विचार

'क्या पाकिस्तान के हाथों खेलेगा तालिबान, या फिर उसी को बना लेगा अपना खिलौना, हमारे लिए तो हर तरह से चिंता का सबब है'

आज हमारी विदेश नीति में न तो संतुलन है और न ही हमारे पैर जमीन पर जमे हैं कि सार्थक हस्तक्षेप करके दुनिया को सामूहिक नेतृत्व दे सकें। उधर, ये कहना मुश्किल है कि तालिबान अफगानिस्तान तक ही सीमित रहेगा या यह तालिबान ब्रांड को दुनिया में फैलाने का जरिया बनेगा।

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कई साल से हम सबके मन में यह सवाल घुमड़ता रहा था कि क्या अफगानिस्तान लंबे समय से चले आ रहे संकट के दौर से निकल पाएगा और क्या वहां स्थिर सरकार देने की दिशा में किए जा रहे अथक प्रयास आगे भी जारी रहेंगे? यूपीए सरकार के दौरान हमने नए संसद भवन, स्कूलों-जैसे अहम संस्थानों के पुनर्निर्माण के अतिरिक्त सलमा बांध-जैसी विकास परियोजनाओं पर भारी धनराशि खर्च की। अब सब कुछ तालिबान के हाथ में है और लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के प्रयास छिन्न-भिन्न हो गए हैं। हम पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई जैसे अपने दोस्तों की खैरियत के लिए फिक्रमंद ही हो सकते हैं जो अपने परिवार जिसमें छोटी-छोटी बच्चियां भी हैं, के साथ काबुल में ही रह रहे हैं। मैं मानकर चलता हूं कि सरकार ने हमारे नागरिकों के साथ-साथ भारत से दोस्ती निभाने वाले अफगानों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए पर्याप्त राजनीतिक उपाय बचाकर रखे होंगे।

भारतीय राजनयिकों को अफगानिस्तान के जमीनी हालात का काफी अनुभव और समझ है। बावजूद इसके ऐसा लगने लगा है, मानो हम अफगानिस्तान के बारे में अमेरिकियों जितना ही कम जानते हैं जिन्होंने अपने सैन्य कर्मियों पर अनकही तकलीफ थोप दी और इस संघर्षग्रस्त देश में भारी धनराशि झोंक दी, बेशक इससे कुछ खास न दिखता हो। यह बात समझी जा सकती है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को छोड़ने का मन बना लिया था क्योंकि वह वहां रहने की कीमत पैसे और अपने सैनिकों की जान से चुकाने को अब और तैयार नहीं था। बेशक उसने समय- समय पर दुनिया का पुलिस होने का ढोंग किया लेकिन निश्चित ही लोकतंत्र और आजादी की रक्षा करने की जिम्मेदारी अकेले उसी की नहीं। यह बात भी साफ है कि तमाम देशों को आजादी की इतनी परवाह नहीं कि वे घर से दूर इसके लिए लड़ें।

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अफसोस की बात है कि हमारे लिए भी हालात कुछ अलग नहीं। लेकिन जैसा कि दुनिया बीते समय में बार-बार इस नतीजे पर पहुंची है कि जो कहीं होता है, वैसा ही हमेशा किसी और जगह नहीं होता। जो भी हो, हमारे मामले में सबसे बड़ी बात यह है कि वह ‘कहीं’ भौगोलिक या सियासी तौर पर हमसे ज्यादा दूर नहीं। हमने कथित तौर पर तालिबान के साथ बातचीत के दरवाजे खोलने की थोड़ी-बहुत कोशिशें कीं जबकि चीनी और रूसियों के पास सक्षम बैक चैनल थे। लेकिन हमारे अजीबोगरीब हालात और वैश्विक कूटनीति के बारे में हमारे नजरिये को देखते हुए यह सोचना भी मुश्किल है कि हम इससे कुछ खास हासिल कर सकते थे। अब जबकि पासा फेंक दिया गया है, ऐसा लगता है कि हम दो पाटों के बीच ऐसे अटक कर रह गए हैं कि हिलना-डुलना भी मुश्किल है। साफ है, हमारे पास अभी इंतजार के अलावा करने को कुछ नहीं। पाकिस्तान पर भी नजर रखनी होगी कि ऐसे समय जब उसकी चालें सही पड़ रही हैं, डूरंड रेखा के पार से वह लड़ाकों की खेप भेज सकता है।

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यद्यपि हमारे आम अफगानों से दोस्ताना रिश्ते रहे हैं और उत्तर भारत में तमाम लोग पश्तून मूल के हैं। गौरतलब है कि तालिबान में बड़ा हिस्सा पश्तूनों का है। इसके अलावा अफगानिस्तान से हमारे रिश्ते कई पीढ़ियों पुराने हैं। फिर भी, हम तालिबान के बारे में बहुत कम जानते हैं। इसलिए हम अटकलें ही लगाते रहते हैं कि क्या नई पीढ़ी के तालिबान अपने पूर्ववर्तियों से अलग हैं जिन्होंने बामियान बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट कर दिया और लड़कियों-औरतों का जीना मुहाल कर दिया था। अफगान सेना पर इतनी जल्दी काबू पाने और आम नागरिकों के बीच कुछ समर्थन हासिल कर लेने से तालिबान की क्षमता का कुछ तो अंदाजा होता ही है। पिछली बार संघर्ष के दौरान भारत नॉर्दर्न अलायंस से सहानुभूति रखता और उसका पक्ष लेता था। अहमद शाह मसूद के लिए हमारी तारीफ काफी साफ थी। इसलिए जब तालिबान ने इस बार घोषणा की कि अफगानिस्तान में युद्ध खत्म हो गया है, तो क्या हमें भरोसा कर लेना चाहिए कि गृहयुद्ध की दरारें भी हमेशा के लिए भर गई हैं?

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एक तरह से अफगानिस्तान का घटनाक्रम भारत के लिए दुनिया में प्रभावशाली बड़ी ताकतों के बीच एक मुकाम बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को आजमाने का भी एक मौका है। हमने बहुत आसानी से यह मान लिया होगा कि अपने लिए हमने एक स्पष्ट-सी जगह बना ली है। मौजूदा समय में सुरक्षा परिषद के प्रमुख के रूप में हमारी जिम्मेदारी और भी बड़ी हो जाती है। आने वाले महीनों में भारत को एक निश्चित भूमिका निभानी होगी लेकिन यह जरूरी है कि इससे पहले हम अपने वैश्विक नजरिये के बारे में घरेलू स्तर पर तो स्पष्टता हासिल कर लें। हम अमेरिका के साथ अपनी तमाम प्राथमिकताओं को साझा करते हैं और मौजूदा सरकार रूस के साथ हमारे पारंपरिक रिश्तों के प्रति समय-समय पर दिखते रहे सार्वजनिक समर्थन के बावजूद स्पष्ट रूप से अमेरिका की ओर झुकी हुई है। लेकिन आज हम कहां खड़े हैं?

अनुमान के मुताबिक ही, जब अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था तो इसके कारण हमारे हितों या इस क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं था। दूसरी ओर, चीन के साथ हमारे जिस तरह के रिश्ते हो गए हैं, संकट के इस समय में साझा नजरिया विकसित करके कोई योजना बनाने की कोई संभावना नहीं दिखती। लेकिन रूस के साथ रिश्तों के साथ भी इस तरह की कोई स्थिति आ सकती है, ऐसा हमने कभी सोचा भी नहीं था। ऐसा नहीं है कि हमारा पिछला रिकॉर्ड पूरी तरह से दोषरहित या बिना किसी विरोधाभास के रहा है। लेकिन हमने विदेशी संबंधों में सावधानी पूर्वक तैयार किए गए संतुलन को बिगाड़े बिना वियतनाम, लाओस, पोलैंड आदि से भी व्यवहार बनाए रखा। आज हमारी विदेश नीति में न तो संतुलन है और न ही हमारे पैर जमीन पर जमे हैं कि सार्थक हस्तक्षेप करके दुनिया को सामूहिक नेतृत्व प्रदान कर सकें।

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दूसरी ओर, अभी इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि तालिबान की महत्वाकांक्षा क्या रहने वाली है। उनका ध्यान केवल अशांत अफगानिस्तान तक ही सीमित रहेगा या यह एक वैचारिक मंच बनेगा जो उनके ब्रांड की राजनीति और नजरिये को दुनिया में फैलाने का जरिया बनेगा, नहीं कहा जा सकता। वे पाकिस्तान के हाथों में खेलेंगे या पाकिस्तान को ही अपना खिलौना बना लेंगे? अमेरिका ने कहा है कि वह अफगानिस्तान को नहीं छोड़ेगा लेकिन पिछले हफ्तों की घटनाओं से पता चलता है कि अफगानिस्तान की मदद के लिए वह मौजूद नहीं रहने वाला।

दिलचस्प बात है कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्वीकार किया है कि अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका और भारत की सोच में अंतर है। निश्चित तौर पर यह एक महंगा अहसास है जिसके तमाम संकेत मिलने के बावजूद सरकार ने इसकी ओर से नजरें फेर रखी थीं। सच पूछें तो यह वक्त हमारे लिए अपनी पूरी विदेश नीति की समीक्षा करने का है जो इस भरोसे पर आधारित रही कि पूरी दुनिया हमसे प्यार करती है। हकीकत यह है कि हाल के समय में दुनिया का व्यवहार लेन-देन वाला हो गया है। हमें दुनिया से व्यवहार करने और उसे प्रेरित करने के बीच चयन करना होगा। लेकिन अगर हम अपनी घरेलू राजनीति में व्यवहार के विकल्प को चुनते हैं तो हमें शायद ही एक रोल मॉडल के तौर पर देखा जाए जैसा गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दिनों होता था। एक शास्त्रीय राजनयिक इसे रोमांटिक बकवास कहकर खारिज कर सकता है लेकिन इस बात को समझना होगा कि व्यावहारिक कूटनीति ने दुनिया को मौजूदा हालात में पहुंचा दिया है; शायद हमारे लिए बेहतर हो कि दुनिया में आए बदलावों को ध्यान में रखकर जरूरी बदलाव के साथ नेहरू की दृष्टि को अपनाएं।

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