विचार

विष्णु नागर का व्यंग: आजकल पीएम मोदी, गृहमंत्री, भाजपाई मुख्यमंत्री, सांसद, से लेकर विधायक सभी दुखी, जानते हैं क्यो?

प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, भाजपाई मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक सभी तो आजकल दुखी हैं। बुक्का फाड़कर, रो रहे हैं। कश्मीरी पंडितों का दुख अब जाकर वोटदाता दुख बना है, इसलिए अब छाती पीट रहे हैं।

फोटो : IANS
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भारत के 'महान उपन्यासकार' और माननीय मोदी जी के 'चरमभक्त' श्री-श्री चेतन भगत जी ने सवाल उठाया है कि हिंदुओं के दुखों पर बात करने से परहेज़ क्यों? भगत जी का मतलब दरअसल हिंदुवादियों के दुखों से है, क्योंकि जब से मोदी जी हैं, इनके दुख भी कुछ ज्यादा ही हैं।इनके दुख सामान्य हिंदुओं के दुख नहीं हैं क्योंकि उनके दुख तो वही हैं, जो कि किसी भी आम हिंदुस्तानी के दुख हैं-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, झूठ आदि। हिंदूवादी इन भौतिक दुखों से परे रहते हैं। इनके फर्जी किस्म के स्थायी दुख हैं, जो पिछले लगभग 100 सालों से इन्हें सता रहे हैं और अगले दो सौ वर्षो तक इन्हें सताते रहेंगे। चाहे सौ मोदी आ जाएं ,चाहे दस हजार भगत इन दुखों की भक्ति करते पाए जाएं। ये अविनाशी दुख हैं, जैसे गोहत्या, धर्म परिवर्तन, लव जिहाद, मुसलमानों की बढ़ती आबादी वगैरह। दुनिया इधर से उधर हो जाए मगर इनके ये दुख मिट सकते नहीं क्योंकि इनके दुखों का स्थायी कनैक्शन भारत के मुसलमानों से जुड़ा है। जब तक इस धरती पर मुसलमान रहेंगे और हिन्दू और चूंकि ये हमेशा रहेंगे, इसलिए इनके ये लाइलाज़ दुख भी रहेंगे। सौ साल से उम्र हुईं इन दुखों की मगर तारीफ करना होगी कि इन्होंने इन बीमार-अशक्त दुखों को छाती से चिपकाया हुआ है। अंग्रेज चले गए, कांग्रेसी भी सत्ता में नहीं रहे, मोदी जी भी आ गए मगर इनके दुख वहीं के वहीं चिपके हुए हैं। ये चूंकि निवारणीय दुख हैं नहीं, अभिवृद्धात्मक हैं, इसलिए इनकी और आनेवाले सभी मोदियों की यह जिम्मेदारी है कि वे इन्हें बढ़ाते रहें और स्वयं आगे बढ़ते रहें। इनकी सेवा में नये नये चेतन भगत आते रहेंगे।

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तो भगत जी महाराज, आपके सूचनार्थ निवेदन है कि पिछले दो-तीन हफ्तों से 'कश्मीर फाइल्स' के बहाने इन आरक्षित कोटि के चिरंतन हिंदू- दुखों पर ही बात हो रही है। इन्हीं दुखों का सेलिब्रेशन चल रहा है। इन दुखों पर बात करने का परहेज़ कहां दिख गया आपको? प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, भाजपाई मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक सभी तो आजकल दुखी हैं। बुक्का फाड़कर, रो रहे हैं। कश्मीरी पंडितों का दुख अब जाकर वोटदाता दुख बना है, इसलिए अब छाती पीट रहे हैं। इस दुख में कश्मीरी मुसलमानों के दुख शामिल नहीं है, इसलिए ये दुख बढ़ गया है। इसके विलेन मुसलमान हैं, इसलिए ये दुख,दुख हैंं। जो दुख सबके होते हैं, उनसे इनका स्वार्थ नहीं सधता।

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तीस बरस पुराना कश्मीरी पंडितों वाला यह दुख, हिंदूवादियों के बाकी सभी दुखों पर आजकल भारी है। इनके दुख को देखकर कश्मीरी पंडितों की आँखें भी भर आई हैं। इस दुख में भाजपाइयों की वोटात्मक खुशी छुपी है, जो इनके तन-मन में समा नहीं रही है। इस दुख के हिंदूवादियों की नई रामजन्म भूमि मंदिर दुख होने की प्रबल संभावनाएँ हैं। 'कश्मीर फाइल्स' ने फिल्म निर्माताओं को भाजपा के संरक्षण में हिंदू दुखों से मोटी कमाई करने का नया रास्ता दिखाया है, इसलिए अब ऐसे दुख हर दूसरे-तीसरे महीने पधारा करेंगे। इससे आज फिल्म निर्माता कमाई करेंग और 2024 में मोदी वोट की बंपर कमाई करेंगे।

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अब तो लगता है कि दुख किसी और के पास रहे नहीं। सारे दुख हिंदू-दुख हो चुके हैं क्योंकि बाकी सब तो मोदी जी के आने से सुखी हो गये हैं, दुखी केवल ये हैं। किसानों की आय अब दुगुनी हो चुकी है। मनरेगा मजदूरों को तत्काल मजदूरी मिल रही है। छोटे कारोबारी लाकडाउन में अपना धंधा सिमट जाने से बहुत सुखी हैं। कश्मीरी मुसलमान धारा 370 के हटने से इतने अधिक सुखी हैं कि यह समझना कठिन है कि हिंदुत्ववादी अधिक खुश हैं या ये? हिंदुस्तान के मुसलमान तो सेक्युलरिज्म की अर्थी उठ जाने से इतने अधिक खुश हैं कि बेचारे हिंदुओं के दुखों की उन्हें परवाह तक नहीं रही!

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वैसे भगत जी भक्ति रस में डूबने के कारण आपको यह नहीं दिखा कि हिंदुओं के दुखों पर बात करने से हिंदुवादियों को पहले भी कभी परहेज़ नहीं रहा। परहेज़ शब्द से तो इनकी स्थायी दुश्मनी है। अंग्रेजों का साथ देने और स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध करने से उन्हें कभी परहेज़ नहीं रहा। गाँधी जी की हत्या हुई तो इन्हें मिठाई खाने से परहेज़ नहीं रहा। परहेज़ खाकी चड्ढी से जरूर अब हो चला है मगर यह स्वैच्छिक है। बाकी परहेज़ और संघ,परहेज़ और मोदी का हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है।

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भगत जी आजकल आपके ये सारे मित्र-हितचिंतक छाती कूट- कूट कर अपने दुख रो रहे हैं बल्कि नये- नये नकली दुखों का आयात कर रहे हैं, ताकि वे स्थायी रूप से छातीकूटू मुद्रा में सुखपूर्वक रह सकें। जैसे जुमे की नमाज़ प्रशासन की अनुमति लेकर मुसलमान कहीं पढ़ें तो इससे ये दुखी। मुसलिम छात्राएँ हिजाब पहनें तो ये दुखी। मंदिर परिसर से बाहर पर्व-त्योहार पर लगे मेले में मुसलमान दुकान लगाएँ तो ये दुखी। उनकी दाढ़ी से ये दुखी, उनकी टोपी से ये दुखी। और दुखी होने के लिए यह फिल्म भी आ गई है। वैसे ये नानमोदी, सेक्युलर हिंदुओं से भी दुखी हैं। अगर कोई साहू महिला व्यासपीठ पर बैठकर भागवत बाँचे तो उससे भी ये दुखी हैं।इतने अधिक दुखी हैं कि उसे मुजरा करने की सलाह दे रहे हैं। दलित दूल्हा सवर्ण बस्ती से घोड़े पर बैठकर जुलूस निकाले तो उससे भी ये दुखी। इनके दुखों का पारावार नहीं। दुख ही इनके जीवन का कथा है। इन्हें सुखदायक-कुर्सीदायक मगर जनता को दुखदायक इनके दुखों के लिए हार्दिक.... ।

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