस इतना सा पानी होता है कि नदी की एक छोटी धारा बह सके।
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रावी और व्यास नदियों के जल में दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान की हिस्सेदारी भी है पर यह पानी इन राज्यों तक नहीं पहुच पा रहा है। इसके लिए पाकिस्तान जिम्मेदार नहीं है, बल्कि पंजाब सरकार जिम्मेदार है जिसने सतलज-यमुना लिंक कैनाल का काम रोका है। इसके तहत नांगल बांध से करनाल में यमुना नदी तक नहर बननी है, जो नहीं बन पा रही है।
तमाम विशेषज्ञों के अनुसार एक बार यदि मान भी लिया जाए कि हम पाकिस्तान का पानी रोक देंगे, पर सवाल यह है कि इस पानी का संचयन कैसे करेंगे? यहां रिजर्वायर नहीं हैं, नहरों का जाल नहीं है, फिर पानी रोकेंगे कैसे? पानी रोकने का वक्तव्य तो केवल गीदड़-भभकी है, इसका कोई मतलब नहीं है।
सिन्धु जल समझौता दुनिया के सफलतम जल समझौतों में शुमार है। लगातार तनाव और अनेक युद्ध के बाद भी यह लगातार कायम रहा है। दरअसल दोनों देशों की भौगोलिक स्थितियां नदियों के बहाव के अनुरूप हैं। यह समझौता तो अभी तक बरकरार था, पर भविष्य में क्या होगा यह बताना कठिन है। इस समझौते में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के कारण पानी के बहाव में कमी जैसे विषय शामिल नहीं हैं। यह वर्तमान का विषय है और हिन्दुकुश हिमालय तापमान वृद्धि के प्रभावों के कारण लगातार चर्चा में रहता है। यहां ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र सिन्धु नदी का जल ग्रहण क्षेत्र ही है।
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हिन्दूकुश हिमालय लगभग 3500 किलोमीटर के दायरे में फैला है, और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु समेत अनेक बड़ी नदियां उत्पन्न होती हैं, इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर सीधे आश्रित हैं। अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर, तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनियाभर में सागर तल में 2 मीटर की वृद्धि हो सकती है|
इन वैज्ञानिकों के अनुसार पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में वर्ष 2100 तक यदि तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ता है तब भी हिन्दूकुश हिमालय के लगभग 36 प्रतिशत ग्लेशियर हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगे। यदि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तब लगभग 50 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे, पर यदि तापमान 5 डिग्री तक बढ़ जाता, जिसकी पूरी संभावना है, 67 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे। यहां ध्यान रखने वाला तथ्य यह है कि वर्ष 2024 तक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियर बढ़ चुका है। अनुमान है कि वर्ष 2030 से सिन्धु नदी और इसकी सहायक नदियों में पानी का बहाव कम होने लगेगा और वर्ष 2060 तक इसमें 20 प्रतिशत कम पानी बहने लगेगा।
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ऐसी स्थिति में एक नयी समस्या खड़ी हो जायेगी और भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव का एक नया दौर शुरू हो सकता है। तनाव के साथ-साथ दोनों देशों की एक बड़ी आबादी प्रभावित होगी और इसके आसपास का पारिस्थितिकी तंत्र भी। तापमान वृद्धि के इस इस दौर में सिंधु नदी के अस्तित्व और स्वरूप को बचाने की जरूरत है, पर यह नदी इस दौर में एक हथियार बन चुकी है।
पाकिस्तान के ऊर्जा मंत्री ने भारत के इस समझौते से अलग होने के ऐलान को जल-युद्ध का नाम दिया है। तमाम विशेषज्ञों के अनुसार यह समझौता भले ही आदर्श नहीं हो पर यह नदी जल सहयोग से संबंधित सफलतम समझौतों में से एक रहा है। भारत के इस समझौते से अलग होने का प्रभाव केवल दक्षिण एशिया तक ही नहीं सीमित रहेगा बल्कि संभव है दूसरे देश भी ऐसे समझौतों की अनदेखी करना शुरू कर दें।
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