विचार

पाक पर जीत के 50 साल: जब इंदिरा गांधी ने संसद भवन की सीढ़ियां दौड़ते हुए पार कीं, कार्यवाही रोक कर की विजय की घोषणा

16 दिसंबर को भारत उस ऐतिहासिक जीत के 50 साल का जश्न मना रहा है जब भारत ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इसके साथ ही एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ था। पाकिस्तान के साथ इस युद्ध को अंजाम दिया था सैम मानेकशॉ ने।

सोशल मीडिया
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सैम मानेक शॉ उस समय सेना अध्यक्ष जब भारत ने पाकिस्ता को घुटने टेकने पर मजबूर किया। इस ऐतिहासिक जीत की इबारत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कुछ इस तरह लिखी थी कि सिर्फ दो सप्ताह के अंदर पाकिस्तानी फौज ने हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर दिया था। इस पूरे घटनाक्रम को सैम मानेक शॉ पर लिखी किताब में ब्रिगेडियर बेहराम एम. पंथकी (सेवानिवृत्त) और जिनोब्या पंथकी ने कलमबद्ध किया है। इस किताब का शीर्षक है "फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ : अपने समय का चमकता सितारा"

जनरल एस.एच.एफ.जे. मानेकशॉ ने 8 जून, 1969 को भारत के सातवें सेना अध्यक्ष का कार्यभार संभाला। वह पहले भारतीय कमीशन प्राप्त अधिकारी थे जिन्हें सेना अध्यक्ष के पद पर तैनात किया गया था। उनका ‘सेना के लिए दिवस का विशेष संबोधन’ अब तक का सबसे छोटा भाषण था, ‘मैंने आज सेना अध्यक्ष का कार्यभार संभाल लिया है। मैं उम्मीद करता हूं हर कोई अपनी जिम्मेदारी निभाएगा।’

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेना अध्यक्ष (सीओएएस) के रूप में सैम की नियुक्ति पर हस्ताक्षर कर दिए लेकिन उनके करीबी राजनीतिक समर्थक वर्ग ने सैम के पश्चिमी आर्मी कमांडर रहने के दौरान सेना के दल को मेरठ से दिल्ली ले जाने पर सवाल उठाना जारी रखा। उनको डर था कि न सिर्फ थल सेना में बल्कि सभी सशस्त्र सुरक्षा बलों में उनकी छवि और आम जन में उनकी लोकप्रियता के कारण वह एक सफल तख्ता पलट वाले संभावित जनरल बन सकते थे।

उनके सेना अध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण करने के तुरंत बाद श्रीमती गांधी ने अपनी गलतफहमियों को दूर करने का फैसला किया। उन्होंने सैम को संसद भवन के अपने कार्यालय में चाय पर आमंत्रित किया। सैम पहुंचे तो उन्होंने देखा कि श्रीमती गांधी बहुत परेशान और भावुक थीं। जब उनको पता चला कि इस परेशानी का कारण वह हैं, तो उन्होंने साफ मन और शिष्टता के साथ सहारा देने की पेशकश की। श्रीमती गांधी ने कहा, ‘हर कोई कहता है किआप मुझसे सत्ता ले लेने वाले हैं।’ तो सैम बोले, ‘क्या आपको लगता है मैं ऐसा करूंगा?’ तब इंदिरा ने जवाब दिया, ‘आप ऐसा नहीं कर सकते हैं।’ सैम ने मजाक में पूछा, ‘क्यों, क्या आपको लगता है मैं इतना अक्षम हूं?’ अपने आकर्षक लहजे में उन्होंने श्रीमती गांधी को आश्वस्त किया कि वह किसी तरह की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रखते हैं। तख्तापलट देश और सेना के लिए विनाशकारी होता है। इस तरह का कोई विचार वह अपने मन में आने ही नहीं देंगे। इस तरह उन दोनों के बीच एक बेहतरीन कार्यकारी संबंध की भूमिका तैयार हो गई।

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भारतीय उपमहाद्वीप में 1971 के आरंभ से ही युद्ध के बादल गरज रहे थे। 1970 में पूर्वी पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टी- अवामी लीग ने पाकिस्तान के संघीय चुनाव में अधिक सीटें जीत ली थीं जिससे जुल्फिकार अली भुट्टो की पश्चिमी पाकिस्तान की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी उनसे पीछे रह गई थी। इससे अवामी लीग के नेता एक बंगाली मुसलमान शेख मुजीबुर रहमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार बन गए थे। इसके पहले 1966 में मुजीब पूर्वी पाकिस्तान की स्वायत्तता की छह सूत्रीय योजना प्रस्तुत कर चुके थे। पश्चिमी पाकिस्तान और भुट्टो ने इसे अलगाववादी योजना कहकर पूर्णतया नकार दिया था। 1970 में पूर्ण बहुमत से जीतने के बावजूद उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण नहीं दिया गया। इससे पूर्वी पाकिस्तान में सविनय अवज्ञा आंदोलन भड़क उठा और पाकिस्तान के राष्ट्रपति एवं चीफ मार्शल लॉ अधिकारी जनरल याहया खान ने फौजी दखल का आदेश दे दिया।

25 मार्च, 1971 को फौजी कार्रवाई आरंभ हो गई और 26 मार्च की सुबह मुजीब अपने ढाका के घर से गिरफ्तार कर लिए गए तथा उन्हें हवाई मार्ग से पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया। दूसरे ही दिन 27 मार्च की सुबह शेख मुजीबुर रहमान की ओर से मेजर जियाउर रहमान ने ‘बांग्लादेश गणतंत्र’ की स्वतंत्रता का ऐलान कर दिया और पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व समाप्त हो गया।

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मुजीब की गिरफ्तारी की खबर फैलते ही पूर्वी पाकिस्तान विरोध और आंदोलन की ज्वाला से धधक उठा। आंदोलन को कुचलने के लिए जनरल टिक्का खान को भेजा गया। नतीजतन वहां गृहयुद्ध आरंभ हो गया क्योंकि पाकिस्तान की सेना के बंगाली अफसरों एवं ईस्ट बंगाल राइफल के सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना छोड़कर ‘मुक्ति वाहिनी’ का गठन कर लिया था। टिक्का ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ प्रारंभ कर दिया। विश्वविद्यालयों में हजारों बुद्धिजीवियों का नरसंहार किया गया तथा विरोधियों की निर्ममतापूर्वक हत्या की गई। इसकी वजह से आगे आने वाले महीनों में एक मानवतावादी संकट उत्पन्न हो गया कि हजारों-लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत आने लगे। भारत के पाकिस्तान से बेहथियार नागरिकों के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई रोकने की बार-बार अपील करने पर भी उसके कान में जूं तक नहीं रेंगी।

अप्रैल, 1971 के अंतिम दिनों में जब भारत के कोई कूटनीतिक प्रयास सफल नहीं हुए, तब सेना अध्यक्ष को मंत्री-परिषद की बैठक में बुलाया गया। प्रधानमंत्री और उनके मंत्री-परिषद का विचार था कि पाकिस्तान के विरुद्ध तुरंत युद्ध छेड़ दिया जाए। सैम के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया, मगर सैम ने उन सभी तथ्यों को सामने रखा जो किसी जल्दबाजी में ली गई सैनिक योजना से संबंधित होते हैं और फौरन बंदूकें तान देने के आवेग का कारण पूछा। युद्ध के लिए यह समय सही नहीं था। सैम को अपनी फौज को युद्धस्थल तक पहुंचाने के लिए समय चाहिए था और यह भी सुनिश्चित करना था कि युद्ध के लिए हर सामान की आपूर्ति पूर्ण और निर्बाध रूप से होती रहे।

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श्रीमती गांधी बहुत गंभीर हो गईं। उन्होंने मंत्री-परिषद की बैठक समाप्त की, पर सैम से वहीं रुकने को कहा। सैनिकों का कर्तव्य होता है कि वह सरकार की आज्ञा पालन करें लेकिन वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उनकी जिम्मेदारी होती है कि ऐसे आदेश का विरोध करें जिनको लागू करने से सैनिकों का जीवन खतरे में हो। श्रीमती गांधी के क्रोध को देखते हुए उन्होंने पूछा, ‘क्या आप चाहती हैं कि मैं अपने शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य का बहाना बना कर अपना त्यागपत्र भेज दूं? मेरा कर्तव्य है कि मैं आपको सच से अवगत कराऊं।’

सैम ने निश्चय किया कि यदि युद्ध करना अंतिम विकल्प है तो वह उनके अनुसार होगा। ‘युद्ध करना मेरा कर्तव्य है और युद्ध जीतना भी मेरा कर्तव्य है।’ उन्होंने प्रधानमंत्री को आश्वासन दिया कि पूर्वी पाकिस्तान एक महीने के अंदर घुटने टेक देगा। शर्त यह थी कि सैम को पूरी छूट दी जाए, समय का चुनाव वह करेंगे और वह केवल एक राजनेता, यानी सिर्फ प्रधानमंत्री के प्रति ही उत्तरदायी होंगे। इंदिरा ने उनकी सारी शर्तें मान लीं। सैम की यह रणनीति सेना और पूरे देश के लिए सही रही लेकिन उस समय के रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम को सही नहीं लगी जिसकी कीमत सैम को बाद में चुकानी पड़ी।

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30 नवंबर को कार्यकारी डी एम ओ, मेजर जनरल इंदर गिल के पास दिल्ली में आस्ट्रेलिया के सैनिक सहचारी का फोन आया। कूटनीतिकों के परिवार इस्लामाबाद से हटाए जा रहे थे जो जाहिर करता था कि पाकिस्तान आक्रमण करने वाला था। चार दिन बाद 3 दिसंबर, 1971 को दोपहर तीन बजकर 50 मिनट पर पाकिस्तान की वायु सेना ने भारत के पश्चिमी क्षेत्र में श्रीनगर से जोधपुर तक 11 सैनिक हवाई अड्डों पर आक्रमण कर दिया और उन्होंने आगरा हवाई अड्डे पर भी बमबारी की। प्रधानमंत्री उस समय कलकत्ता में थीं। उन्हें सूचना दी गई और सरकार को सचेत कर दिया गया। थल, वायु एवं नौ सेना को जवाबी कार्रवाई का आदेश दे दिया गया और उसके साथ ही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तीसरी बार भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। भारतीयसेना ने मुक्ति वाहिनी से मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में तीन तरफा आक्रमण आरंभ किया। शत्रु सेना हमसे संख्या में कम और सब तरफ से घिरी हुई थी। पाकिस्तान की थल सेना को कोई हवाई सहायता मिल नहीं सकती थी क्योंकि ढाका का हवाई अड्डा तथा वहां खड़े 20 जहाज हमारी वायु सेना ने नष्ट कर दिए थे।

सैम की रणनीति कारगर सिद्ध हुई और 14 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना के दो मध्यस्थ- एक, अमेरिकी दूतावास कर्मी और दूसरे, यूएनडीपी के दिल्ली स्थित प्रतिनिधि का यह संदेश मिला कि पूर्वी पाकिस्तान सेना के आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए तैयार हैं। सैम ने 15 दिसंबर को उत्तर दिया कि वह जिनेवा समझौते के आधार पर पाकिस्तान के सैनिकों, अर्धसैनिकों तथा पश्चिमी पाकिस्तान के नागरिकों को पूरी सुरक्षा एवं सम्मान देने का वादा करते हैं। इस विश्वास के तहत वह अपनी पूर्वी आर्मी कमांडर को शाम 5.00 बजे से युद्ध विराम के लिए हुक्म देंगे और जनरल राव फरमान अली से उम्मीद करते हैं कि वह पाकिस्तानी सेना को आदेश देंगे कि अब वह कोई उकसाने वाली कार्रवाई न करें। सैम ने चेतावनी दी कि यद्यपि वह व्यर्थ के खून-खराबे से नफरत करते हैं किंतु यदि इस समझौते में धोखा हुआ तो वह और भी भीषण आक्रमण करेंगे।

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15 दिसंबर की शाम 5.00 बजे युद्ध थम गया, सिवाय इसके कि दूरदराज यह संदेश न पहुंचने के कारण कहीं-कहीं छुटपुट झड़पें होती रहीं। 16 दिसंबर की शाम 4.30 बजे लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने ढाका के रामना रेसकोर्स मैदान में आत्मसमर्पण संधि पर हस्ताक्षर किए और पूर्वी कमांड के जी ओ सी-इन-सी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के हाथ में अपनी पिस्तौल, पेटी और पद के बिल्ले दे दिए और पाकिस्तान की पूर्वी सेना की कमान भारतीय सेना के हाथ में दे दी। इस तरह उस युद्ध का अंत हुआ जिसके साथ 93,000 पाकिस्तानी अफसरों एवं सैनिकों ने बिना शर्त हिन्दुस्तान की फौज को आत्मसमर्पण किया।

कमांडर चाहते थे कि जिन लक्ष्यों के हम बिल्कुल करीब हैं, उन पर अपना कब्जा कर लें। लेकिन सरकार ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। श्रीमती गांधी ने अपने अमेरिका और यूरोप के दौरे में यह जोर देकर कहा था कि भारत का किसी की भूमि हड़प करने का कोई भी गुप्त इरादा नहीं है। ढाका पतन के दिन श्रीमती गांधी अपनी उत्तेजना नहीं रोक पाईं। उन्होंने संसद भवन की सीढ़ियां दौड़ते हुए पार कीं और कार्यवाही रोककर विजय की घोषणा कर दी। पाकिस्तान को मात्र दो सप्ताह के अंदर घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था जबकि इस कार्य में अनुमानतया चार से छह सप्ताह लगने की उम्मीद थी। पूरे सदन में हर्षोल्लास छा गया। यह भारत के लिए श्रेष्ठतम घड़ी थी।

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