विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: खाने के ऐसा शौकीन जिसने लोकतंत्र तक को खाना और पीना शुरू कर दिया!

धरने, प्रदर्शन, काले झंडे, यहां से वहां तक ,जितने भी थे, सब खा लिये। उसने किसान खा लिये, मजदूर खा लिये। युवाओं और छात्रों का सुस्वादु भोजन कर लिया। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।

प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : countercurrents
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : countercurrents 

यूं तो वह रोज बहुत ही अधिक खाता था मगर उसे उस दिन जबरदस्त से भी जबरदस्त भूख लगी थी। वह दोनों हाथों से खाता गया -पीता गया। पीता गया, खाता गया। उसे पैरों से खाना नहीं आता था, इस कमी का उसे उस दिन बड़ी शिद्दत से एहसास हुआ। मुंह भी उसका केवल एक था और पेट भी मात्र एक! यह स्थिति उसके लिए असह्य थी मगर जीवन है तो दुख हैं, यह सोचकर उसने किसी तरह संतोष कर लिया था। उसे अपनी इस असमर्थता पर शर्म-सी भी आई पर उसके पास जितनी सामर्थ्य थी, उसका पूरा उपयोग कर वह खाता गया- पीता गया। 24 में से 18 से लेकर 20 घंटे वह खाता चला गया, पीता चला गया। वह 'वीर' की तरह खाने- पीने के पथ पर अविराम चलता गया, रुका-थमा-थका नहीं, सांस लेने तक के लिए वह नहीं रुका। जो भी सामने था, सब उसने खाया- पीया। वह इतना उदार हो गया था कि खाद्य -अखाद्य के बीच भी उसने भेद नहीं किया। अखाद्य को भी खाद्य समझकर ही खाया। चटखारे ले-लेकर खाया।

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शाकाहारी खाया तो मांसाहारी की उपेक्षा नहीं की दाल- चावल, खिचड़ी, रोटी, पालक- पनीर, शाही कोफ्ता खाया तो मांस -अंडे-मछली-झींगे आदि को भी नहीं छोड़ा। हलाल और झटका में भेद नहीं किया। बोटियां भी उसने नोंच नोंच कर खाईं। खाने में ईमानदारी और पारदर्शिता में उसने कोई कमी नहीं आने दी।

मिठाइयों को भी एक- एक कर उसने इतने प्रेम से सेवन किया कि हलवाई तो हलवाई, मिठाइयां तक धन्य हो गईं। पीने में भी उसने कुछ भी नहीं छोड़ा। जूस भी, भांग भी, शराबें भी। उसने व्हिस्की से शुरूआत की और जो भी शराब उसके सामने आती गई, पीता गया मगर खास बात यह थी कि झूमा नहीं, नाली में गिरा नहीं, कै नहीं की। परोसनेवाले थक गए, डर भी गए कि कहीं यह सबकुछ खाने के बाद भी भूखा न रह जाए और कहे, अब मैं तुम्हें भी खाऊंगा! उसके लिए ऐसा करना असंभव नहीं था मगर उसने ऐसा न करके विश्व के सामने आदर्श प्रस्तुत किया।

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कुछ बचा नहीं, सारा भंडार खाली हो गया तो उसे डरते- डरते बताया गया कि सर, अब कुछ बचा नहीं है। जो भी हमारे पास था, जो भी मंगवाया था,सब आपकी सेवा में पेश कर दिया। उसने कहा, यह कैसे हो सकता है कि मेरे होते हुए कुछ न बचे? मैं इतना तो खाता नहीं हूं! खैर तुम चिंता मत करो। बाकी इंतजाम मैं खुद कर लूंगा। अब मुझे धन्यवाद दो। सबने तीन बार सर झुकाकर उसे धन्यवाद दिया। तब उनकी सांस में सांस आई! उन्होंने मुक्ति पाई।

फिर उसने लोकतंत्र को खाना और पीना शुरू किया। धरने, प्रदर्शन, काले झंडे, यहां से वहां तक ,जितने भी थे, सब खा लिये। उसने किसान खा लिये, मजदूर खा लिये। युवाओं और छात्रों का सुस्वादु भोजन कर लिया। जंगल खा लिये, पहाड़ खा लिये, नदियां पी लीं, समुद्र पीकर सुखा दिए। झरने डकार लिये, खदानें उदरस्थ कर लीं। दलितों और आदिवासियो़ं को तो उसने एक ग्रास में निबटा दिया। कालेज खा लिये, विश्वविद्यालय जीम लिये, अस्पताल तो उसने इतनी जल्दी खा लिये कि उनका पता ही नहीं चला। मस्जिद-दरगाहें, चर्च और मंदिर खा लिये। पर्यावरण निबटा दिया। परिवार खा लिये, रिश्तेदारियां खा लीं। दोस्त खा लिये। जो भी जिस रूप में जहां भी मिला, खाता और पीता गया। मस्ताता गया।

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संसद और विधानसभाएं कुछ खा लीं और कुछ पी लीं। अनेक मंत्री और मुख्यमंत्री डकार लिये। संविधान की चटनी उसे मजेदार लगी, उसे बार-बार चाटा। कानून पीस कर, घोटकर, छानकर गले के नीचे पहुंचाया। ईडी खा ली, सी बीआई, पी ली। अदालतों का भोग लगा लिया। कुछ सरकारें खा लीं, कुछ पी लीं। कुछ गटक लीं, कुछ चबा लीं। चुनाव आयोग उसे खाते हुए भी और पीते हुए भी स्वादिष्ट लगा। ईडी-सीबीआई तो उसका रोज का भोजन था। मजे करने में उसने कंजूसी नहीं की।

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वह इतना उत्साहित था कि सूरज, चांद, सितारे भी खा जाना चाहता था मगर यह सोचकर रुक गया कि कल-परसों क्या खाऊंगा? मगर भूख थी कि मिट नहीं रही थी। उसे लगा कि अभी भी कुछ ऐसा है, जो खाये बिना उसे तृप्ति नहीं मिलेगी। वह क्या है, यह उसे देर से समझ में आया। समझ में आया तो वह मुस्कुराया कि अब तो वह खुद को खाकर ही संपूर्ण तृप्ति प्राप्त कर सकता है मगर खुद को खुद तो खा नहीं सकता था।

उसे सूझा कि खुद को खाने- पीने का भी एक तरीका है कि वह अपनी परिवारजनों का एक- एक कर भोग लगाया।उसने इसमें देर नहीं की। तृप्ति की उसकी उस दिन की खोज पूरी हुई।अगर कोई सोचता है कि इसके बाद खाने पीने के लिए क्या बचा होगा,तो उसे मूर्ख कहना असंसदीय होगा, बुद्धिहीन कहना संसदीय माना जाएगा। और इस तरह यह कहानी यहां खत्म होकर भी खत्म नहीं होती।

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