विचार

बजट की खबरों में दलित-आदिवासी की जगह ‘एकलव्य’ क्यों नजर आ रहे हैं?

सत्तारुढ़ बीजेपी ने अपने सांस्कृतिक औजारों से दलितराजनीति को जिस तरह से प्रभावित किया है उसकी अपेक्षा दलितों के आर्थिक सामाजिकउत्थान की राजनीतिक आवाज को सरकार चुनावी वर्ष में चुनौती नहीं मान रही है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया क्या दलितों के आर्थिक और राजनीतिक उत्थान को चुनौती नहीं मानती है सरकार

यह एक दिलचस्प तथ्य लोकसभा में 1 फरवरी को 2018-19 के लिए प्रस्तुत किए गए बजट की खबरों का अध्ययन से निकलता है। 2 फरवरी को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले लगभग सभी राष्ट्रीय समाचार पत्र बजट की खबरों से भरे हैं। यदि एक समाचार पत्र में खेल पृष्ठों को छोड़कर 26 पृष्ठों में बजट की कुल 110 से ज्यादा हेडिंग व सब हेडिंग है तो उनमें एक में भी दलित और आदिवासी शब्द नहीं मिलता है। जबकि संसदीय राजनीति का ककहरा दलित और आदिवासी से शुरु होकर समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचता है। खासतौर से सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी सुरक्षित क्षेत्रों से अपनी सीटों की संख्या के आधार पर यह दावा करती है कि संसदीय पार्टियों में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के बीच उसका सर्वाधिक प्रभाव है।

लेकिन भारत सरकार के प्रेस इंफोरमेशन ब्यूरों ने वित्त मंत्री के बजट भाषण की जो प्रमुख बातें प्रचारित की है उनमें भी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति नहीं है। लेकिन इन तथ्यों के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार के दलित चेहरे एवं वरिष्ठ मंत्री राम विलास पासवान ने बिना किसी तथ्य के यह जुमला व्यक्त किया है कि कुल मिलाकर यह बजट गरीबों, खास कर अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के लिए हितकारी है।

बजट में दलित आदिवासियों की हम तलाश करें इससे पहले एक आध समाचार पत्र की उस हेडिंग पर ध्यान जाता है जहां अनुसूचित जनजातीय विद्यार्थियों के लिए वर्ष 2022 तक हर जनजातीय ब्लॉक में एकलव्य आवासीय स्कूल खोलने की घोषणा की गई है। हिन्दू धर्मग्रंथों में एकलव्य का मिथक दलितों को शिक्षा से वंचित करने के संदर्भ में आता है। आदिवासी इलाकों में बच्चे तो आदिवासी होते है लेकिन शिक्षक उनकी भाषाओं के नहीं होते और ना ही उनकी संस्कृति से उनका परिचय होता है। जाहिर है कि यह आदिवासी संस्कृति के बजाय हिन्दुत्व के विस्तार को ध्यान में रखकर किया जा रहा है जहां कि अपने जन, जंगल और जमीन को बचाने के लिए आदिवासी सबसे कठीन दौर से गुजर रहे हैं।

बजट में दलितों व आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक ताकत बढ़े इसके लिए भारी भरकम बजट के विवरणों की खोज हम करें उससे पहले आर्थिक सर्वेक्षण के इस तथ्य की तरफ ध्यान जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मनरेगा के तहत वर्ष 2017-18 के दौरान लगभग 4.6 करोड़ परिवारों को रोजगार प्रदान किया गया। उनमें अनुसूचित जाति की भागीदारी 22 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की भागीदारी 17 प्रतिशत थी। इस बार के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने मनरेगा को समय की जरूरत के मुताबिक सामाजिक बीमा की भूमिका के रुप में पेश किया है, लेकिन पिछले कई सालों से समाज के दबे कुचले लोगों की आर्थिक सुरक्षा के लिए खबरों की सुर्खियों में रहने वाला मनरेगा 2018-19 के बजट की खबरों में कहीं दिखाई नहीं देता है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सबसे बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र का मजदूर हैं। स्वंय के उद्योग और व्यापार और मेक इन इंडिया में उनकी भागीदारी बजट की योजनाओं का हिस्सा नहीं होती है। बजट में उन पर कृपा दृष्टि का भाव ज्यादा प्रखर दिखता है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के बीच स्व रोजगार के हालात का अंदाजा वित्त मंत्री के भाषण के इस अंश से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 2015 में जो मुद्रा योजना शुरु की थी उसके तहत महज 10.38 करोड रुपये के मुद्रा लोन दिए गए। इनमें 76 प्रतिशत ऋण खाते महिलाओं के हैं। जब अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए ज्यादा कुछ कहने के हालात में सरकार नहीं होती है, तो वह कभी महिला के चेहरे को आगे कर देती है तो कभी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग का एक मुहावरा तैयार करती है। मध्यम और लघु उद्यम एवं रोजगार को बढ़ावा देने के लिए जो 10 करोड़ 38 लाख रुपये का मुद्रा लोन दिया गया, उनमें 50 प्रतिशत से ज्यादा ऋण खाते अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लिए हैं।

यदि वित्त मंत्री के बजट में आर्थिक व सामाजिक स्तर पर सबसे कमजोर माने जाने वाले अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए ठोस रुप में प्रावधान होने की एक झलक देखी जा सकती है, तो वह सामाजिक कल्याण के लिए प्रस्तावित राशि का प्रावधान है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के लिए आम बजट में अनुसूचित जातियों के लिए 279 कार्यक्रमों के लिए 56,619 करोड़ रूपये और अनुसूचित जन-जातियों के लिए चल रहे 305 कार्यक्रमों के लिए 39,135 करोड़ रूपये के आवंटन का प्रस्ताव किया है।

दरअसल इस राशि के प्रावधान से पहले वित्त मंत्री ने जो पृष्ठभूमि बनाई है वह दिलचस्प है। वे ये कहने के बजाय की पिछले बजट की तुलना में इस वर्ष इस मद में कितनी राशि का इजाफा किया गया है, वे 2016-17 में आवंटित राशि की चर्चा करते हैं। उन्होंने बताया कि अनुसूचित जातियों के लिए वर्ष 2016-17 के 34,334 करोड़ रूपये की तुलना में वर्ष 2017-18 में आवंटन को बढाकर 52,719 करोड़ रूपये किया गया। अनुसूचित जन-जातियों के लिए 2016-17 में 21,811 करोड़ रूपये का आवंटन हुआ था जोकि वर्ष 2017-18 में बढाकर 32,508 करोड़ रूपये किया गया। इस तरह अनुसूचित जाति के लिए 2018-19 में महज 3900 करोड़ और अनुसूचित जनजातियों के लिए 6627 करोड़ रुपये की वृद्धि का प्रावधान है। लेकिन इन आंकड़ों को इस तरह देखा जा सकता है कि पिछले वर्ष के मुकाबले कुल व्यय में अनुसूचित जातियों के लिए व्यय की जाने वाली राशि में कटौती हूई है।

पिछले वर्ष 2.44 प्रतिशत के मुकाबले इस वर्ष 2.31 प्रतिशत व्यय करने का प्रावधान किया गया है। अनुसूचित जनजाति के लिए यह प्रावधान 1.49 प्रतिशत के मुकाबले 1.60 प्रतिशत किया गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि सत्तारुढ़ बीजेपी ने अपने सांस्कृतिक औजारों से दलित राजनीति को जिस तरह से प्रभावित किया है उसकी अपेक्षा दलितों के आर्थिक सामाजिक उत्थान की राजनीतिक आवाज को सरकार चुनावी वर्ष में चुनौती नहीं मान रही है।

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