विचार

आकार पटेल का लेख: जब कुछ राजनीतिक दलों का अस्तित्व ही टिका हो सांप्रदायिकता पर तो दक्षिण एशिया कैसे हो इससे मुक्त!

दक्षिण एशिया को सांप्रदायिकता से मुक्ति का समाधान तो यही है कि आंतरिक राष्ट्रवाद छोड़ा जाए। लेकिन ऐसा लगता है कि बहुत से लोग समाधान नहीं चाहते क्योंकि वे या तो समस्या को समझ ही नहीं पाए या फिर कुछ राजनीतिक के अस्तित्व का आधार ही सांप्रदायिकता है।

20वें आसियान शिखर सम्मेलन में शामिल नेता
20वें आसियान शिखर सम्मेलन में शामिल नेता 

बीजेपी के राम माधव ने एक लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है, ‘दक्षिण एशिया की प्रगति  के लिए सांप्रदायिकता का खात्मा जरूरी’। इस लेख में मुख्य रूप से दो बिंदुओं को रेखांकित किया गया है। पहला यह कि ‘दक्षिण एशिया पूरे विश्व में सबसे तेज रफ्तार से प्रगति करने वाला क्षेत्र बनने के मार्ग पर अग्रसर है। कभी हिंदुस्तान का हिस्से रहे बांग्लादेश और पाकिस्तान में बिगड़ते हालात के बावजूद दक्षिण एशिया 6 फीसदी से ज्यादा की दर से प्रगति करेगा।’

राम माधव ने जो दूसरा उठाया है, वह यह है कि समृद्धि के लिए दक्षिण एशिया को सांप्रदायिकता छोड़नी होगी। प्रगति के लिए यह एक सटीक नुस्खा है। सवाल यह है कि इसे कैसे हासिल किया जाए? चूंकि इसी विषय पर मैं एक किताब लिख रहा हूं, इसलिए इस सवाल से मैं भी जूझ रहा हूं। मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, वह यह है कि दक्षिण एशिया के लिए अंदरूनी तौर पर सामान्य होना, यानी कम सांप्रदायिक होना, तब तक संभव नहीं है जब तक कि वह एकीकृत भारत के अन्य हिस्सों के साथ बाहरी रूप से सामान्य न हो जाए।

लेकिन फिर बात वही है कि, कोई बाहरी तौर पर कैसे सामान्य हो सकता है? मौजूदा हालत यह है कि हमारे क्षेत्र में तो क्रिकेट तक एक दूसरे की सीमाओं से परे जाकर नहीं खेला जाता है, वीजा नहीं दिए जाते हैं, हमने बांग्लादेश में अपनी राजनयिक मौजूदगी घटा दी है, आदि आदि।

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इसका जवाब हासिल करने के लिए हमें दुनिया के उन हिस्सों पर नजर डालनी होगी, जहां पूर्व में दुश्मनी रही है, कुछ मामलों में तो बेहद कट्टर और तकलीफ देने वाली दुश्मनी रही है जैसी कि शायद ऐतिहासिक रूप से इस इलाके में नहीं रही और न ही किसी ने ऐसी दुश्मनी देखी होगी।

जर्मनी और फ्रांस ने एक दूसरे के खिलाफ दो विश्व युद्ध लड़े हैं, जिनमें लाखों लोगों की मौत हुई है। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चिमी मोर्चे लगभग पूरा हिस्सा तो फ्रांसीसी जमीन पर ही लड़ा गया था। सैन्य पराजय के बाद हिटलर की अगुवाई में जर्मनी ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया था। लेकिन आज दोनों के रिश्ते सामान्य हैं। दोनों का एक दूसरे में विलय नहीं हुआ और फ्रांस, फ्रांस ही रहा और जर्मनी भी, जर्मनी ही है, दोनों स्वतंत्र देश हैं, लेकिन व्यापार और आवाजाही के मामले में दोनों के रिश्ते सामान्य हैं।

दूसरे विश्व युद्ध के फौरन बाद स्पात (स्टील) और कोयला उद्योगों के एकीकरण के साथ यूरोपीय संघ प्रोजेक्ट शुरु हुआ था। क्योंकि, ये दोनों ही चीजें युद्ध की तैयारियों में सीधे इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं थीं।

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दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का संगठन आसियान का इतिहास इसके सदस्य देशों के बीच दुश्मनी वाली रहा है। सिंगापुर ने दो इंडोनेशियाई नौसैनिकों को सिंगापुर के अंदर आतंकी बम विस्फोट के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद फांसी पर लटका दिया था। आज यह दुनिया के सबसे बड़े व्यापारिक क्षेत्रों में से एक है। आज वहां बौद्ध, मुस्लिम, हिंदू, कम्युनिस्ट और सभी तरह के लोग हैं और एक-दूसरे को वीजा-मुक्त यात्रा की सुविधा देते हैं।

चीन ने सदियों तक वियतनाम पर कब्जा कर रखा था और इसे आज भी याद किया जाता है और वियतनामी लोग अभी भी चौकन्ने रहते हैं। लेकिन इसने उन्हें चीन के साथ व्यापार करने से नहीं रोका। इसी तरह चीन ने जापान के लिए कारोबारी रास्ते खोलने से वियतनाम को नहीं रोका, जिसने विभाजन के उसी दशक में उस पर कब्ज़ा कर लिया था। दरअसल नेताजी की आजाद हिंद फौज (आईएनएस) सिंगापुर के पतन तक उसी जापानी सेना के साथ संबद्ध थी।

यूरोप और आसियान, दोनों ही हमें वो रास्ता दिखाते हैं जिसकी जरूरत पर राम माधव जोर दे रहे हैं। उनका तर्क मोटे तौर पर दूसरों पर केंद्रित है और उनका माना है कि भारत में तो कोई खामी नहीं है और इसे कुछ अधिक करने की जरूरत नहीं है क्योंकि सांप्रदायिकता तो हमारे लिए सिर्फ एक अपवाद है, जबकि दूसरों के लिए यह नियम है। हम इस पर बहस कर सकते हैं, लेकिन आज मैं ऐसा नहीं करनेवाला हूं। हम विस्तृत तर्कों को स्वीकार कर सकते हैं। सवाल है कि किसी समाधान की तरफ कैसे बढ़ा जाए। माधव वहां तक नहीं जाते, मेरी किताब इस पर बात करती है।

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विश्व बैंक कहता है कि, “दक्षिण एशिया कारोबार और लोगों के बीच आपसी संपर्क के मामले में दुनिया के सबसे कम एकीकृत क्षेत्रों में से एक है।”

बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार हमारे कुल व्यापार का सिर्फ 5 फीसदी है, जबकि दक्षिण पूर्व एशिया में यह संख्या पांच गुना ज़्यादा है। दक्षिण एशिया में सालाना व्यापार 23 अरब डॉलर का है, जबकि वास्तव में यह 100 अरब डॉलर से ज़्यादा होना चाहिए। क्यों? समस्या दरअसल पूरी तरह से मानव निर्मित है। विश्व बैंक का कहना है कि "सीमा पर स्थित चुनौतियों का मतलब है कि भारत में किसी कंपनी के लिए पड़ोसी दक्षिण एशियाई देश के बजाय ब्राजील के साथ व्यापार करना लगभग 20 प्रतिशत सस्ता है।" दक्षिण एशियाई देशों के बीच व्यापार के लिए परिवहन और रसद लागत आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के देशों की लागत से 50 प्रतिशत अधिक है।

मुख्य समस्या पूरे क्षेत्र में व्यापक विश्वास की कमी है। विश्व बैंक का कहना है कि, "पारंपरिक चिंताओं को अलग रखकर और साझा कदम उठाकर परस्पर मुद्दों के लिए सीमा पार समाधान विकसित किए जा सकते हैं, क्षेत्रीय संस्थानों को मजबूत किया जा सकता है, बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी में सुधार किया जा सकता है और व्यापार नीति को आगे बढ़ाया जा सकता है।"

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ये 'पारंपरिक चिंताएं' क्या हैं?

ये निश्चित रूप से एकीकरण की अनिच्छा यानी एकजुट होने में रुचि न होना, लोगों और पूंजी की सीमाओं के पार आवागमन को खत्म करने देने वाली दुश्मनी, नागरिकों को अधिक एकीकृत भविष्य के बारे में सोचने से हतोत्साहित करने के लिए खुराफाती लोगों को बढ़ावा देना और सबसे बढ़कर राजनीतिक कल्पना का अभाव हैं।

इससे होने वाले फायदे स्पष्ट हैं: “क्षेत्रीय सहयोग से दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए बड़े फायदे हासिल करने की संभावना”

यही समाधान है। हमें एक-दूसरे के साथ और अधिक व्यापार करना होगा, आने वाले लोगों के मामले में हमें एक-दूसरे के प्रति अधिक खुला रुख अपनाना होगा, और हमें उन तरीकों के बारे में सोचना होगा जिनसे यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी चुनौतियों पर एक साथ काम कर सके।

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इसके लिए सबसे बड़े देश के नेतृत्व की आवश्यकता होगी। और हमें ही इस सबसे सर्वाधिक लाभ होने की संभावना है, कम से कम अल्पावधि में हमारे विनिर्माण आधार को देखते हुए ऐसा कह जा सकता है। जैसा कि मैंने पिछले सप्ताह लिखा था, भारत आने वाले सभी चिकित्सा पर्यटकों में से आधे बांग्लादेश से ही आते हैं। बहुत कम या कोई पाकिस्तानी नहीं आ सकता क्योंकि उसके साथ रिश्ते ठंडे पड़े हैं।

ऐसा लगता है कि समाधान तो आसान है, लेकिन दरअसल इसे आंतरिक राष्ट्रवाद द्वारा रोका जा रहा है। बहुत से लोग समाधान नहीं चाहते क्योंकि या तो समस्या को ठीक से समझा नहीं गया है या फिर, जैसा कि कुछ राजनीतिक के अस्तित्व का आधार ही सांप्रदायिकता है।

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